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सीमाओं से परे, बंधनों से मुक्त क्या कहती है अविनाशी अयोध्या आज

अयोध्या मोक्षदायनी पुरी है। अयोध्या के बारे में रामचरित मानस, विष्णुपुराण, श्रीमदभागवद्, महापुराण सभी में ऐसा ही ही लिखा है और यह भी कि यहां आने से ही पाप क्षीण होते हैं। वहीं जैन अगम कहते हैं कि यह शिखरजी के बाद दूसरा अविनाशी शहर है और काल इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

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Published on: 4 Aug 2020 7:55 AM GMT
सीमाओं से परे, बंधनों से मुक्त क्या कहती है अविनाशी अयोध्या आज
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अनुराग शुक्ला

जाकी रही भावना जैसी

प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

आज अगर आप भगवान राम की अयोध्या में प्रवेश करते हैं तो अयोध्या में आपको सबसे पहले यही बोर्ड दिखाई देता है। वर्तमान का यह कथन अतीत का बोध भी है और बोध का अतीत भी। अयोध्या के नाम में राम का नाम अंतरर्निहित है। राम यानी हिंदू धर्म का पर्याय। पर अयोध्या की पहचान विशाल है विस्तृत है और धर्मों के दायरे से कहीं बड़ी है। अयोध्या की पहचान को एक धर्म एक महापुरुष एक प्रणेता तक सीमित नहीं किया जा सकता है।

रामायण के मुताबिक यह नगर 9000 वर्ष पुराना है और इसे सृष्टि के पहले मानव मनु ने स्वर्ग में ही निर्मित कर लिया था। अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।

वेदों में लिखा है - अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था।

सप्तपुरियों में

स्कंदपुराण समेत कई पुराणों में अयोध्या की गणना मोक्षदायिनी सप्त पुरियों में की जाती है। हिंदू पुराणों के अनुसार अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया(हरिद्वार), काशी और अवन्तिका (उज्जैन) मोक्षदायनी सप्तपुरियां हैं। अथर्ववेद में अयोध्या को स्वयं ईश्वर की बनाई नगरी के तौर पर वर्णित किया है जिसकी समृद्धि स्वर्ग के समान अक्षय और अनंत है।

अयोध्या के पहले सम्राट के तौर पर इच्छवाकु को माना जाता जो वैवस्वत् मनु के ज्येष्ठ पुत्र थे। इस वंश के छठे सम्राट थे पृथु जिनके नाम पर पृथ्वी का नाम पड़ा और इसी वंश के 31 वें सम्राट हरिश्चंद्र थे जिन्हें दुनिया उनकी सच्चाई और कर्तव्य परायणता के लिए जानती है। इसी कुल के राजा सागर थे जिन्होंने बहुत से अश्वमेध यज्ञ किए इनके बारे में कहा जाता है कि उनके प्रपौत्र भागीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाएं इसी कुल में राजा रघु हुए जिन के नाम पर इस कुल का नाम बाद में रघुकुल पड़ गया। रघु के दशरथ और दशरथ के बेटे भगवान श्रीराम थे।

सरयू मोक्षदायिनी

अवध पुरी मम पुरी सुहावन उत्तर दिश सरजू अति पावन। अयोध्या के बारे में कही गयी यह लाइऩे यह भी बताती हैं कि अयोध्या में रहने वालों के लिये सरयू के पावन कोई नदी हो ही नहीं सकती। सरयू जिसमें भगवान राम ने जल समाधि ली वह तो गंगा से भी पवित्र है और सबके लिए सरयू मोक्षदायिनी है।

सरयू के बारे में अयोध्या में कहावत है- सरयू में नित नीर बहत है मूरख जाने पानी। सरयू ने ईश्वर को गोपुर जाने का रास्ता दिया था। वो तारणी नदी है। भारतीय सभ्यताओं का अध्ययन करने वाले इंडोलाजिस्ट हैंस टी बक्कर के मुताबिक अयोध्या में मिले की पहली शताब्दी में मिले गोपरातारा (गुप्तार) तीर्थ को लेकर यह मान्यता है कि यह वही स्थल है जहां पर भगवान राम ने जल समाधि ली थी और स्वर्ग चले गये थे। गरुण पुराण में अयोध्या को सप्तपुरियो में स्थान मिला है तो अर्थववेद में अयोध्या को खुद इश्वर की कृति बताया गया है।

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण यहीं शुरू की

कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकी ने अयोध्या में ही वाल्मीकी रामायण की शुरुआत की थी। रामायण के इस वर्णन के पहले कुछ अध्यायों में महर्षि वाल्मीकी ने इस शहर की समृद्धि, विकास, इसके राजाओं का महत्व, उनके सदचरित्र और उनकी महानता का वर्णन किया है।

