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गेहूं-धान का है देश में सरप्लस प्रोडक्शन, मुट्ठी भर लोग उठा रहे फायदा

जब भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ तब गेहूं की फसल का उत्पादन और उत्पादकता काफी कम थी। वर्ष 1950-51 में गेहूं का उत्पादन केवल 6.46 मिलियन टन और उत्पादकता मात्र 663 किलोग्राम प्रतिहेक्टेयर थी, जो कि भारतीय आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।

SK Gautam
Published on: 12 Feb 2021 2:25 PM IST
गेहूं-धान का है देश में सरप्लस प्रोडक्शन, मुट्ठी भर लोग उठा रहे फायदा
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गेहूं-धान का है देश में सरप्लस प्रोडक्शन, मुट्ठी भर लोग उठा रहे फायदा

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योगेश मिश्र ( Yogesh Mishra)

लखनऊ। आरक्षण व एमएसपी दोनों समान हैं। दोनों में एक नहीं कई समानताएँ हैं। दोनों कुछ समय के लिए लागू किये गये थे। दोनों को हटाने, कम करने या ख़त्म करने के सवाल पर आंदोलन भड़क उठता है। दोनों विशेष प्रावधान के हक़दार हैं। दोनों के ख़िलाफ़ जो सरकार में रहता है वह नहीं बोलता। लेकिन जब वही सत्ता में पहुँच जाता है तो दोनों के रेशनलाइजेशन की ज़रूरत उसे महसूस होने लगती है। दोनों का लाभ केवल मुट्ठी भर लोग ही उठा रहे हैं। पर जब जब मुट्ठीभर लोगों के लाभ उठाने को लेकर सवाल उठते या उठाये जाते हैं। तब तब समूचे कुनबे में तपिश महसूस की जा सकती है।

भारत में खेती किसानी ने तय किया लम्बा सफ़र

भारत में खेती किसानी ने 1947 से अब तक बहुत लंबा सफ़र तय किया है। सन 47 में देश में खेती के मुश्किल से 10 फीसदी क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा थी। नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटेशियम (एनपीके) उर्वरकों का औसत इस्तेमाल एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था। गेहूं और धान की औसत पैदावार आठ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास थी। खनिज उर्वरकों का उपयोग ज्यादातर रोपण फसलों में किया जाता था। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं (1950-60) में सिंचित क्षेत्र के विस्तार व उर्वरकों का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया। उस समय धान की हमारी किस्मों की पैदावार एक से दो टन प्रति हेक्टेयर थी।

इंदिरा गांधी ने गेहूं क्रांति के आगाज का किया था ऐलान

जुलाई 1964 में जब सी. सुब्रह्मण्यम देश के खाद्य एवं कृषि मंत्री बने तो उन्होंने सिंचाई और खनिज उर्वरकों के साथ-साथ ज्यादा पैदावार वाली किस्मों के विस्तार को अपना भरपूर समर्थन दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मेक्सिको से गेहूं के बीजों के आयात की मंजूरी देते हुए इसे ‘समय की मांग’ करार दिया था। इन सभी प्रयासों के चलते बौने गेहूं का क्षेत्र 1964 में महज 4 हेक्टेयर से बढ़कर 1970 में 40 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया। सन 1968 में हमारे किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया, जबकि इससे पहले सर्वाधिक 120 लाख टन उत्पादन 1964 मेंहुआ था। पैदावार और उत्पादन में आए इस उछाल को देखते हुए जुलाई, 1968 में इंदिरा गांधी ने गेहूं क्रांति के आगाज का ऐलान कर दिया।

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हरित क्रांति

गेहूं और धान की पैदावार में बढ़ोतरी के साथ-साथ हमारे वैज्ञानिकों ने अमेरिका के रॉकफेलर फाउंडेशन के साथ मिलकर मक्का, ज्वार और बाजरे की संकर किस्में तैयार कीं, जिन्होंने इन फसलों की पैदावार और उत्पादन में बढ़ोतरी के नए रास्ते खोल दिए। इसी से प्रेरित होकर भारत सरकार ने 1967 में गेहूं, धान, मक्का, बाजरा और ज्वार में उच्च उपज वाली किस्मों का कार्यक्रम शुरू किया। स्वतंत्र भारत में पहली बार किसानों में पैदावार को लेकर जागरूकता आई। परिणाम यह हुआ कि किसानों ने ऐसा क्लब बनाया, जिसका सदस्य बनने के लिए खाद्यान्न का न्यूनतम निर्धारित उत्पादन करना जरूरीहोता था। अक्टूबर, 1968 में अमेरिका के विलियम गुआड ने खाद्य फसलों की पैदावार में हमारी इसक्रांतिकारी प्रगति को हरित क्रांति का नाम दिया।

