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फिर से प्रचंड बनने की लालसा में नेपाल के पुष्प

हिंसा के जरिये समाज बदलने में विश्वास रखने वाली माओवादी विचारधारा को लेकर चलने वाले पुष्प कमल नेपाल की राजशाही के खिलाफ जन युद्ध छेड़े हुये थे और इस जन युद्ध में सफल भी हुये। लेकिन युद्ध के बाद राजनीतिक व्यवस्था में हुये परिवर्तन में प्रचंड बुझ से गए।

Rahul Joy
Published on: 27 Jun 2020 2:16 PM IST
फिर से प्रचंड बनने की लालसा में नेपाल के पुष्प
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नील मणि लाल

लखनऊ। किसी जमाने में नेपाल के फायरब्रांड नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड वाकई में काफी प्रचंड थे। हिंसा के जरिये समाज बदलने में विश्वास रखने वाली माओवादी विचारधारा को लेकर चलने वाले पुष्प कमल नेपाल की राजशाही के खिलाफ जन युद्ध छेड़े हुये थे और इस जन युद्ध में सफल भी हुये। लेकिन युद्ध के बाद राजनीतिक व्यवस्था में हुये परिवर्तन में प्रचंड बुझ से गए। जो नेपाल की पहाड़ियों, सुदूर अंचलों और जंगलों में शेर बने हुये थे वो प्रचंड काठमांडू शहर में खो गए। अब अपनी खोई पहचान को फिर से जिंदा करने के लिए दहल बेचैन हैं। उनको इस क्रम में अब चीन का ही सहारा नजर आ रहा है।

विद्रोह के दस साल में 8 साल भारत में बिताए

11 दिसंबर 1954 को एक गरीब परिवार में जन्मे पुष्प कमल जब स्कूल में पढ़ते थे तभी उनके टीचर ने उन्हें वामपंथी विचारधारा में ढाल दिया। जब पुष्प कमल 1975 में ग्रेजुएशन कर रहे थे तब तक वो पक्के कम्यूनिस्ट बन चुके थे। कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (मशाल) जॉइन करने के कुछ समय बाद उनको आल नेपाल नेशनल फ्री स्टूडेंट्स यूनियन (रिवोल्यूशनरी) का प्रमुख बना दिया गया। ये सफर आगे चलता हुआ 1995 में उस मुकाम पर पहुंचा जब दहल ने कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) की स्थापना कर ली। 1996 में अनेक पुलिस स्टेशनों पर हमले के साथ इस पार्टी ने नेपाल की राजशाही के खिलाफ जंग छेड़ दी।

ये विद्रोह 10 साल तक चला जिसमें से लंबे समय तक दहल भूमिगत रहे और आठ साल भारत में रहे। अंततः ये आंदोलन नेपाल में 237 साल से चली आ रही राजशाही को उखाड़ फेंकने में सफल रहा। इस समय तक उन्हें नेपाली राजनीति में ज्यादा पहचान हासिल नहीं हुई थी और पार्टी द्वारा होनेवाले कार्यो का श्रेय पार्टी के एक अन्य नेता डॉक्टर बाबुराम भट्टराई को मिलता रहा। लेकिन प्रचंड वैश्विक रूप से तब सुर्खियों में आये जब 1996 में वे पार्टी के सशस्त्र विंग के सर्वेसर्वा बने। 1996 में जब सोवियत संघ के विघटन के साथ वामपंथ के स्मृतिशेष लिखे जा रहे तब प्रचंड की अगुवाई में नेपाल के माओवादी हथियार उठा रहे थे।

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रहस्यमय प्रचंड

माओवादियों के हिंसक आंदोलन के लगभग पूरे दौर में उनके नेता पुष्प कमल भूमिगत रहे इसलिए उनके साथ रहस्य का एक औरा जुड़ गया। लेकिन एक गड़बड़ी ये हो गई कि पूरा राजनीतिक कॅरियर भूमिगत और फ़रारी में बिताने के कारण प्रचंड नेपाली जनता के साथ जमीनी जुड़ाव पैदा नहीं कर सके। नेपाली जनता उनको संदेह की निगाहों से देखती थी।

बहरहाल, 2006 में हुये व्यापक शांति समझौते के बाद प्रचंड की पार्टी ने उनको नई सरकार के प्रमुख के रूप में बैठाने के लिए अभियान चला दिया। अप्रैल 2008 में हुये चुनावों में प्रचंड की पार्टी 220 सीत जीत कर 601 सदस्यीय निर्वाचन असेंबली में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। अगले ही महीने नई असेंबली ने नेपाल को लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित कर दिया और 15 अगस्त को प्रचंड प्रधानमंत्री चुन लिए गए।

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शक्ति संघर्ष में फेल

18 अगस्त 2008 को पद संभालने वाले प्रचंड को संसदीय राजनीति का कोई अनुभव तो था और सामने खड़ा था अपने देश के पुनर्निर्माण का पहाड़ जैसा काम। इसी में प्रचंड फेल हो गए। उनको कहीं से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। उनके निकट सहयोगी केपी ओली तक विरोधी बन गए। हालात चरम पर तब पहुँच गए जब प्रचंड ने सेना प्रमुख को 20 हजार माओवादी विद्रोहियों को जेल से रिहा करने का आदेश दिया। ये 2006 के शांति समझौते का एक हिस्सा थी। लेकिन सेना प्रमुख ने प्रचंड का आदेश मानने से इंकार कर दिया।