साथ ही अयोध्यावासियों के चरित्र उनकी सदयशता और उनके समृद्धि का भी इन अध्यायों में वर्णन है। रामायण के सदियों बाद लिखे गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस में भी इस शहर की विशलता, लावण्य और समृद्धि का बखान है।

रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। कुछ और स्त्रोतों के मुताबिक यह शहर राजा अयुध के नाम पर बना है। यह सूर्यवंश की राजधानी था जिसमें विष्णु के सातवें श्री राम ने जन्म लिया था।

तमिल अलवरो में में इस शहर को विश्व के पहले चक्रवर्ती राजा जदभारत, बाहुबली ब्राह्मी, सुन्दरी, पादालिपत्सुरिस्वरजी और अचल भारत के जन्मस्थान के तौर पर जाना जाता है।

अयोध्या के नाम को लेकर एक कहावत लोकोक्ति अर्थ जैसी बन गई है इस में कहा जाता है कि अयोध्या दो शब्दों से बना है अ और योध्या (युद्ध) अयोध्या नहीं जिस शहर को युद्ध में जीता ना जा सके एक ऐसा शहर जिसको जितना नामुमकिन है।

वर्ष 636 ईसवी पूर्व में जब चीनी यात्री जुबान जांग आया तब भी ये शहर अयोध्या के नाम से ही जाना जाता था। कहा तो यह भी जाता है कि थाईलैंड का अयोत्था या अजुधिया और इंडोनेशिया का योग्याकार्ता शहर के नाम अयोध्या से ही पड़े हैं।

बौद्ध साहित्य में साकेत

बहुत से बौद्ध साहित्य में अयोध्या को साकेत के नाम से बुलाया गया है जिसे बाद में कुशाण राजा कनिष्क ने जीत लिया था और साथ ही इस शहर को अपने पूर्वी क्षेत्रों की राजधानी बना दिया था। इस शहर को कुछ ग्रंथों में फाक्सियान के नाम से जाना जाता है। यह ग्रंथ चीनी और जापानी भाषा में पांचवी शताब्दी की शुरुआत में लिखे गए।

ऐतिहासिक तौर पर अयोध्या साकेत शब्द भारत और भारत की सभ्यता में एक विकसित शहर के तौर पर ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ही जाना जाता था। यह समय बुद्ध का था और उस समय राजा पसेनदी थे जिनका संस्कृत नाम प्रसनजीत है। राजा की राजधानी श्रावस्ती होती थी ।

उनके कार्यकाल में अयोध्या की प्रसिद्धि और समृद्धि बरकरार रही और यही वजह थी कि 190 ईसापूर्व में इस शहर को बैक्ट्रियन ग्रीक योद्धाओं ने जीतने की कोशिश की । मौर्य और शुंग वंश खत्म हो जाने के बाद अयोध्या का राजा देव और दत्त वंश का होने लगा है।

गुप्त काल में महत्व चरम पर

अयोध्या में मिले एक शिलालेख के मुताबिक वहां के राजा का नाम धनदेव था जो खुद को पुष्यमित्र शंगु की पीढ़ी का छठा सम्राट बताते थे । गुप्तकाल में अयोध्या अपने राजनीतिक महत्व के चरम पर थी। चीनी यात्री फा-स्येन जब पांचवी सदी में भारत आए फास्येन अयोध्या का वर्णन करते हुए एक शहर का नाम शा- ची लिखा है।

स्कंद गुप्त, जिन्हें कुमार गुप्त भी कहा जाता है, उनके राज्य में राज्य की राजधानी को पाटलिपुत्र से अयोध्या स्थानांतरित कर दिया गया था और साकेत की जगह का पुराना नाम अयोध्या पुनर्स्थापित कर दिया गया। नरसिंह गुप्त के समय में पूरे राज्य पर हूणों का आक्रमण हुआ छठी शताब्दी में उत्तर भारत के राजनीतिक केंद्र के तौर पर अयोध्या की जगह कन्नौज ने ले ली।

सातवीं शताब्दी में अयोध्या आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के वर्णन में अयोध्या का विस्तार से वर्णन है। अयोध्या को फिर से पूरे देश में एक बार फिर तीर्थ के रुप में स्थापित करने का श्रेय गुरु रामानंद जी को जाता है। जिन्होंने वैष्णव मत की पुनर्स्थापना के लिए पंद्रहवी शताब्दी में काम किया।

