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डिजिटल मीडिया के नियमन के लिए केंद्र सरकार खुद सकारात्मक पहल करे...
देश में उदारीकरण के दौर से प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया में विदेशी निवेश लगातार बढ़ता गया और इसने पत्रकारिता में पूर्व से स्थापित टीवी चैनलों और अखबारों के बीच प्रतिस्पर्द्धी माहौल में खुद को स्थापित और प्रज्ज्वलित किया।
लखनऊः देश और दुनिया में डिजिटल पत्रकारिता बड़ी तेजी से बढ़ रही है। अगर इसकी तेज चाल के साथ इसकी स्वीकार्यता और इसकी क्रेडिबलिटी बरकरार रहे तो मीडिया के किसी अन्य माध्यम से यह कई गुणा ज्यादा प्रभावशाली है। देश में उदारीकरण के दौर से प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया में विदेशी निवेश लगातार बढ़ता गया और इसने पत्रकारिता में पूर्व से स्थापित टीवी चैनलों और अखबारों के बीच प्रतिस्पर्द्धी माहौल में खुद को स्थापित और प्रज्ज्वलित किया। पत्रकारिता में नौकरी के अवसर बढ़े। साथ ही अखबारों औऱ चैनलों के बीच ख़बरों को लेकर स्वस्थ प्रतियोगिता शुरू हुई।
टीआरपी ने चैनलों को दर्शकों की इच्छा पर कर दिया निर्भर
इन सबके बीच टीआरपी ने चैनलों की परिधि को दर्शकों की इच्छा के अनुरूप बांधना शुरू किया। चैनलों पर क्या चलना है और क्या चलाना बेहतर होगा सब टीआरपी के हवाले हो गया औऱ कंटेंट उसी के अनुरूप तैयार होने लगे। अब एक दौर और आया जब चैनलों में न्यूज़ की जगह व्यूज़ को अहमियत दी जाने लगी। सूचनाओं की जगह समीक्षाओं पर टीवी चैनलों के वक्त खर्च होने लगे। टीवी डिबेट में कौन आए, किसको लोग देखना पसंद करेंगे ये तय होने लगा क्योंकि सबकुछ मार्केंटिंग, ब्रांड और टीआरपी के हवाले था। जिसके चैनल पर डिबेट में जितने बड़े ओहदे के लोग बैठते गए उनकी ब्रांडिंग उतनी मजबूत होती गयी लेकिन इस बीच समाज के अंदर वास्तविक मुद्दों पर से ध्यान हटने लगा।
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इसी बीच चैनलों के बीच एक नयी प्रतिस्पर्द्धा शुरू हुई और वो यह कि अमुक चैनल राष्ट्रवादी है या गैरराष्ट्रवादी। इतना कुछ बताने की जरूरत इसलिए थी क्योंकि एक निजी चैनल सुदर्शन टीवी पर सुप्रीम कोर्ट को एक टिप्पणी करनी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुदर्शन टीवी के “यूपीएससी जिहाद” शो के प्रसारण पर यह कहकर रोक लगा दी थी कि यह एक समुदाय विशेष का अपमान करने की कोशिश है।
इस मामले में कोर्ट ने कहा कि वह पांच सदस्यीय एक कमेटी गठित करने के पक्ष में हैं जो टीवी मीडिया के लिए कुछ निश्चित मानक तय कर सकें। कोर्ट ने प्रस्ताव दिया कि मीडिया की भूमिका पर विचार कर सुझाव देने के लिए गणमान्य नागरिकों की एक पांच सदस्यीय कमेटी बनाई जाए जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जज या हाईकोर्ट के कोई पूर्व चीफ जस्टिस करें।
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इस मुद्दे पर न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की ओर से भी हलफनामा देकर कोर्ट को बताया गया कि टीवी मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नियम और कानून पहले से मौजूद हैं। इसका मतलब साफ है कि दोषी चैनलों पर कार्रवाई को लेकर किसी तरह की संस्था या कमेटी बनाने की जरूरत नहीं है। इसी बीच केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर कहा है कि टीवी मीडिया से पहले डिजिटल मीडिया के लिए नियमन की आवश्यकता है।
सूचना औऱ प्रसारण मंत्रालय ने कहा
