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एक दुर्बल बुजुर्ग जिसके सामने खूंखार डकैतों ने डाल दिये थे हथियार

दोस्तों क्या आप एक ऐसे योद्धा के बारे में जानते हैं जिसने कभी कोई हथियार नहीं उठाया। लेकिन उसके कदमों में तमाम दुर्दांत डकैतों ने अपने हथियार लाकर रख दिये और डकैती के काम से तौबा कर ली।

Vidushi Mishra
Published on: 15 April 2023 2:49 AM IST
एक दुर्बल बुजुर्ग जिसके सामने खूंखार डकैतों ने डाल दिये थे हथियार
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Vinoba bhave

रामकृष्ण बाजपेयी

लखनऊ : दोस्तों क्या आप एक ऐसे योद्धा के बारे में जानते हैं जिसने कभी कोई हथियार नहीं उठाया। लेकिन उसके कदमों में तमाम दुर्दांत डकैतों ने अपने हथियार लाकर रख दिये और डकैती के काम से तौबा कर ली। इतना ही नहीं इस शख्स की एक आवाज पर लाखों एकड़ जमीन दान में मिल गई, जिसे भूमिहीनों में बांट दिया गया।

खुद महात्मा गांधी ने अपने इस शिष्य के बारे में कहा कि यह शख्स कुछ लेने नहीं देने आया है। गायत्री परिवार के मुख्य अभिभावक प. श्रीराम शर्मा आचार्य ने जिनके ऊपर लेखनी चलाई। जिन्हें दूसरा गांधी भी कहा जाता है। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि इस विशिष्ट व्यक्ति का नाम है आचार्य विनोबा भावे। जिनका आज जन्मदिन है।

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आचार्य विनोबा भावे का मूल नाम

आइए इनके बारे में कुछ ऐसी बातें जानते हैं जो आपको शायद पता नहीं होंगी। आचार्य विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नारहरी भावे था। इनका जन्म 11 सितम्बर 1895 में हुआ था और 15 नवम्बर 1982 को इस सपूत का निधन हुआ।

विनायक नरहरि भावे का महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के एक गांव है गागोदा में जन्म हुआ था। विनोबा भावे के पिता नरहरि भावे चितपावन ब्राह्मण थे। वह गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले थे। रसायन विज्ञान में उनकी गहन रुचि थी।

दोस्तों उस समय रंग देश में नहीं बनते थे उन्हें बाहर से आयात करना पड़ता था। तो नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते थे। बस एक धुन थी देश को इस मामले में आत्मनिर्भर कैसे बनाया जाए। नरहरि भावे की पत्नी और विनोबा भावे की मां रुक्मिणी बाई बुद्धिमान महिला थीं।

उदार-चित्त की रुक्मणि बाई हमेशा भक्ति-भाव में डूबी रहतीं। इसके चलते कभी सब्जी में नमक कम पड़ जाता तो कभी ज्यादा। कभी दाल में हींग डालना भूल जातीं, तो कभी बिना छौंक लगाए ही दाल परोस देतीं। चूंकि सात्विक परिवार था इसलिए इन छोटी-मोटी बातों की ओर किसी का ध्यान जाता ही नहीं था।

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बचपन से चिंतन और आत्ममंथन में लीन

विनोबा का बचपन का नाम विनायक था। मां दुलार में विन्या बुलाती थीं। विनोबा के दो भाई भी थे, वाल्कोबा और शिवाजी। विनायक से छोटे वाल्कोबा और शिवाजी सबसे छोटे थे। विनायक को विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार। तुकोबा, विठोबा और विनोबा।

विनायक के जीवन पर मां की गहरी छाप थी। यह भी बचपन से चिंतन और आत्ममंथन में लीन रहते थे। न उन्हें खाने-पीने की सुध रहती थी। न स्वाद की। मां जैसा परोस देतीं, चुपचाप खा लेते। विनोबा के जीवन को दिशा देने में रुक्मिणी बाई बहुत बड़ा योगदान रहा।

विनायक घर के सात्विक माहौल में पुष्पित और पल्लवित हुए। गणित और विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोच उन्हें पिता से मिली।

विनोबा के बचपन की एक घटना है। रुक्मिणी बाई ने बच्चों के लिए एक नियम बनाया हुआ था कि भोजन तुलसी के पौधे को पानी देने के बाद ही मिलेगा। विन्या बाहर से खेलकर घर पहुंचते, भूख से आकुल-व्याकुल।

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मां के पास पहुंचते ही कहते, ‘मां, भूख लगी है, रोटी दो।’ मां कहती ‘रोटी तैयार है, लेकिन मिलेगी तब पहले तुलसी को पानी पिलाओ.’ मां आदेश देती। ‘नहीं मां, बहुत जोर की भूख लगी है।’ दुलार दिखाते विनोबा मां की गोद में बैठते, मां को प्यार तो आता लेकिन नियम-अनुशासन अटल, ‘तो पहले तुलसी के पौधे की प्यास बुझा।’ इसके बाद जब विन्या तुलसी के पौधे को पानी पिला देता तभी भोजन पाता।

