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कांग्रेस का 'नागपुर' है गांधी-नेहरू परिवार, बहुत गहरी है परिवार मोह की जड़ें
कांग्रेस कार्य समिति की सोमवार को बैठक शुरू हुई तो जैसा कि पूर्वानुमान था , बैठक की शुरुआत थी हंगामेदार रही। यह अलग बात है कि इस बार बैठक में राहुल गांधी आक्रामक दिखे।
लखनऊ। कांग्रेस नेता राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा ने सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी भले ही गांधी नेहरू परिवार से अलग हटकर किसी अन्य कांग्रेसी नेता को बढ़ाने की पैरवी की हो लेकिन कार्यसमिति बैठक से पहले जिस तरह कार्यकर्ताओं ने सड़क पर आकर प्रदर्शन किया और विभिन्न राज्यों से बाकायदा प्रस्ताव पारित कर राहुल गांधी को कमान सौंपने की मंशा जताई गई है उसने यह पूरी तरह साफ कर दिया कि कांग्रेस का कार्यकर्ता गांधी नेहरू परिवार से दूर नहीं जा सकता । कांग्रेस में गांधी- नेहरू परिवार की हैसियत वही बन चुकी है जो भारतीय जनता पार्टी के लिए नागपुर की है।
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गांधी नेहरू परिवार का उत्तराधिकारी
कांग्रेस कार्य समिति की सोमवार को बैठक शुरू हुई तो जैसा कि पूर्वानुमान था , बैठक की शुरुआत थी हंगामेदार रही। यह अलग बात है कि इस बार बैठक में राहुल गांधी आक्रामक दिखे। उन्होंने पार्टी के उन वरिष्ठ नेताओं को आड़े हाथ लिया जिन्होंने नेतृत्व परिवर्तन और पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग वाला पत्र लिखा है।
राहुल गांधी के आक्रामक तेवर के पीछे कार्यकर्ताओं के समर्थन की वह मजबूत दीवार है जो पिछले 24 घंटे के दौरान और बड़ी होती गई है। राहुल गांधी को मिलने वाले बड़े जन समर्थन की वजह उनका काम करने का तरीका अथवा नेतृत्व कौशल है इस पर तो बहस संभव है लेकिन उनकी सबसे बड़ी और निर्विवाद ताकत उनका गांधी नेहरू परिवार का उत्तराधिकारी होना है।
कांग्रेस में गांधी नेहरू परिवार की अहमियत को इस तरह समझा जा सकता है कि जैसे भारतीय जनता पार्टी का परोक्ष और प्रभावी शक्ति केंद्र नागपुर में है। भाजपा का नेतृत्व भले ही किसी के पास रहे लेकिन पूरे देश में भाजपा कार्यकर्ताओं को एक सूत्र में बांध कर रखने वाला प्राण मंत्र नागपुर में है।
राजनीतिक पहचान अथवा जनता को जोड़े रखने की कूवत
समाजवादी पार्टी में यही हैसियत सैफई परिवार और बहुजन समाज पार्टी में कांशी राम व मायावती की है। गांधी नेहरू परिवार थी वह ग्लू है जो पूरे देश के कांग्रेश कार्यकर्ताओं को एक साथ डटे रहने की ताकत देता है। गांधी परिवार से हटकर कांग्रेस में एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसकी पूरे भारत में राजनीतिक पहचान अथवा जनता को जोड़े रखने की कूवत हो।
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कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार
नेशनल कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा शरद पवार और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी इसके बड़े उदाहरण हैं उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अलग होकर संगठन तैयार किया। राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व क्षमता का अभाव होने की वजह से नारायण दत्त तिवारी को वापस कांग्रेस का दामन थामना पड़ा तो शरद पवार जो कांग्रेस में कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जाते थे वह भी आज तक महाराष्ट्र की सीमा से बाहर निकल कर राजनीति करने का साहस नहीं कर सके।
