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यूपी ने दिया सबकुछ, बम्बई ने बना दिया महानायक

अमिताभ बच्चन की पैदाइश इलाहाबाद में हुई। आरंभिक पढ़ाई इलाहाबाद में हुई। उनके पिता और हिंदी के नामचीन साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में पढ़ाते थे। अमिताभ की ज़िंदगी के तमाम क़िस्से गंगा के किनारे बसे उत्तर प्रदेश से जुड़ते है।

राम केवी
Published on: 22 Jun 2020 8:41 PM IST
यूपी ने दिया सबकुछ, बम्बई ने बना दिया महानायक
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योगेश मिश्र

सहस्राब्दी के नायक अमिताभ बच्चन ने जब अपनी फ़िल्म डॉन के गाने में खुद को छोरा गंगा किनारे वाला कहा था। तब किसी ने इस गाने के बोल में कोई अर्थ और कोई ध्वनि निकलती नहीं दिखी थी। अब जब अमिताभ बच्चन की फ़िल्म गुलाबो सिताबो बाक्स ऑफिस पर धूम मचाने को तैयार है तब अमिताभ बच्चन के पूरे कैरियर पर नज़र डालें तो गाने की इन लाइनों से बहुत सी ध्वनि बहुत से अर्थ सुनें और पढ़ें जा सकते हैं। लेकिन सबका मतलब महज़ एक है कि अमिताभ उन गिने चुने अभिनेताओं में शुमार हैं। जिनका गंगा के किनारे से अटूट रिश्ता है।

गंगा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, बंगाल हो कर गुजरती है। उसकी सबसे लंबी यात्रा उत्तर प्रदेश से होती हुई आगे बढ़ती है। अगर कुल परंपरा के हिसाब से देखें तो अपने पुरखों को तारने के लिए ज़मीन पर लाने वाले भगीरथ का रिश्ता भी आज के उत्तर प्रदेश से ही जुड़ता है।

अमिताभ बच्चन की पैदाइश इलाहाबाद में हुई। आरंभिक पढ़ाई इलाहाबाद में हुई। उनके पिता और हिंदी के नामचीन साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में पढ़ाते थे। अमिताभ की ज़िंदगी के तमाम क़िस्से गंगा के किनारे बसे उत्तर प्रदेश से जुड़ते है।

प्रतापगढ़ के वासी

उत्तरप्रदेश के बस्ती जिले का पुराना नाम श्रावस्ती था। श्रावस्ती इसलिए, क्योंकि श्राव नामक राजा ने इसे बसाया था। श्रावस्ती छोड़ कर जो कायस्थ देश में अन्यत्र जा बसे, वे श्रीवास्तव कहलाए, जैसे मथुरावाले माथुर।

कवि हरिवंशराय बच्चन ने अगर अपना उपनाम 'बच्चन' नहीं चुना होता, तो वे हरिवंशराय श्रीवास्तव कहलाते। वे पिछली सात पीढ़ियों से प्रतापगढ़ के वासी थे।

बिग बी का पैतृक गांव प्रतापगढ़ का बाबू पट्टी है। हरिबंश राय बच्चन की याद में गाँव में एक लाइब्रेरी एक स्थानीय नेता ने बनवाई है। इसका उद्घाटन करने जया बच्चन और अमर सिंह गाँव पधारे थे। हरिवंश राय बच्चन की पुत्रवधु ने गांव वालों की मदद करने का आश्वासन भी दिया था।

अमिताभ बच्चन का जिक्र करने पर ग्रामीणों के चेहरे एक पल के लिए चमक उठते हैं। क्योंकि कई बार बाबू पट्टी गांव हरिवंशराय बच्चन और अमिताभ बच्चन की वजह से चर्चा का केंद्र बना। अमिताभ बच्चन एक बार भी अपने पैतृक गांव नहीं आये।