सूचना औऱ प्रसारण मंत्रालय ने कोर्ट से कहा है कि मुख्यधारा की मीडिया में प्रकाशन औऱ प्रसारण तो एक बार का कार्य होता है लेकिन डिजिटल मीडिया की पहुंच बड़ी संख्या में पाठकों औऱ दर्शकों तक है। इसमें व्हाट्सएप, फेसबुक औऱ ट्विटर के जरिये खबरों को बड़ी तेजी से वायरल करने की क्षमता है। केंद्र सरकार ने कहा है कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया अथवा प्रिंट मीडिया के संबंध में पर्याप्त रूपरेखा और न्यायिक घोषणाएं मौजूद हैं लेकिन डिजिटल मीडिया के लिए अभी तक किसी तरह का कोई नियमन तैयार नहीं किया जा सका है। अब सवाल है कि आखिर सरकार को खुद नियमन तैयार करने में क्या परेशानी है।
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इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने डिजिटल मीडिया को लेकर सरकार से नीति बनाने को लेकर जवाब भी मांगा था। देश में मोटे अनुमान के मुताबिक दस लाख से ज्यादा वेब पोर्टल्स रोजाना खबरों को प्रसारित औऱ प्रचारित करते हैं। इनमें से पांच सौ से ज्यादा पोर्टल्स वैसे मीडिया घरानों के हैं जिनके पूर्व से चैनल या अखबार खबरों के संचालन का कार्य करते आ रहे हैं। कई बड़े मीडिया घरानों द्वारा संचालित ऐसे वेब पोर्टल्स के हिट रोजाना बीस करोड़ तक हैं।
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एलेक्सा रैंकिंग औऱ गूगल एनॉलिटिक्स के जरिए ये एक दूसरे से आगे रहने की बात करते रहते हैं। इन सबके बीच कम संसाधनों के साथ शुरू किए गए सामान्य पत्रकारों के वेब पोर्टल्स औऱ पुराने बड़े पत्रकारों द्वारा संचालित वेब पोर्टल्स दोनों समान रूप से दर्शकों के बीच लोकप्रिय हैं।
वेब पत्रकारों के लिए काम करने वाली देश की सर्वथा पहली संस्था वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (डब्ल्यूजेएआई) पूर्व से ही आत्म नियमन और आत्मानुशासन के जरिए संस्था के सदस्यों के बीच इसकी जरूरत पर बल देता रहा है औऱ यही कारण है कि संस्था के किसी पोर्टल द्वारा कभी भी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं किया गया है।
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सूचना और प्रसारण मंत्रालय डिजिटल मीडिया के लिए चाहे तो डब्ल्यूजेएआई के संविधान औऱ उसके सेल्फ रेगुलेशन के ड्राफ्ट का अध्ययन कर वेब पत्रकारों के हित में इसे लागू कर सकता है। केंद्र सरकार फ्री प्रेस की प्रबल समर्थक रही है और पूरी दुनिया में प्रेस की आजादी को लेकर समय समय पर केंद्र सरकार को निशाने पर भी लिया जाता रहा है लेकिन मजबूत लोकतंत्र के लिए मीडिया का सशक्त औऱ मजबूत होना भी जरूरी है।
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आत्मनियमन या आत्मानुशासन की परिधि से बाहर निकलने वाले वैसे सभी लोग या संस्थान बराबर के दोषी हैं जो इसे टीवी या अखबार के माध्यम से प्रचारित अथवा प्रसारित करते हैं औऱ वे लोग भी जो इसका पोषण औऱ समर्थन करते हैं। वैचारिक विभिन्नता अभिव्यक्ति की आजादी को संपोषित करता है लेकिन गलत तथ्यों अथवा भ्रामक खबरों के जरिये आप तात्कालिक तौर पर टीआरपी तो हासिल कर लेंगे लेकिन एक बड़ी आबादी के बीच आपकी क्रेडिबिलिटी बरकरार नहीं रह पाएगी। आप मनगढंत खबरों के जरिए सत्तासीन नेताओं के आंख के तारे तो बन जाएंगे लेकिन सच्ची और निष्पक्ष पत्रकारिता के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।
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डिजिटल मीडिया के लिए सुप्रीम कोर्ट जल्द कोई निर्णय दे या कोई निर्देश जारी करे लेकिन उससे पहले केंद्र सरकार को इतने व्यापक औऱ सशक्त माध्यम के लिए खुद भी सकारात्मक कदम उठाने होंगे ताकि वास्तव में केवल पत्रकारिता करने वाले ऐसे वेब पत्रकारों को फर्जी करार देकर उनके मान सम्मान के साथ कोई मजाक ना कर सके।
आनंद कौशल, वरिष्ठ पत्रकार सह मीडिया स्ट्रैटजिस्ट
राष्ट्रीय अध्यक्ष, वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया
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