आज़ादी के समय था संकट

जब भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ तब गेहूं की फसल का उत्पादन और उत्पादकता काफी कम थी। वर्ष1950-51 में गेहूं का उत्पादन केवल 6.46 मिलियन टन और उत्पादकता मात्र 663 किलोग्राम प्रतिहेक्टेयर थी, जो कि भारतीय आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। हमारा देश पीएल-480 केतहत संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे कई देशों से लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा मेंगेहूं का आयात किया करता था। देश में हरित क्रांति के बाद गेहूं उत्पादन में देश अग्रणी देश बनगया।

अब सरप्लस अनाज

गेहूँ और चावल के मामले में तो अब फू़ड सरप्लस की स्थिति है। साल 1950 में खाद्यान्न पैदावार पाँच करोड़ टन थी। आज 50 करोड़ टन है। अमेरिका के बाद भारत में सबसे ज्यादा खेती की ज़मीन है। लेकिन फ़सल उत्पादन अमेरिका से चार गुना कम है। चीन भारत से कम ज़मीन पर खेती करता है। लेकिन इससे अधिक फसल उपजाता है। चीन के पास हमसे कम ज़मीन है। उसकी ग्रॉस लैंडहोल्डिंग साइज़ भी भारत से छोटी है। हमारे पास 1.08 हेक्टेयर की लैंड होल्डिंग साइज़ है, जबकि उसके पास महज .67 हेक्टेयर की लैंड होल्डिंग साइज़ है। लेकिन उनका कृषि उत्पादन हमसे तीन गुना ज़्यादा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ की खेती में विविधता है।

बहुत ज्यादा धान और गेहूँ उगाने से प्रोडक्शन सरप्लस (ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन) हो जाता है। इससे भंडारण की समस्या आती है। नतीजन, 30 फ़ीसदी अनाज सड़ जाता है। फ़ूड कारपोरेशन के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं बचती। खुले में खराब होते गेहूं-धान की तस्वीरें हर सीजन में सामने आती हैं।

भारत का खाद्यान्न उत्पादन प्रत्येक वर्ष बढ़ रहा है। देश गेहूं, चावल, दालों, गन्ने और कपास जैसी फसलों के मुख्य उत्पादकों में से एक है। यह दुग्ध उत्पादन में पहले और फलों एवं सब्जियों केउत्पादन में दूसरे स्थान पर है। 2013 में भारत ने दाल उत्पादन में 25 फीसदी का योगदान दिया । जो कि किसी एक देश के लिहाज से सबसे अधिक है। इसके अतिरिक्त धान उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 22 फीसदी और गेहूं उत्पादन में 13 फीसदी थी। पिछले अनेक वर्षों से दूसरे सबसे बड़े कपास निर्यातक होने के साथ-साथ कुल कपास उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 25 फीसदी है।

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गेहूं-धान के प्रति जरूरत से ज्यादा लगाव

भारत में हमेशा से चावल और गेहूं उगाने के प्रति ऐतिहासिक भूख रही है। साठ के दशक में आई हरित क्रांति से ये दो फसलें टॉप पर पहुँच गयीं। इनका स्टेटस स्टार जैसा हो गया। उसके बाद से सरकार द्वारा दी जा रहीं सब्सिडी ने किसानों के लिए इन उपजों के प्रति प्रोत्साहन का काम किया है। नतीजतन, भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक है। अब दशकों बाद देश को फसल उगाने में पानी के अत्यधिक इस्तेमाल और उपजों में पोषक तत्वों की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के चलते इन समस्याओं के और खराब होते जाने का अंदेशा है।

अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च में फसल के लिए पानी की आवश्यकता और अनाज में आयरन, जिंक, प्रोटीन और कैलोरी की मात्रा का अध्ययन किया गया। स्टडी के अनुसार धान की खेती में जितना पानी लगता है। उसके अनुपात में चावल हमें बेहद कम पोषक तत्व उपलब्ध कराता है। अगर धान की जगह दूसरे अनाज उगाये जाएँ तो सिंचाई की आवश्यकता 33 फीसदी कमहो जायेगी। इसके अलावा उपलब्ध पोषक तत्वों की क्वालिटी और क्वांटिटी दोनों बहुत बढ़ जायेगी। मिसाल के तौर पर आयरन की मात्रा 27 फीसदी और जिंक की उपलब्धता 13 फीसदी बढ़ जायेगी।

जीडीपी में कृषि

भारत की कुल जीडीपी में कृषि और इसके सहायक सेक्टरों की 17 फ़ीसदी भागीदारी है। यह 2018-19 का आँकड़ा है। भारत की लगभग 60 फीसदी आबादी खेती पर ही निर्भर है। वहीं, सर्विस सेक्टर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 54.3 फ़ीसदी है, जबकि औद्योगिक सेक्टर की हिस्सेदारी 29.6 फ़ीसदी है। इसका मतलब यह है कि सर्विस और औद्योगिक सेक्टर में कृषि सेक्टर से कम लोग काम करते हैं । लेकिन जीडीपी में उनका योगदान कहीं ज़्यादा है।

पिछले कुछ दशकों के दौरान, अर्थव्यवस्था के विकास में मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों का योगदानतेजी से बढ़ा है, जबकि कृषि क्षेत्र के योगदान में गिरावट हुई है। 1950 के दशक में जीडीपी में कृषिक्षेत्र का योगदान जहां 50 फीसदी था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4 फीसदी रह गया।

एमएसपी में इजाफा

बीते 5 साल में धान की फसलों पर मिलने वाले एमएसपी में 2.4 गुना इजाफा हुआ है। साल 2009-10 से लेकर 2013-14 में किसानों को 2.06 लाख करोड़ रुपये का एमएसपी पेमेंट हुआ है। जबकि, बीते पांच साल में यह बढ़कर 4.95 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचा है।

2009-10 से लेकर 2013-14 की तुलना में देखें तो बीते 5 साल के दौरान गेहूं की एमएसपी में 1.77 गुना का इजाफा हुआ है। गेहूं की फसलों के लिए पहले जहां 1.68 लाख करोड़ रुपये का पेमेंट हुआथा, वहां बीते 5 साल में यह पेमेंट 2.97 लाख करोड़ रुपये का हुआ है।

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रिकार्ड खरीदारी

रबी 2020 के लिए गेहूं की भी रिकॉर्ड सरकारी खरीद देखने को मिली है। इस साल सरकारी एजेंसियों ने 382 लाख मिट्रिक टन गेहूं की खरीद की। न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत देशभर केकुल 42 लाख किसानों को 73,500 करोड़ रुपये का पेमेंट किया गया। मध्य प्रदेश से सबसे ज्यादा129 लाख मिट्रिक टन गेहूं की खरीद हुई। मध्य प्रदेश के किसानों के बाद पंजाब के किसानों से भी 127 लाख मिट्रिक टन गेहूं की खरीद हुई।

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गेहूं उत्पादन

देश में गेहूं का उत्पादन साल 1964-65 में जहां सिर्फ 12.26 मिलियन टन था, जो बढ़कर साल 2019-20 में107.18 मिलियन टन के एक ऐतिहासिक उत्पादन शिखर पर पहुंच गया है। एक अनुमान के अनुसारवर्ष 2025 तक भारत की आबादी लगभग 1.4 बिलियन होगी। इसके लिए व 2025 तक गेहूं कीअनुमानित मांग लगभग 117 मिलियन टन होगी। भारत में उत्तरी गंगा-सिंधु के मैदानी क्षेत्र देश के सबसे उपजाऊ और गेहूं के सर्वाधिक उत्पादन वालेक्षेत्र हैं।

इस क्षेत्र में गेहूं के मुख्य उत्पादक राज्य जैसे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान (कोटा वउदयपुर सम्भाग को छोड़कर) पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू व कठुआ जिले व हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला व पोंटा घाटी शामिल हैं। इस क्षेत्र में लगभग 12.33 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूं की खेती की जाती है और लगभग 57.83 मिलियन टन गेहूं काउत्पादन होता है। इस क्षेत्र में गेहूं की औसत उत्पादकता लगभग 44.50 कुंतल/हैक्टेयर है।