चार सौ रुपये में हो गई थी शादी

हरिवंश राय बच्चन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाते थे यहीं हिन्दी सिनेमा के सबसे ज्यादा चमकीले सितारे अमिताभ बच्चन का 11 अक्टूबर, 1942 की शाम को जन्म हुआ। तेजी बच्चन से कवि बच्चन का दूसरा विवाह था।

इससे पहले उनकी पत्नी श्यामा पूरे दस साल तक बीमार रहने के बाद परलोक सिधार गई थीं। तेजी से बच्चनजी की मुलाकात बरेली में एक मित्र ज्ञानप्रकाश जौहरी के घर हुई। जिनकी पत्नी लाहौर के फतेहचंद कॉलेज में प्राचार्य थीं। तेजी उसी कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाती थीं।

तेजी बच्चन जी की कविताओं की प्रशंसक थीं, इसलिए दोनों के बीच प्रेम और विवाह होने में देर नहीं लगी। 24 जनवरी, 1942 को इलाहाबाद के जिला मजिस्ट्रेट की अदालत में उन्होंने अपना विवाह रजिस्टर कराया। इस विवाह में वर-वधू दोनों ने 4-4 सौ रुपए खर्च किए थे।

ध्यानस्थ अमिताभ

सन्‌ 1942 की जिन सर्दियों में अमिताभ बच्चन का जन्म हुआ, बच्चन दंपति इलाहाबाद में बैंक रोड पर मकान नंबर 9 में रहता था। कविवर सुमित्रानंदन पंत भी सर्दियों में अलमोड़ा छोड़कर इलाहाबाद आ जाते थे। वे बच्चनजी के घर के निकट रहते थे।

नर्सिंग होम में पंतजी ने नवजात शिशु की तरफ इशारा करते हुए कवि बच्चन से कहा था, 'देखो तो कितना शांत दिखाई दे रहा है, मानो ध्यानस्थ अमिताभ।' तभी बच्चन दंपति ने अपने पुत्र का नाम अमिताभ रख दिया था।

तब बच्चनजी के एक प्राध्यापक मित्र अमरनाथ झा ने सुझाव दिया था कि भारत छोड़ो आंदोलन कीपृष्ठभूमि में जन्मे बालक का नाम 'इंकलाब राय' रखना बेहतर होगा, इससे परिवार के नामकरण शैली की परंपरा भी कायम रहेगी।

अमिताभ का भाई अजिताभ

झा ने इसी तरह बच्चनजी के दूसरे पुत्र अजिताभ का नाम देश की आजादी के वर्ष 1947 को देखते हुए आजाद राय रखने का सुझाव दिया था। लेकिन पंतजी ने कहा था, 'अमिताभ के भाई का नाम तो अजिताभ ही हो सकता है।'

कालांतर में माता-पिता के लिए अमिताभ सिर्फ 'अमित' रह गया और उनकी माता उन्हें मुन्ना कहकर पुकारती थीं। तेजीजी की बहन गोविंद ने अजिताभ का घरेलू नाम 'बंटी' रखा।

तेजी बच्चन ने अपने बच्चों को सिख बनाए रखने की कोई चेष्टा नहीं की। श्रीवास्तव परंपरा के अनुसार अमित का चौल-कर्म विंध्याचल होने की परंपरा है । पर दुर्योग देखिए कि बालक अमित के मुंडन के दिन ही एक सांड उनके द्वार पर आया और अमित को पटकनी देकर चला गया।

अमित रोया नहीं, जबकि उसके सिर में गहरा जख्म हुआ था और कुछ टाँके भी लगे थे। वे इतना जरूर कहते हैं कि यह भिड़ंत उनकी उस सहन शक्ति का 'ट्रायल रन' थी, जिसे उन्होंने अपनी आगे की जिंदगी में विकसित किया।

तेजी का सोशल नेटवर्क

उन्हीं दिनों इलाहाबाद में न्यायाधीशों और प्राध्यापकों की पत्नियों ने ऑल इंडिया वीमॅन्स कॉन्फ्रेंस नामक संस्था की स्थापना की थी। शुरू में तेजी इस संस्था की साधारण सदस्य थीं, लेकिन आगे चलकर इसकी सेक्रेटरी बनीं। यह संस्था गायन-वादन और नाटकों का आयोजन करती थी।

