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राज्यपाल से टकरा गये थे सीएम संपूर्णानंद

एकदा तमिलनाडु के राज्यपाल रहे डॉक्टर मर्री चन्ना रेड्डि पड़ोसी पुद्दुचेरी का भी कार्यभार संभाल रहे थे। अन्नाद्रमुक की मुख्यमंत्री जे. जयललिता से उनके रिश्ते बिगड़ चुके थे। चेन्नई से पुद्दुचेरी सड़क मार्ग से वे जा रहे थे, तभी अन्नाद्रमुक पार्टी कार्यकर्ताओं ने पत्थरबाजी की।

SK Gautam
Published on: 18 Feb 2021 7:12 PM IST
राज्यपाल से टकरा गये थे सीएम संपूर्णानंद
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राज्यपाल से टकरा गये थे सीएम संपूर्णानंद

K-Viram-rao

के. विक्रम राव

सम्पादक (अंग्रेजी पत्रिका) और प्रोफेसर रहे राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को शिवसेना मुख्यमंत्री के आदेश पर मुंबई में शासकीय वायुयान से (12 फरवरी 2021) जबरन उतरवाना अजूबा नहीं है। राजमद का फूहड नमूना है। सियासी इतिहास में कई ऐसे ही अशिष्ट और अभद्र हादसे पहले भी हो चुके हैं। त्रिपुरा की मार्क्सवादी सरकार ने तो राजभवन की बिजली और पानी की सप्लाई काट दी थी। नतीजन राज्यपाल रोमेश भंडारी को भागकर दिल्ली आना पड़ा। फिर उनका तबादला पणजी राजभवन (गोवा) कर दिया गया था।

राज्यपाल ने ''बेटी'' कहा, तब अमन कायम हो सका

एकदा तमिलनाडु के राज्यपाल रहे डॉक्टर मर्री चन्ना रेड्डि पड़ोसी पुद्दुचेरी का भी कार्यभार संभाल रहे थे। अन्नाद्रमुक की मुख्यमंत्री जे. जयललिता से उनके रिश्ते बिगड़ चुके थे। चेन्नई से पुद्दुचेरी सड़क मार्ग से वे जा रहे थे, तभी अन्नाद्रमुक पार्टी कार्यकर्ताओं ने पत्थरबाजी की। पुलिस देखती रही। कार का कांच ध्वस्त हो गया। परिसहायक ही डॉ. रेड्डि की ढाल बना, वर्ना राज्यपाल को अस्पताल पहुंचाना पड़ता। इसी प्रदेश के अभी राज्यपाल हैं संपादक बनवारीलाल पुरोहित। एक महिला रिपोर्टर के सौष्ठव की श्लाधा कर दी। पत्रकारों ने नासमझी में हंगामा कर दिया। अखबारी कालम रंग गए। राज्यपाल ने ''बेटी'' कहा, तब अमन कायम हो सका ।

कोलकाता की सड़कों पर हुजूम निकला

आजकल बंगाल बड़ी चर्चा में है। उसके राज्यपाल स्व. धर्मवीर थे। अजय मुखर्जी (विद्रोही कांग्रेसी) मुख्यमंत्री और माकपा के ज्योतिबासु उपमुख्यमंत्री थे। माकपाईयों से तंग आकर राज्यपाल ने सरकार (1969) बर्खास्त कर दी। कोलकाता की सड़कों पर हुजूम निकला। सूत्र केवल एक ही उच्चरित हो रहा था : ''रक्तेर बदला, रक्त चाये, धर्मवीरे सर चाये।'' बस पलायन कर धर्मवीर जी दिल्ली आ गये।

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बाद में कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा आदि के राजभवन में रहे। प्रयागराज के वकील केशरीनाथ त्रिपाठी तो तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की पत्थरबाजी भुगत चुके हैं। उनके लिये कोलकाता राजभवन त्रासदभरा रहा। अब जगदीप धनखड़ रोज ममता बनर्जी द्वारा विशेषणयुक्त संबोधन सुन रहे हैं।