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वैराग्य और संन्यास

बालक विनायक जैसे जैसे बड़ा हो रहा था उसमें वैराग्य और संन्यास का भाव बढ़ रहा था। मां भयभीत होती समझाती संसार से भागने के बजाय उसको बदलने का आग्रह करतीं।

मां कहतीं—‘विन्या, गृहस्थाश्रम का भली-भांति पालन करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।’ लेकिन विन्या कहते- ‘मां जिस तरह समर्थ गुरु रामदास घर छोड़कर चले गए थे, एक दिन मुझे भी उसी तरह प्रस्थान कर देना है।’

मां प्यार से बेटे को समझातीं- ‘विन्या, गृहस्थाश्रम का विधिवत पालन करने से माता-पिता तर जाते हैं। मगर बृह्मचर्य का पालन करने से तो 41 पीढ़ियों का उद्धार होता है।’

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चावल के एक लाख दाने दान

रुक्मिणी बाई हर महीने चावल के एक लाख दाने दान करती थीं। एक लाख की गिनती करना भी आसान न था, सो वे पूरे महीने एक-एक चावल गिनती रहतीं। विनोबा के पिता यह देखा करते थे। लेकिन पत्नी की बढ़ती उम्र व आंखों की कम होती रोशनी देख एक उन्होंने रुक्मिणी बाई को कहा इस तरह एक-एक चावल गिनने में समय बेकार करने की जरूरत ही क्या है।

एक पाव चावल लेकर उनकी गिनती कर लो। फिर उसी से एक लाख चावलों का वजन निकालकर तौल लो। कमी न रहे, इसलिए एकाध मुट्ठी ऊपर से डाल लो। रुक्मिणी बाई को पति की बात तो समझ में आई लेकिन मन नहीं मान रहा था उन्होंने अपनी दुविधा विन्या के सामने रखी और पूछा ‘इस बारे में तेरा क्या कहना है, विन्या?’

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बेटे ने सबकुछ सुना, सोचा। बोला, ‘मां, पिता जी के तर्क में दम है। गणित यही कहता है। किंतु दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती करना नहीं है। गिनती करते समय हर चावल के साथ हम न केवल ईश्वर का नाम लेते जाते हैं, बल्कि हमारा मन भी उसी से जुड़ा रहता है।’

ईश्वर के नाम पर दान के लिए चावल गिनना भी एक साधना है, रुक्मिणी बाई ने ऐसा पहले कहां सोचा था। उन्हें बेटे पर गर्व हो आया। उन्होंने आगे भी चावलों की गिनती करना न छोड़ा।

विनोबा प्रतिवाद करते हुए कहा

यह बात उन दिनों की जब विनोबा भावे गांधी जी के आश्रम में प्रवेश कर चुके थे। आश्रम में सुबह-शाम प्रार्थना सभा होती थीं। एक कार्यकर्ता उपस्थित आश्रमवासियों की गिनती करता था। एक दिन जब उसने संख्या बतायी। विनोबा ने प्रतिवाद करते हुए कहा नहीं इससे एक कम थी। कार्यकर्ता को अपनी गिनती पर विश्वास था, इसलिए वह अड़ गया।

 विनोबा भावे गांधी जी के आश्रम में

विनोबा भी अपनी बात पर अड़ गए। मामला बापू की अदालत में पहुंचा। बापू ने विनोबा की ओर देखा, तब विनोबा ने कहा—‘प्रार्थना में सम्मिलित श्रद्धालुओं की संख्या जितनी इन्होंने बताई उससे एक कम ही थी।’ ‘वह कैसे?’ ‘इसलिए कि एक आदमी का तो पूरा ध्यान वहां उपस्थित सज्जनों की गिनती करने में लगा था।’ गांधीजी विनोबा का तर्क समझ गए। आगे से प्रार्थना सभा में आए लोगों की गिनती का काम रोक दिया गया।

आगे चलकर जब विनोबा भावे ने संन्यास के लिए घर छोड़ा तो मां की एक लाल किनारी वाली धोती और उनके पूजाघर से एक मूर्ति साथ ले गए। मूर्ति तो उन्होंने दूसरे को भेंट कर दी। मगर मां की धोती जहां भी वे गए, अपने साथ रखी। इस धोती को सोते समय वह सिरहाने रखते थे। जैसे मां का आशीर्वाद साथ लिए फिरते हों।