तेजी, लाहौर के फतेचंद कॉलेज में भी नाटकों में सक्रिय भाग लेती थीं। इसी संस्था द्वारा मंचित 'अनारकली' नाटक में तेजी ने मुख्य भूमिका निभाई थी, जिससे वे शहर में चर्चित हो गई थीं। वह दूसरे विश्व युद्ध का समय था।

कवि बच्चन ने अपनी पत्नी को नेताजी ब्रिगेड में भी शामिल कराया, क्योंकि वे स्वयं भी महू और सागर में फौजी प्रशिक्षण लेकर शिक्षक होने के साथ-साथ सेकंड लेफ्टिनेंट और फिर पूरे लेफ्टिनेंट बनकर कंधे पर दो सितारे लगाने के हकदार हो चुके थे।

तेजी व इंदिरा की पहली भेंट

एक बार नेताजी ब्रिगेड की परेड नेहरू घराने के पुश्तैनी मकान 'आनंद भवन' में हुई और इसी मौके पर तेजी बच्चन और इंदिरा नेहरू की पहली भेंट हुई। इसके बाद भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने, जो 'मधुशाला' के कवि बच्चन की मित्र थीं, बच्चन दंपति को बाकायदा नेहरू परिवार से परिचित कराया था। तब इंदिराजी का फिरोज गाँधी से विवाह नहीं हुआ था।

वर्ष 1947 में देश आजाद हुआ और बच्चन परिवार क्लाइव रोड पर 17 नंबर के मकान में रहने आ गया। यह एक महलनुमा मकान था। इसी मकान में रहते हुए अमिताभ ने पड़ोसी लड़के नरेश और शशि को अपना दोस्त बनाया। यहीं जाम (अमरूद) के पेड़ पर चढ़ने से अमिताभ जीवन में एक बार फिर धराशायी हुए।

पिता के लाड़ले अमिताभ

बॉयज हाईस्कूल में अमिताभ को भर्ती किया गया था। बॉयज हाईस्कूल की दीवारों पर अमिताभ ने पेंसिल से लकीरें खींच दी थीं । प्रिंसीपाल रिचॅर्ड डूट ने उनकी हथेलियों पर बेंतें रसीद की थीं।

हरिवंशराय उसे ताबड़तोड़ साइकल पर बैठाकर स्कूल ले गए और सीधे प्रिंसीपाल के कक्ष में पहुँचकर उन्हें खरी-खोटी सुनाई। बाद में बच्चे से कहा था कि गलती तुम्हारी थी। तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरे तुम्हें दंड दें और मुझे उनसे लड़ने को जाना पड़े।

क्लाइव रोड के इसी मकान में तेजी बच्चन ने सुंदर-सा बाग लगाया था। अमिताभ को अपने इस बाग पर गर्व था। उस समय इलाहाबाद के अल्बर्ट पार्क में हर वर्ष फ्लॉवर शो होता था, जहाँ तेजी भी अपने गमले प्रदर्शित करती थीं। वे अक्सर पुरस्कृत होती थीं।

बोस अंकल के सामने मै भी लिलिपुट

अमिताभ भी अपने स्कूल स्पोर्ट्स में फर्स्ट आते थे। इसी मकान में अमिताभ ने अपने जीवन के पहले सुपरमैन को देखा। उनका नाम था सुशील बोस। अमिताभ उनके बारे में अपने दोस्तों से बात करते हुए कहते थे, 'अच्छे से अच्छा पहलवान भी इस लंबे-चौड़े आदमी को देखकर घबरा जाए। पास में खड़े हो जाओ तो लगेगा बाजू में पहाड़ है। बोस अंकल के सामने तो मैं भी लिलिपुट (एक बौना पात्र) हूँ।'