गुस्साये प्रचंड ने मई 2009 में सेना प्रमुख को ही बर्खास्त कर दिया। अपने पुराने साथ केपी ओली की लामबंदी के चलते राष्ट्रपति राम बरन यादव ने प्रचंड के आदेश को रद कर दिया। शक्ति संघर्ष में उलझे प्रचंड ने अंततः 4 मई 2009 को पद से इस्तीफा दे दिया। समझा जाता है ओली को उस समय भारतीय समर्थन प्राप्त था।

मधेसियों के समर्थन से चुने गए पीएम

प्रचण्ड और ओली 2016 में फिर आमने सामने आए। हुआ ये कि इस बार केपी ओली प्रधानमंत्री थे लेकिन सदन में विश्वासमत पर वोटिंग में निश्चित पराजय के सामने उन्होने इस्तीफा दे दिया। निर्वाचन असेंबली के पास प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचंड ही आधिकारिक प्रत्याशी थे। मधेसियों के हितों की रक्षा करने वाले दलों के गठबंधन मधेसी फ्रंट के समर्थन के चलते प्रचंड पीएम चुन लिए गए। प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के साथ पावर शेयरिंग डील की जिसके तहत 2017 में प्रचंड हट गए और शेर बहादुर देऊबा प्रधानमंत्री बना दिये गए। 2018 के चुनावों से पहले प्रचंड ने ओली से हाथ मिला लिया और चुनावों के बाद इन दोनों के दलों का नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी में विलय हो गया। लेकिन इसके बाद से प्रचंड का सितरा फिर नहीं चमक सका और वे केपी ओली के पिछलग्गू बन कर रह गए।

नेपाल की बरबादी

फरवरी 1996 में शुरू हुये माओवादी आंदोलन के दौरान नेपाल में बहुत बरबादी हुई। हजारों इमारतें नष्ट कर दी गईं, सरकारी खजाने लूटे गए, सैनिकों के अलावा आम नागरिकों की हत्या की गई। दस साल के आंदोलन के दौरान 17 हजार से ज्यादा लोग मारे गए। माओवादियों ने अपने संघर्ष में बच्चों का भी इस्तेमाल किया। इस हिंसा और विध्वंस को ‘प्रचंड पथ’ का नाम दिया गया था और ग्रामीण क्षेत्रों में लड़ाकों के मिलिट्रीनुमा अड्डे बनाए गए थे। प्रचंड का कहना है कि माओवादी आंदोलन के दौरान हुई मौतों में से वे सिर्फ 5 हजार के लिए जिम्मेदार हैं। 12 हजार मौतों के लिए वे पूर्व राजाओं को दोषी ठहराते हैं।

भारत से नफरत भी

प्रचंड अपने आंदोलन काल में लंबे समय तक भारत की शरण में रहे लेकिन उनकी कम्यूनिस्ट विचारधारा में भारत को नेपाल के शोषक के तौर पर देखा जाता रहा है। कम्यूनिस्ट लिट्रेचर में नेपाल को भारत का अर्ध उपनिवेश बताया जाता है। भारत के बारे में कहा जाता था कि वह नेपाल के रॉ मेटीरियल और प्रकृतिक संपदा पर निगाह गड़ाए हुये है। ये भी कहा जाता था कि भारत के नेपाल एक बाजार से बढ़ कर कुछ नहीं है। नेपाल के कम्यूनिस्ट दल नेपाली कांग्रेस को अपना प्रतिद्वंदी और सर्वहारा वर्ग का दुश्मन मानते थे। कम्यूनिस्ट ये भी मानते थे कि भारत नेपाली कांग्रेस को समर्थन देता है। प्रचंड ने पैंतरेबाजी करते हुये समय की जरूरत के हिसाब से कभी भारत के खिलाफ जहर उगला तो कभी भारत के पक्ष में खड़े हो गए।

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नाटकीय मोड़

प्रचंड की राजनीति में नाटकीय मोड़ 2002 में आया जब नेपाल का संघर्ष राजा, माओवादियों और संसदीय ताकतों के बीच त्रिकोणीय हो गया था। नेपाली सेना ने माओवादियों के खिलाफ निर्णायक अभियान छेड़ दिया था। ऐसे में प्रचंड को लग गया कि संकट का राजनीतिक समाधान ही हो सकता है। ऐसे में प्रचंड ने जेएनयू के एक प्राचार्य एसडी मुनि के जरिये तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्रा को एक पत्र भेजा और माओवादी विद्रोह की तार्किकता समझाते हुये ये बताया कि माओवादी भारत के हितों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।

2005 में भारत में माओवादियों और संसदीय ताकतों के बीच एक समझौता कराया गया। प्रचंड इस बात से प्रसन्न थे कि भारत ने उन्हें वैधानिकता पाने में मदद की। 2008 में पीएम बनाए के बाद प्रचंड अपने पहली विदेश यात्रा में चीन चले गए। इसके बाद प्रचंड ने भारत के खिलाफ दूसरे मोर्चे खोल दिये। उनकी पार्टी के एक दस्तावेज़ में भारत को दुश्मन बताया गया। प्रचंड ने पशुपतिनाथ मंदिर में भारतीय पुरोहितों को हटा कर नेपाली पुरोहित रखने की कोशिशें कीं। सेना प्रमुख की बर्खास्तगी के मसले पर प्रचंड को पद से हटना पड़ा।

प्रचंड उसके बाद से मंच के पीछे चले गए हैं। उनकी समस्या है कि वे अब भारत के खिलाफ खुला विद्रोह भी अफोर्ड नहीं कर सकते और चीन की गोदी में बैठना भी नहीं। ऐसे में उनके सामने एक ही चारा बचा हुआ है कि केपी ओली के दिखाये रास्ते पर ही चलते रहें।

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