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संन्यासी बनने घर से निकले

विनोबा भावे घर से निकले संन्यासी बनने थे लेकिन किस्मत कुछ और चाह रही थी जैसा उन्होंने कहा कि जिन दिनों में काशी में था, मेरी पहली अभिलाषा हिमालय की कंदराओं में जाकर तप-साधना करने की थी। दूसरी अभिलाषा थी, बंगाल के क्रांतिकारियों से भेंट करने की।

लेकिन इनमें से एक भी अभिलाषा पूरी न हो सकी। समय मुझे गांधी जी तक ले गया। वहां जाकर मैंने पाया कि उनके व्यक्तित्व में हिमालय जैसी शांति है तो बंगाल की क्रांति की धधक भी। मैंने छूटते ही स्वयं से कहा था, मेरे दोनों इच्छाएं पूरी हुईं।

विनोबा कहते थे कि नकारात्मक कार्यक्रमों के जरिए न तो शान्ति स्थापित हो सकती है और न युद्ध समाप्त हो सकता है। युद्ध रुग्ण मानसिकता का नतीजा है और इसके लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की जरूरत होती है।केवल यूरोप के लोगों को नहीं समस्त मानव जाति को इसका दायित्व उठाना चाहिए।

 विनोबा भावे गांधी जी के आश्रम में

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विनोबा ने सहानुभुति प्रकट की

विनोबा ने कहा था कि कम्युनिस्टों का आतंक दूर करने के लिए पुलिस कार्रवाई मददगार साबित नहीं हो सकती। इसको जड़ से समाप्त किया जाए। चाहे जितने भी दिग्भ्रमित वे क्यों न हो, विनोबा कम्युनिस्टों को विध्वंसक नहीं मानते थे और उनसे तर्कवितर्क करके तथा उनके लक्ष्य के प्रति सक्रिय सहानुभुति प्रकट करके विनोबा उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहते थे।

विनोबा भावे महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बंदी बनाये गये। 1937 में गांधीजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लौटे तो जलगांव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की इसपर उन्हें छह माह की सजा दी गयी। गांधीजी ने उन्हें पहला सत्याग्रही बताया था। इसके बाद 17 अक्टूबर 1940 को विनोबा भावेजी ने सत्याग्रह किया और वे बंदी बनाये गये इस बार उन्हें तीन वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला।

विनोबा भावे की रचनाओं में अष्टादशी (सार्थ), ईशावास्यवृत्ति, उपनिषदांचा अभ्यास, गीताई, गीताई-चिंतनिका, गीता प्रवचने, गुरुबोध सार (सार्थ), जीवनदृष्टी, भागवत धर्म-सार, मधुकर, मनुशासनम्‌ (निवडक मनुस्मृती - मराठी), लोकनीती, विचार पोथी, साम्यसूत्र वृत्ति, साम्यसूत्रे, स्थितप्रज्ञ-दर्शन प्रमुख हैं।

 विनोबा भावे गांधी जी के आश्रम में

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भूदान आंदोलन के महान अगुवा

आचार्य विनोबा भावे की अगुवाई में वर्ष 1951 में भूदान आंदोलन हुआ था। इस आध्यात्मिक संत ने चौदह वर्ष (सन् 1951 से 1964 तक ) लगभग 43 लाख मील की पैदल यात्रा की। 1964 में विनोबा ने जब पुन: अपने आश्रम सेवाग्राम में प्रवेश किया तो उस समय तक उनको 423627 एकड़ जमीन भूदान में मिल चुकी थी और 7560 ग्राम दान में मिले थे।

भूमिहीनों के लिए विनोबा भावे का यह बहुत बड़ा उपकार था। हालांकि विनोबा भावे की मंशा को हमारा तंत्र कितना पूरा कर पाया यह एक अलग चर्चा का विषय है लेकिन इससे विनोबा जी के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता। विनोबा के भूदान आंदोलन की पाकिस्तान में भी धूम रही जब वह पाकिस्तान गए तो उनका खूब स्वागत- सत्कार किया गया और जमीन माँगने पर 175 बीघा जमीन दी गई, जो उसी समय भूमिहीनों में बाँट दी गई।

इसी तरह से विनोबा भावे के नेतृत्व में जिस तरह कठोर ह्रदय डाकुओं ने हथियारों को डाला वह अपने आप में एक मिसाल है। क्योंकि डाकुओं को हानिकारक समाज -विरोधी माना जाता है। और ऐसे लोग यदि इस गलत मार्ग से हटकर समाज- सेवा की ओर आ जाएं तो एक तरह का चमत्कार ही कहा जाएगा।

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इस मुहीम में डाकू लुक्का, लच्छी, भगवानसिंह, तेजसिंह, कन्हई जैसे २० प्रसिद्ध डाकुओं ने विनोबा के आगे अपने हथियार लाकर रख दिए और प्रतिज्ञा की कि अब ऐसा काम न करेंगे।

Vidushi Mishra

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