इस बीच बंटी बड़ा हो गया और भैया के साथ स्कूल जाने लगा था। अमित पिता के साथ कवि सम्मेलनों में जाने की जिद भी किया करता था। कभी-कभी गला खोलकर कविता पाठ भी करने लगा था। बच्चनजी ने महसूस किया था कि लड़के का गला सुरीला है। अमिताभ जब साढ़े नौ वर्ष के थे, तब कवि बच्चन अँग्रेज कवि डब्ल्यू.बी. यीट्स पर डॉक्टरेट करने के लिए इंग्लैंड चले गए, यह कहकर कि अब घर की जिम्मेदारी तुम पर है।

अमिताभ ने जब मांगी बंदूक

हरिवंशराय 12 अप्रैल, 1952 को बंबई से लंदन के लिए उड़े थे। अमिताभ ने उनसे कहा था कि लंदन से मेरे लिए एक बंदूक लाना। बंदूक का नाम सुनकर कवि बच्चन दचका खा गए थे। उन्होंने पूछा, 'बंदूक क्यों?'

अमिताभ ने कहा था, 'पक्षी मारने के लिए डैड। मेरी दोस्त शशि के पास एक बंदूक है। वह कभी-कभी मुझे भी चलाने को देती है।' तब बच्चनजी ने मुस्कुराते हुए कहा था, 'उसे बंदूक नहीं मुन्ना, एयरगन कहते हैं। उसमें कारतूस की जगह छर्रे लगते हैं, जिसका आघात पक्षी सह नहीं पाते।'

भूल सुधार के बाद अमित ने फिर पूछा था, 'लाओगे ना।'

बच्चनजी ने कहा था, 'मगर तू पक्षी क्यों मारेगा, उन्होंने तेरा क्या बिगाड़ा है?'

अमित ने कहा, 'नहीं मारूँगा, मैं उन्हें पालूँगा।'

बच्चनजी ने कहा, 'तू उन्हें पालेगा भी क्यों, वे तो आकाश के राजा हैं। उनको पिंजरे में बंद करना भी अच्छी बात नहीं। पिंजरे में बंद पक्षियोंकी आँखों में जरा झाँककर तो देखो, वे रोते हुए से दिखते हैं।'

अमिताभ इस युक्तिवाद से जरा विचलित हो गए थे।

लंदन से घर लौटे पिता ने अमित को एयरगन और अजिताभ को चाबी से चलने वाली पाँच डिब्बों की रेलगाड़ी दी। अजिताभ को पत्रों को संभालकर रखने के लिए यह आकस्मिक पुरस्कार दिया गया। एक दिन जवाहरलाल नेहरू ने कवि बच्चन को अपने घर चाय पर आमंत्रित किया और उनके समक्ष विदेश मंत्रालय में अधिकारी बनने का प्रस्ताव रखा। वे उनसे हिन्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ाने का काम करवाना चाहते थे।

नेहरू का आश्वासन

नेहरूजी जानते थे कि बच्चनजी विद्यापीठ के पाँच सौ रुपए के वेतन से दुःखी हैं। इसलिए उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि पगार अच्छी मिलेगी। नेहरूजी के स्वर में अनुरोध भी था। अगले महीने केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री डॉ. केसकर इलाहाबाद आए। वे आकाशवाणी के लिए प्रोड्यूसर ढूँढने में लगे थे।

उन्होंने डॉ. बच्चन से भी बातचीत की और सितंबर 1954 में आकाशवाणी की साढ़े सात सौ रुपए की नौकरी का नियुक्ति पत्र उन्हें मिला। नौकरी सिर्फ एक वर्ष के लिए थी, लेकिन बच्चनजी ने विद्यापीठ के उपेक्षा भरे वातावरण से छुटकारा पाने के इस अवसर का उपयोग किया।