कांग्रेस में यूं तो आज भी अशोक गहलोत, कैप्टन अमरिंदर सिंह, कमलनाथ, सिद्धारमैया भूपेंद्र सिंह बघेल जैसे अनेक बड़े नेता मौजूद हैं लेकिन यह सभी अपने अपने राज्यों के क्षत्रप हैं। हाल यह है कि अगर इन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए तो दूसरे राज्यों में कब कोई बड़ा नेता कांग्रेस से बगावत कर अपनी अलग पार्टी बना देगा इसका अंदाजा लगाना भी आसान नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार रतन मणिलाल का कहना है कि कांग्रेस ने सोनिया गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व में जमीन से उठकर जीतना सीखा है। सीताराम केसरी के तौर पर कांग्रेस ने जो प्रयोग किया था वह पूरी तरह फैल रहा।
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गांधी नेहरू परिवार से अलग हटकर डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का एकमात्र प्रयोग सफल हुआ है लेकिन ऐसा बार-बार नहीं होता। यही वजह है कि कांग्रेस का आम कार्यकर्ता भी राहुल गांधी को हटाकर किसी अन्य को पार्टी की कमान सौंपने के लिए तैयार नहीं है।
कांग्रेस छोड़कर जाने वाले बड़े नेता भी अपने राज्यों तक ही सीमित रह गए हैं ऐसे में गांधी -नेहरू परिवार को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है जो उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को एकजुट रख सके।
सोनिया गांधी का भी राहुल की तरह हुआ था विरोध
कांग्रेस के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी का समर्थन करने वाले कांग्रेस कार्यकर्ता यह मानते हैं कि गांधी -नेहरू परिवार ही कांग्रेस की नैया पार लगाने में सक्षम है। इंदिरा गांधी मृत्यु के पश्चात राजीव गांधी ने पार्टी की बागडोर संभाली लेकिन उन्हें भी विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे कांग्रेस के नेताओं ने ही नेता मानने से इंकार कर दिया ।
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बोफोर्स घोटाला बता कर राजीव गांधी को सत्ता से बाहर करने का अभियान चलाया इसी तरह राजीव गांधी की मृत्यु के पश्चात सोनिया गांधी को भी नेता मानने से इनकार किया गया और उनके विदेशी मूल का सवाल कांग्रेस के अंदर से ही उठा। इसके बावजूद राजीव गांधी और सोनिया गांधी ने कांग्रेस के अंदर बैठे महत्वाकांक्षी नेताओं से मुक्ति पाकर अपने नेतृत्व कौशल से कांग्रेस को एकजुट किया।
इतिहास अपने को दोहरा रहा
इसी तरह आज भी राहुल गांधी को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं लेकिन कार्य करता है यह मानने को तैयार नहीं है कि गांधी नेहरू परिवार से अलग हटकर कोई उनका नेतृत्व कर सकता है। 1991 में राजीव गांधी की मृत्यु के बाद 244 लोकसभा सीट जीतने वाले कांग्रेस को 1996 में 140, 1998 में 141 और 1999 में 114 सीटों पर संतोष करना पड़ा था।
आम आदमी का हाथ गरीबों के साथ
आम आदमी का हाथ गरीबों के साथ का नारा देकर 2004 में सोनिया गांधी ने पासा पलटा और कांग्रेस को 145 सीटों के साथ सरकार बनाने का मौका मिला 2009 में कांग्रेस को 206 सीटें मिली थी।
ऐसे में अगर इतिहास अपने को दोहरा रहा है और सोनिया गांधी की तरह ही राहुल गांधी को भी कांग्रेस के सबसे खराब दिन देखने पड़ रहे हैं तो भी कार्यकर्ताओं का उन पर भरोसा कायम है। कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता डॉक्टर उमाशंकर पांडेय का कहना है कि जब तक गांधी और नेहरू परिवार की ताकत बरकरार है तब तक फिनिक्स पक्षी की तरह कांग्रेस को भी नवजीवन मिलता रहेगा।
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कांग्रेस की लोकसभा सीटें
इंदिरा का नेतृत्व
1967 में 289 1971 में 352 1977 में 153 1980 में 351
राजीव गांधी का नेतृत्व
1984 में 415, 1989- 157, 1991 -244
सोनिया गांधी का नेतृत्व
1996 में 140, 1998 में 141, 1999 में 114, 2004 में 145 , 2009 में 206, 2014 में 44
राहुल गांधी का नेतृत्व
2019 -52
रिपोर्ट- अखिलेश तिवारी
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