भारत ने 31 मार्च 2020 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष 2018-19 में 226,225 टन गेहूं का निर्यात किया।यह 2012-13 में अपने रिकॉर्ड 6.5 मिलियन टन पर था। बीते 1 नवंबर को सरकार का गेहूं का स्टॉक रिकॉर्ड 37.4 मिलियन टन था जो पिछले साल से 13 फीसदी ज्यादा है।

आयात की स्थिति

भारत में आयात होने वाली मुख्य वस्तुओं में दालें, खाद्य तेल, ताजा फल और काजू हैं। भारत द्वाराजिन प्रमुख वस्तुओं का निर्यात किया जाता है, उनमें चावल, मसाले, कपास, मांस और मांस से बनेखाद्य पदार्थ, चीनी इत्यादि शामिल हैं। पिछले कुछ दशकों में कुल आयात में कृषि आयात कीहिस्सेदारी 1990-91 में 2.8 फीसदी से बढ़कर 2014-15 में 4.2 फीसदी हो गई, जबकि कृषि निर्यात की हिस्सेदारी 18.5 फीसदी से घटकर 12.7 फीसदी हो गई।

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खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर होने की कहानी

भारत के खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर होने की कहानी साल 1964 से शुरू होती है। 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) केनेतृत्व में खाद्य-अनाज मूल्य समिति का गठन किया था। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का कहना था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि नुकसान ना हो। इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट 24 सितंबर को सरकार को सौंपी और अंतिम मुहर दिसंबर महीने में लगी।

कितने अनाजों पर लागू हुई : 1966 में पहली बार गेंहू और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किए गए। एमएसपी तय करने के लिए कृषि मूल्य आयोग का गठन किया गया, जिसका नाम बदल कर कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) कर दिया गया। 1966 में शुरू हुई यह परंपरा आज तक चली आ रही है। आज सीएसीपी के सुझाव पर हर साल 23 फसलों की एमएसपी तय की जाती है।

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कृषि क्षेत्र में कुल सकल पूंजी निर्माण तेज गति से हुआ

कृषि के लिए उपलब्ध कराया गया संस्थागत वित्त 1968 और 1973 के बीच दोगुना हो गया। उसके साथ-साथ सार्वजनिक निवेश, संस्थागत ऋण, लाभकारी मूल्य और कम कीमत पर नई तकनीक की उपलब्धता भी प्राप्त कराई गई। इससे किसानों द्वारा निजी निवेश की लाभप्रदता में वृद्धि हुई। इसके परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र में कुल सकल पूंजी निर्माण तेज गति से हुआ।

इस नई रणनीति के परिणाम 1967-68 और 1970-71 के बीच के समय की एक छोटी अवधि के भीतर देखे गए थे जब खाद्यान्न उत्पादन में सैंतीस प्रतिशत की वृद्धि हुई। उसके बाद खाद्य वस्तुओं का शुद्ध आयात 1966 में10.3 मिलियन टन से घटकर 1970 में 3.6 मिलियन रह गया। दरअसल, इसी अवधि में भोजन की उपलब्धता 73.5 मिलियन टन से बढ़कर 99.5 मिलियन हुई।

अस्सी के दशक तक, 30 लाख टन से अधिक के खाद्य भंडार के साथ, न केवल भारत आत्मनिर्भर था, बल्कि अपने ऋण के भुगतान के लिए खाद्य निर्यात करने लगा या खाद्य अल्पता वाले देशों को ऋणभी देने लगा। 1951-1952 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था, जो क्रमशः बढ़कर 2008-2009 में बढ़कर 23.38 करोड़ टन हो गया। इसी तरह प्रति हेक्टेअर उत्पादकता में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। वर्ष 1950-1951 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 2008-2009 में 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया।

ऐसे में देश ने एमएसपी वाली २३ फसलों में से जिन भी फसलों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करली है। उनपर एमएसपी बंद कर देना चाहिए। दूसरी अन्य ज़रूरतमंद फसलों पर इसे लागू करना चाहिए। पर किसान यह बात सुनने को तैयार नहीं हैं। तभी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग को लेकर शुरू हुआ किसान आंदोलन न केवल हिंसक हो उठा बल्कि पंजाब व हरियाणा के किसानों केआंदोलन को देशभर से हवा मिलने लगी है।

2019-20 के दौरान मुख्‍य फसलों के अनुमानित उत्‍पादन

खाद्यान्‍न - 295.67 मिलियन टन (रिकार्ड)