हाल ही में छत्तीसगढ़ की आदिवासी राज्यपाल अनुसुईया उईक द्वारा नामित रायपुर विश्वविद्यालय के कुलपति को कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अधर में लटका दिया था। बाद में दोनों सत्ताकेन्द्रों में युद्धविराम हुआ। अंतत: त्रिशंकुजी कुलपति की कुर्सी पर विराज पाये। हालांकि अनुसुईया जी कांग्रेसी अर्जुन सिंह की भोपाल में काबीना में मंत्री रह चुकीं थीं।

दो और पहलू है जो राज्यपाल के इस प्रतिष्ठिा पद की असहायता और दुर्दशा दर्शाती है। इनसे राज्यपाल की मर्यादा में हास्र और प्रतिष्ठा में स्खलन हुआ है। पहला है पांच वर्ष के लिए नियुक्त किये जाने पर भी मुख्यमंत्रियों द्वारा राज्यपाल को पदच्युत करा देना अन्यथा हटवा देना। इसका सर्वप्रथम और स्पष्ट उदाहरण भी लखनऊ राजभवन का है। वाराहगिरी वेंकेटगिरी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए।

बस पहले कौर में ही मक्खी गिर गयी

चेन्नई से चलने के पूर्व उन्होंने बयान अथवा पत्रकारों ने छाप दिया कि वी. वी. गिरी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के सुषुप्त साथी की भूमिका नहीं वरन सजग राज्यपाल का रोल अदा करेंगे। बस पहले कौर में ही मक्खी गिर गयी। मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द ने ऐसी हालत पैदा कर दी कि वी.वी. गिरी को अपना तबादला कराना पड़ा। आधी अवधि में ही उन्हें केरल के राजभवन में बसना पड़ा। पोस्टिंग के अलावा ट्रांसफर नियम भी राज्यपालों पर लागू हो गया।

विभिन्न राज्यों की इतिवृत्त प्रमाण है कि राज्यपालों का अमोघ अस्त्र संविधान की धारा 356 है। इसका बेतहाशा, बहुधा बेतरतीब, प्रयोग राजभवन से होता रहा है। मुहावरे की शैली में कहें तो बर्खास्तगी की यह तलवार मुख्यमंत्रियों के सर पर लटकी रहती है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस धारा 356 को दंतहीन कहा था। पर उलटे यह नाखून और डंक से ज्यादा पैना हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस शस्त्र को एसआर बोम्मई वाली याचिका से सीमित कर दिया था। इसमें निर्दिष्ट है कि हर मुख्यमंत्री अपना बहुमत विधानसभा के भीतर, न कि राजभवन या राष्ट्रपति भवन के बगीचे अथवा प्रांगण में, प्रमाणित करेंगे। फिर भी ऐसी हरकत होती ही रहीं है।

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अचरज तो इसलिये होता है कि उच्चतम न्यायालयों के एक प्रधान न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी तथा न्यायमूर्ति राजेन्द्र सिंह सरकारिया ने केन्द्र और राज्य के संबंधों पर अपने अलग—अलग आयोग की सिफारिशें पेश की थीं। सब अलमारी की आली में धरी ही रह गयी।

नंबूदिरिपाद सरकार भंग कर दी गयी

सबसे दुखद और घृणित उपयोग इस धारा 356 को जवाहरलाल नेहरु ने इन्दिरा गांधी के दबाव में केरल की कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध किया था। तब (1958) मुख्यमंत्री के ईएमएस नंबूदिरिपाद। शिक्षा सुधार कानून के खिलाफ केरल की नायर सेवा समिति (मन्नथ पडानाभन) और ईसाई संस्थाओं ने एकजुट होकर आन्दोलन किया। सरकार के विधानसभा में अपार बहुमत होने के बावजूद भी नंबूदिरिपाद सरकार भंग कर दी गयी।

इसके कुछ ही वर्ष बाद ही उत्तर प्रदेश के राज्यपाल डा. बी. गोपाल रेड्डि ने चौधरी चरण सिंह की सरकार को साठ के दशक में बर्खास्त कर डाला। रोमेश भंडारी ने तो और अभूतपूर्व हरकत की। भाजपाई कल्याण सिंह की सरकार को हटा दिया। आधी रात को कांग्रेसी (अधुना भाजपाई सांसद) जगदंबिका पाल को शपथ दिलायी। अटल बिहारी वापजेयी विरोध में अनशन पर बैठ गये। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा में उन्हें बहुमत सिद्ध का आदेश दिया।

