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रानी कजरी: क्या आप जानते हैं इसे, मीरजापुर की माटी से है उपजी

जिस प्रकार कुश्ती की प्रतियोगिता में दुर-दुर के पहलवान आते है और उनका दंगल होता है और विजयी पहलवान तथा उसके गुरु व अखाड़े का नाम और सम्मान होता है । उसी प्रकार कजली के दंगल की भी परंपरा रही है।

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Published on: 15 July 2020 11:54 AM GMT
रानी कजरी: क्या आप जानते हैं इसे, मीरजापुर की माटी से है उपजी
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बृजेन्द्र दुबे

मिर्ज़ापुर: सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के मिठास भरें अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूँ ही रिश्तों को खनकाती रहेगी । झूले की पेगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही कजरी लुटा रही हैं । बस इसके रस में रंगने के लिए खुद को मिर्जापुरी बनाने की जरूरत है ।

गायन के साथ हीं होता है कजली का दंगल

भारतीय संस्कृति व परम्परा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। शहरी क्षेत्रों में भले ही पाश्चात्य संस्कृति के नाम पर कानफाड़ू फिल्मी गानों की धुन बजती हो, पर ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच लोक रंगत की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। सावन के महीने में कजली की धुन मनमोह लेती हैं ।

जलाया था क्रांति की अलख

विदेशों में बसे भारतीयों को अभी भी कजरी के बोल सुहाने लगते हैं, तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में जब प्रकृति श्रृंगार करती हैं तब कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है । "रिमझिम बरसेला बदरिया, गुइयां गावेले कजरिया।"

वस्तुत: ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं ।

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भारतवर्ष में विशिष्ट स्थान रखती मिर्जापुरी कजली

मीरजापुरी कजरी सिर्फ उत्तर प्रदेश मे ही नहीं पुरें भारतवर्ष के कई अंचलों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है । इसके कद्रदान विदेशों में भी फैले हुए है । जिस प्रकार कुश्ती की प्रतियोगिता में दुर-दुर के पहलवान आते है और उनका दंगल होता है और विजयी पहलवान तथा उसके गुरु व अखाड़े का नाम और सम्मान होता है । उसी प्रकार कजली के दंगल की भी परंपरा रही है। मीरजापुर के कई अखाड़े, बनारस तथा कुछ अन्य क्षेत्रों के अखाड़े हसमें सम्मिलित होते और उनका मुकाबला हजारों नागरिकों के बीच में होता था। यह बात अलग है कि विगत कुछ वर्षो से कजली प्रेमियों की संख्या घटी है । जिससे अपनी माटी से उत्पन्न हुई कजरी काफी प्रभावित हुई हैं । प्रदेश में मीरजापुर इकलौता जिला हैं जहा कजरी पर सरकारी अवकाश रहता हैं ।

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कंतित नरेश के पुत्री का नाम था कजली

जनश्रुति के अनुसार कंतित नरेश की पुत्री का नाम कजली था। अपने पति के वियोग में उसने जिन गीतों की रचना की वे कजली के नाम से विख्यात हुये । कालान्तर में इसी ढंग के अन्य वियोग गीत भी "कजली कहे जाने लगे" । कजली गायन में तरह तरह के प्रयोग किये गये जैसे अधरबंद, बिना मात्रा, मात्रिक छन्द, शीशापलट, शब्दबंद, शब्द सोखन, गऊबंद, नालबंद, घड़ाबंद, कमलबंद, चित्रकाव्य बंद, हलकबंद, ककहरा कैद, ककहरा चबंन, दसंग, सोरंग और झुमर- हरे रामा, साँवलिया, बलुमुआ, रामा रामा, जिअवा, झालरिया, लोय, हरी हरी, अब रे मयनवा, सुगनवा, झीर झीर बुनिया आदि अन्य कई विधाओं में गायी जाती है। यूँ तो कजली का इतिहास बहुत विस्तृत है ।

कजरी का प्राचीन इतिहास

कजली का इतिहास अति प्राचीन है । कई दशक पूर्व कजली की परम्परा के सम्बन्ध में प्रख्यात साहित्यकार अमर गोस्वामी ने अपनी पुस्तक में प्राचीन सात अखाड़ों का जिक्र किया है। जिसमें पंडित शिवदास का अखाड़ा , राममूरत का अखाड़ा , जहाँगीर का अखाड़ा , भैरो अखाड़ा , बफत अखाड़ा, अक्खड़ का अखाड़ा, इमामन का अखाड़ा, छवीराम का अखाड़ा, बैरागी का अखाड़ा समेत तमाम अज्ञात अखाड़े संचालित थे । गांव गांव में कजली गायन की परम्परा रही है । सावन की रिमझिम फुहार के साथ ही पेड़ो पर झूला पड़ जाता था । गायन के लिए लोग शाम को जुटते और समवेत स्वर में टोली बनाकर गायन किया जाता था । देर रात तक लोकगीत पर लोग झूमकर नाचते थे ।