जैन धर्म का प्रवर्तन अयोध्या में हुआ

अयोध्या हिंदू धर्म की सबसे पावन नगरी है पर इसका महत्व धर्म की सीमाओ से कई आगे निकल चुका है। अयोध्या हिंदुओं लिए मोक्षदायनी है तो जैन धर्मावलंबियों के लिए यह अनंत, अविनाशी और सनातन है।

एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बताया है । अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। उस समय इसे कौशलदेश कहा जाता था।

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बौद्ध के लिए यह पूजनीय है तो मुसलमानों के अकीदत का मरकज़। जैन धर्म के पांच तीर्थांकर यहां पर पैदा हुए यथा- पहले तीर्थांकर आदिनाथ या ऋषभनाथ, दूसरे अजिनाथ, चौथे अभिनंदनाथ ,पांचवे सुमतिनाथ और चौदहवें तीर्थांकर अनंतनाथ।

जैन आगम के मुताबिक और महावीर ने यहां पर काफी लंबा प्रवास भी किया था। जैन धर्म के प्रवर्तक और प्रथम तीर्थंकर कहे जाने वाले ऋषभदेव या आदिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ था।

तीर्थंकर शब्द तीर्थ से बना है और जैन धर्म के तीर्थांकरों को इस नाम से इसलिए बुलाया जाता है क्योंकि वह जैन धर्म के अनुयायियों को ना सिर्फ समुद्र पार तीर्थ करने बल्कि जीवन और मृत्यु के सफर से भी पार होकर मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग दिखाते हैं।

ऋषभ नाथ

जैन धर्म के सबसे बड़े ग्रंथ आदि पुराण में ऋषभ नाथ या आदिनाथ के जीवन और उसके पहले के 10 जन्मों की कहानी है। इसमें लिखा गया है कि ऋषभ नाथ का संबंध उनके प्रतीक चिन्ह बैल न्याय ग्रुप वृक्ष गोमुख लक्ष्य और चक्रेश्वरी यक्षी चक्रेश्वरी यक्षी से है।

ऋषभ नाथ ने जीवन के कई महत्वपूर्ण संस्कार दिए हैं इन संस्कारों को पंचकल्याणक माना जाता है और इस में गर्भ कल्याणक प्रथम संस्कार है हर मां के गर्भ में शिशु का आना आत्मा का शरीर से मिलन माना जाता है कहा जाता है रिषभदेव की मां महारानी मनुदेवी ने आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष कृष्ण पक्ष में 16 सपने देखे थे।

रानी मनुदेवी को उनके पति महाराजा नबी ने उन्हें इन सपनों का अर्थ बताया और इसे तीर्थंकर के जन्म से जोड़कर देखा। ऋषभ देव का जन्म कृष्ण नवमी को हुआ था और इसे दूसरा कल्याणक यानि जन्म कल्याणक महा जाता है जैन ग्रंथों के मुताबिक ऋषभ नाथ का जब जन्म हुआ था तो वह प्रसन्नता का काल था।

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प्रसन्नता के इस युग में किसी को कोई काम करने की आवश्यकता नहीं थी पर जैसे-जैसे समय बीता वरदानी वृक्ष चला गया और लोग राजा के पास मदद के लिए पहुंचे।

कहा जाता है कि ऋषभ नाथ ने अयोध्या में ही लोगों को 6 काम सिखाए थे पहला असि यानी हथियार चलाना, दूसरा मसि यानी लिखना, तीसरा कृषि यानी किसानी, चौथा विद्या यानी ज्ञान और पांचवां वाणिज्य यानि व्यापार और छठा शिल्प।

जैन धर्म के नवें तीर्थांकर पुष्पदंत या सुविधिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ। जैन मत के अनुसार वह अरिहंत हो गए और वह सभी कर्मों से मुक्त हो गये थे।

बौद्ध धर्म और अयोध्या

अयोध्या बौद्ध धर्म का भी बहुत बड़ा केंद्र रहा है। मौर्य काल और गुप्त वंश के शासन के दौरान यहां पर बौद्ध मंदिर, मठ, स्मारक बनाए गये। यह माना जाता हैकि बुद्ध स्वयं यहां एक से ज्यादा बार आए हालांकि इसका को लिखित प्रमाण अब उपलब्ध नहीं है। चीनी बौद्ध भिक्षु फा ह्यांग ने यहां के कई बौद्ध मठों के बारे में लिखा है।

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गुप्त काल मे तो अयोध्या पूरे राज्य के व्यापार का सबसे उन्नत केंद्र बन गई थी। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि अयोध्या में स्थित कसौटी स्तंभ सारनाथ और वाराणसी के बौद्ध विहारों से मेल खाते हैं। इसके लिए वह अंग्रेज पुरातत्वविद् पीटर कारनेज की रिपोर्ट का भी हवाला देते हैं।