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एक ही सदन में दो मुख्यमंत्री एक साथ थे, क्या नजारा था! इससे दुखद दृश्य टाइम्स आफ इंडिया का संवाददाता होने के नाते मैंने स्वयं अगस्त 1984 में आंध्र प्रदेश देखा था। तब हिमाचल से हैदराबाद पधारे ठाकुर राम लाल ने तेलुगु देशम के एनटी रामा राव को तीन चौथाई बहुमत के बावजूद हटा दिया था। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी। भला हो डा. शंकर दयाल शर्मा का जो राज्यपाल बनकर आये और कानून का राज पुरर्स्थापित किया।

मोहनलाल सुखडिया को गुपचुप शपथ दिला दी गई

मगर जयपुर तथा चण्डीगढ़ में राज्यपालों ने जो किया वह अक्षम्य ही नहीं, अशोभनीय भी था। संपूर्णानंद ने स्वतंत्र पार्टी की महारानी गायत्री देवी के बहुमत दर्शाने के बावजूद कांग्रेसी मोहनलाल सुखडिया को गुपचुप शपथ दिला दी। उधर चंण्डीगढ़ राजभवन में गनपत डी. तपासे ने जनता दल के चौधरी देवीलाल को वादा देकर भी सजातीय कांग्रेसी भजन लाल को हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया। मतलब राज्यपाल के कौल की कोई कीमत नहीं थी।

इन सब घटनाओं से अधिक दयनीय तो राज्यपालों की बर्खास्तगी रही, वह भी थोक में। सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार (मोरारजी देसाई वाली) ने कांग्रेस मुख्यमंत्रियों तथा इन्दिरा गांधी द्वारा नामित राज्यपालों को हटा दिया था। वापस सत्ता पर लौटते ही फरवरी 1980 में इन्दिरा गांधी ने भी ऐसा किया। इनमें तमिलनाडु के सर्वोदयी राज्यपाल प्रभुदास बालूभाई पटवारी थे।

गांधीवादी और मोरारजी देसाई के सहयोगी को सशरीर राजभवन से बाहर किया। पटवारीजी बड़ौदा डाइनामाइट केस में अभियुक्त नंबर चार पर थे। जार्ज फर्नाडिस प्रथम और द्वितीय पर मैं था आरोपियों की सूची में। राज्यपालों की दुर्दशा की पीड़ा से सर्वाधिक भुगतनेवाले पंडित विष्णुकांत शास्त्री थे। उन्हें 2 जुलाई 2004 को सोनिया—कांग्रेस सरकार ने रातो—रात बर्खास्त कर डाला था। इस ज्ञानी, धर्मनिष्ठ राज्यपाल से उस रात मैं लखनऊ राजभवन में मिलने गया था। राजनीतिक असहिष्णुता के शिकार शास्त्रीजी को दूसरे दिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव स्टेशन तक पहुंचाने गये। मैंने उस बर्खास्त राज्यपाल के चरणस्पर्श किये थे जो मैं केवल अपने पूज्य अध्यापकों का करता रहा हूं।

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कोश्यारी के साथ शिवसेना सरकार की बदसलूकी

लेकिन पत्रकार साथी भगत सिंह कोश्यारी के साथ शिवसेना सरकार की बदसलूकी दिल पर घाव छोड़ गई। फिर याद आया कि पारिवारिक संस्कार सद् व्यवहार हेतु आवश्यक होते हैं। अब शिवसेना उनको महाराष्ट्र से हटाने की मांग कर रही है। वरिष्ठ राजनायिक शरदचन्द्र गोविंदराव पवार मौन हैं।

अंतत: हमारे यूपी की अस्सी वर्षीया राज्यपाल आनंदीबेन मफतलाल पटेल सर्वाधिक मुफीद पसंद हैं। वे केवल एयर इंडिया और वाणिज्यीय जहाज का ही इस्तेमाल करतीं हैं। अपनी सुरक्षादल की संख्या कम कर दी। राजभवन में कर्मचारियों के साथ तुलनात्मक रुप से ज्यादा समय बिताती हैं। राजभवन परिसर ज्यादा हरा हो गया है। मनभावन भी। आनंदीबेन के नाम की भांति।

( ये लेखक के निजी विचार हैं)

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