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भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास है कजरी

विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मीरजापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मीरजापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है ।उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है ।

इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूँ ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते जीवन मूल्यों को भी बचाया जा सकता है।

झूला झूल कर गाया जाता है कजरी

विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वन्दता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है ।

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कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसके साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है । पूर्णिमा की शाम को महिलायें समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत गाये जाते हैं।

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कजरी लोक संस्कृति की जड़ है

कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गायी जाती हो पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूँज सुनायी देती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आजादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-

"केतने गोली खाइके मरिगै

केतने दामन फांसी चढ़िगै

केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया, बदरिया घेरि आई ननदी।"

कजली के गायन को माध्यम बना कर लड़ी थी अंग्रेजी हुकूमत से लड़ाई

सन् 1857 से 1942 तक की क्रांति को धारदार बनाने के लिए लेखक व कवि कजरी के माध्यम से अंग्रेजों को ललकारते रहे। यद्यपि मिर्जापुरी कजरी का इतिहास दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी से मिलता है। अंग्रेजों के डाक व तार विभाग से तीव्र गति से क्रांति की खबर एक से दूसरे अंचलों में कजरी के माध्यम से फैलता रहा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आंचलिक स्तर पर लोक फनकारों में अपने-अपने धुनों में स्वतंत्रता की खुशी का इजहार किया। लेखक व कवि मिर्जापुर में कजरी के माध्यम से स्वतंत्रता की खुशी एक दूसरे में बांटते रहे।अस्सी व नब्बे के दशक के बाद पाश्चात्य संगीत के बढ़ते प्रभाव ने कजरी पर कड़े प्रहार किए।

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अपने ही घर में उपेक्षित हुई कजली

इसके बावजूद जिले के दाना पानी को ग्रहण करने वाले कई कलाकार अपने लोकगीतों की थाती को संजोये विदेशी धरती पर भी इसका पताका फहरा रहे है । नगर के आर्यकन्या इन्टर कालेज की छात्रा रही प्रसिद्ध लोकगीत गायिका मालिनी अवस्थी, सेवानिवृत अध्यापिका उर्मिला श्रीवास्तव, सेवानिवृत अजीता श्रीवास्तव तथा उषा गुप्ता, रानी सिंह, शिवलाल, सीताराम आदि ने कजरी को नया मुकाम देकर लोगों को अपनी विरासत से परिचित करा रहे हैं । इसके अलावा तमाम कलाकारो ने अपनी संस्कृति को सम्हाल कर रखा ही नहीं बल्कि मंच पर प्रस्तुत कर उसे जीवंत रखा है ।

धार्मिक मान्यता

भारतवर्ष की सबसे लम्बी विन्ध्य पर्वत सृखलाओं के बीच स्थित मीरजापुर अपनी अनोखी विरासत, धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व तथा ऐतिहासिक व प्रागैतिहासिकता के लिए भारतवर्ष में प्रसिद्ध है । यही माँ विंध्यवासिनी देवी का प्रसिद्ध मंदिर है । जिन्हें कज्जला देवी के नाम से भी जाना जाता है ।

माँ जगदम्बा बहुत क्रोधित हो गई

कहा जाता है कि देवासुर संग्राम में राक्षसों ने देवताओ को पराजित कर उन पर अपना आधिपत्य जमा लिया और देवताओ को तरह तरह से पीड़ा पहुँचाने लगे । त्रस्त होकर देवतागण आदिशक्ति की शरण में पहुंचे और अपना कष्ट बताया । जिसे सुनकर माँ जगदम्बा बहुत क्रोधित हो गई तथा क्रोध से उनका मुखमंडल एवं सारा शरीर काला पड़ गया।

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प्रति वर्ष भाद्रपद में कजरी का त्यौहार मनाया जाता है

देवी के इस स्वरूप को कज्जला देवी के नाम से विभुषित किया गया । तब से लेकर आज तक माँ विंध्यवासिनी के इसी रूप के अवतार को कजरी उत्सव के रूप मनाया जाता है । प्रति वर्ष भाद्रपद में कजरी का त्यौहार मनाया जाता है। कजरी के दिन माँ विंध्यवासिनी के आँगन में उनका जन्मोत्सव बड़े धूम धाम से मनाया जाता है । विंध्यवासिनी जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में देश के नामी-गिरामी लोकगीत गायक कलाकार कजरी गाकर माँ के श्री चरणों में अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित करते है ।

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