ह्येन सांग ने अयोध्या को ओ यू टू कहा

करीब 1400 साल पहले चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने पूरे उत्तर भारत का भ्रमण किया था। वे उन जगहों पर गए जहां पर गौतम बुद्ध गए थे। उनके लेख में वर्णन मिलता है एक दिन वह लिखते हैं कि हम पहुंच गए हैं उस जगह जिसे ओ-यू-टू कहा जाता है। ओ-यू-टू को अयोध्या का अपभ्रंश माना जाता है।

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वो लिखते हैं, ‘हम आ गये हैं ओ-यू-टू के देश में यहां पर इफरात में अनाजा है। जमीन भरपूर उपजाओ है जिसमें आनाज के साथ फल और फूल भी उगते है। यहां का तापमान मध्यम है और यहां के लोग उच्च विचार और विनम्र व्यवहार के हैं। वह अपने कर्तव्यों के बारे में पूरी तरह जानते हैं और उन्हें ज्ञान से असीमित प्रेम है। ’

हैरत की बात यह है कि अयोध्या के छोटे बड़े विहारो में 3000 से ज्यादा हीनयान और महायान मतावलंबी के रहने का विवरण भी है और यहां पर दोनों मतावलंबी बहुत ही सौहार्द से रहते हैं। जबकि बाकी दुनिया में दोनो के बीच गंभीर मतभेद हैं। अयोध्या के सौहार्द से सीख लेने का विवरण भी कई पुस्तको में मिलता है।

लोमश, संभूक, स्वामी नारायणन व तुलसी

अम्बेडकरवादी लेखक बलवंत सिंह चारवाक की पुस्तक में उल्लेख है कि यहां पर शूद्र संत लोमश और ऋषिपुत्र संभूक ने भी अयोध्या को ही अपनी तपस्थली बनाया था। कहा जाता हैकि स्वामी नारायण पंथ के प्रणेता भगवान स्वामी नारायण भी अपने बचपन में अयोध्या में रहे और उन्हेंने अपनी सात वर्ष की भारत यात्रा की शुरुआत अयोध्या में बतौर नीलकंठ के की थी। तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस की शुरुआत विक्रमी संवत 1574 में अयोध्या में ही की थी।

मुस्लिम मतावलंबियों की भी पूजनीय अयोध्या

दिल्ली सल्तनत के दौरान वर्ष 1226 में अयोध्या अवध की राजधानी बनी। माना जाता है कि अवध नाम भी अयोध्या से ही बना है। अवध दो भाग से बना हुआ है अ+वध यानी वो शहर जहां किसी का वध ना किया जाता हो। मुगल काल में नवाबों ने अयोध्या और इससे जुडे फैजाबाद पर खूब प्यार लुटाया।

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अवध के तीसरे नवाब तक राजधानी के दौरान यह देश के सबसे प्रमुख इदारों में से एक रहा है। अयोध्या पर मुस्लिम वर्ग के शिया राजाओं का शासन ज्यादा था जब तक कि वह सीधे मुगल शासन में नहीं आ गया। अयोध्या में डेढ़ लाख मुस्लिम रहते हैं और 103 मस्जिदें हैं।

हजरत शीश की दरगाह

इसमें से 35 में तो आज भी इबादत होती है। इसमें हजरत शीश की दरगाह सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। हजरत शीश मुस्लिम पैगंबरो में शुमार हैं और उनकी 12 फीट लंबी मजार आज भी अयोध्या है जो मुस्लिम में अकीदे का सबब है। इसके अलावा मुस्लिम अपने पैंगम्बर नूह का कुछ संबंध मनु से मानते हैं जिन्होंने अयोध्या बनाई थी। सिख मतावलंबी मानते हैं कि प्रह्लाद घाट के पास गुरु नानक भी आकर ठहरे थे।

अविनाशी शहर

अयोध्या मोक्षदायनी पुरी है। अयोध्या के बारे में रामचरित मानस, विष्णुपुराण, श्रीमदभागवद्, महापुराण सभी में ऐसा ही ही लिखा है और यह भी कि यहां आने से ही पाप क्षीण होते हैं। वहीं जैन अगम कहते हैं कि यह शिखरजी के बाद दूसरा अविनाशी शहर है और काल इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यानी हर धर्म हर कालखंड में अयोध्या अविनाशी, अखंड, अविजित, मोक्षदायिनी , समृद्धिपूर्ण रही है। तभी तो कहा जाता है कि

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