चावल - 117.94 मिलियन टन (रिकार्ड)

गेहूँ - 107.18 मिलियन टन (रिकार्ड)

पोषक / मोटे अनाज - 47.54 मिलियन टन (रिकार्ड)

मक्‍का - 28.98 मिलियन टन (रिकार्ड)

दलहन - 23.01 मिलियन टन

तूर - 3.75 मिलियन टन

चना - 10.90 मिलियन टन

तिलहन - 33.50 मिलियन टन (रिकार्ड)

सोयाबीन - 12.24 मिलियन टन

रेपसीड एवं सरसों - 8.70 मिलियन टन

मूंगफली - 9.35 मिलियन टन

कपास - 36.05 मिलियन गांठ (१७० किलोग्राम प्रति गांठे) (रिकार्ड)

पटसन एवं मेस्‍टा - 9.92 मिलियन गांठे (१८० किलोग्राम प्रति गांठे)

गन्‍ना - 358.14 मिलियन टन

2019-20 के लिए तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, देश में कुल खाद्यान्‍न उत्‍पादन रिकॉर्ड 295.67 मिलियन टन अनुमानित है जो 2018-19 के दौरान प्राप्‍त 285.21 मिलियन टन उत्‍पादन की तुलना में10.46 मिलियन टन अधिक है। तथापि, 2019-20 के दौरान उत्‍पादन विगत पांच वर्षों (2014-15 से2018-19) के औसत खाद्यान्‍न उत्‍पादन की तुलना में 25.89 मिलियन टन अधिक है।

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82 फीसदी लघु और सीमान्त किसान

भारत के 60 करोड़ किसानों में 82 फीसदी लघु और सीमान्त किसान हैं। जो देश के कुल अनाज प्रोडक्शन में 40 फीसदी का योगदान करते हैं। यही नहीं, फल, सब्जी, तिलहन और अन्य फसलों में छोटे किसानों की हिस्सेदारी 50 फीसदी है।

आकड़ों के अनुसार, देश में किसानों की औसत मासिक आय 6426 रुपये है। जिसमें खेती से प्राप्त होनेवाली आय केवल 3081 रुपये प्रतिमाह है। यह 17 राज्यों में केवल 1700 रुपये मात्र है। हर किसान पर औसतन 47000 रुपयों का कर्ज है। लगभग 90 प्रतिशत किसान और खेत मजदूर गरीबी का जीवन जी रहे हैं। जो किसान केवल खेती पर निर्भर हैं उनके लिये दो वक्त की रोटी पाना भी संभव नहीं है। खेती के काम हो, बिमारी हो, बच्चों की शादी हो या कोई अन्य प्रासंगिक कार्य किसान को हर बार कर्ज लेने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता।

- अगस्त 2018 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10.07 करोड़ किसानों में से 52.5 प्रतिशत किसान कर्जे में दबे हुए हैं।

- वर्ष 2010-11 की कृषि जनगणना के अनुसार भारत में किसानों की कुल जनसंख्या में 67 फीसदी सीमान्त किसान परिवार है जिनके पास एक हेक्टेयर से कम कृषि योग्य भूमि है।

किसानों को केंद्र सरकार की सब्सिडी अनुमान (15वां वित्त आयोग)

- कुल 1, 20, 500 करोड़ रुपये। (2018)

इसमें 70 हजार करोड़ रुपये फर्टीलाइजर पर।

क्रेडिट सब्सिडी 20 हजार करोड़ रुपए।

फसल बीमा सब्सिडी 6500 करोड़ रुपये।

समर्थन मूल्य सब्सिडी 24 हजार करोड़ रुपये।

राज्य सरकारों की सब्सिडी का अनुमान

- कुल 1,15,500 करोड़ रुपये। इसमें बिजली सब्सिडी 90 हजार करोड़ रुपए। सिंचाई सब्सिडी 17500 करोड़ रुपये। फसल बीमा सब्सिडी 6500 करोड़ रुपए।

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अन्य देशों का हाल

अमेरिका में प्रति वर्ष प्रत्येक किसान को औसतन 7253 डॉलर, यूरोपियन यूनियन में हर किसान को 1068 डॉलर और नॉर्वे में 22509 डॉलर की सब्सिडी मिलती है। इसके मुकाबले भारत के किसान को 49 डॉलर की सब्सिडी मिलती है।

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