इसके अलावा उन्हें यह विश्वास भी था कि एक वर्ष के अंदर नेहरूजी उन्हें अपने पास बुला लेंगे। डॉ. बच्चन जब दिल्ली जाकर नेहरूजी से मिले तो उन्होंने समझाया कि आकाशवाणी की साढ़े सात सौ रुपए की नौकरी करने से उन्हें विदेश मंत्रालय के अधिकारी के रूप में हजार रुपए की नौकरी देना आसान होगा।

अमिताभ की भावुकता

इन दिनों अमिताभ में एक अजीब-सी भावुकता आ गई- इलाहाबाद छूट जाएगा। माँ के साथ बाजार-हाट जाना। पिता के साथ गंगा तीरे। रानी का बाग। सब-कुछ। नई जगह पर होस्टल और स्कूल में छोटे भाई की देखरेख।

उन्होंने ना-नुकुर की तो माँ ने कहा, 'दुनिया बहुत बड़ी है। इतनी बड़ी दुनिया में कई आश्चर्य यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं। दुनिया को समझने का द्वार अध्ययन ही है। अच्छे स्कूल में पढ़ने का मौका हर किसी को नहीं मिलता। शेरवुड में जाकर पढ़ने से तुम्हारा फायदा होगा।'

अमिताभ को लगा कि माँ भी अब पिताजी जैसा बोलने लगी हैं।

इलाहाबाद से संबंध टूटना

अगले कुछ महीनों में तेज गति से बहुत कुछ बदल गया। इलाहाबाद से अमिताभ का संबंध टूट गया। वे छोटे भाई के कंधे पर हाथ रखकर नैनीताल के शेरवुड स्कूल जा पहुँचे। आकाशवाणी के प्रोड्यूसर के रूप में डॉ. बच्चन ने इलाहाबाद में काम शुरू कर दिया।

1955 के दिसंबर में वे इलाहाबाद से इंदौर आए थे। होलकर कॉलेज के हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने उन्हें कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए बुलाया था।

तब इंदौर में तेजी बच्चन का ट्रंककॉल आया था और उन्होंने बताया था कि 'विदेश मंत्रालय का नियुक्ति पत्र आ गया है। विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के रूप में नियुक्ति मिली है। पगार एक हजार रुपए महीना होगी।'

बच्चनजी का भी इलाहाबाद छूटा

तेजी बच्चन की ज्योतिष में गहरी आस्था थी। उन्होंने नौकरी जॉइन करने का शुभ दिन भी निकलवा लिया था। डॉ. बच्चन को इंदौर से सीधे दिल्ली जाना पड़ा था और ‪27 दिसंबर को‬ विदेश मंत्रालय में काम संभालने के लिए वे पहुँचे थे। यह उनका अड़तालीसवाँ जन्म दिवस था।

अगले साल पूरे बच्चन परिवार ने भारी मन से इलाहाबाद छोड़ दिया। उन्हें दिल्ली के मोतीबाग में फ्लैट मिला था। दिल्ली पहुँचे तो मालूम पड़ा कि साउथ ब्लॉक के निकट साउथ एवेन्यू में भी एक फ्लैट अलॉट हो गया है।

राजीव से अमित की मुलाकात

सबकी राय हुई कि साउथ एवेन्यू ज्यादा अच्छी और सुविधाजनक जगह रहेगी। यहाँ अपना पड़ाव डालकर डॉ. बच्चन ने नेहरूजी को सूचित किया और मिलने की अनुमति माँगी। ‪चार दिन बाद‬ नेहरूजी ने बच्चन परिवार को चाय के लिए आमंत्रित किया। उनके सरकारी आवास तीन मूर्ति भवन की भव्यता को अमित ने अपने फ्लैट से ही देख लिया था।

आनंद भवन से ज्यादा विशाल भव्य राजबाड़े जैसी जगह। यहाँ राजीव से अमित की फिर भेंट हुई। अमित को मालूम था कि राजीव और संजय कुछ ही दिनों बाद दून स्कूल में पढ़ने चले जाएँगे और वे दोनों भाई (अमिताभ-अजिताभ) शेरवुड में पढ़ने के लिए नैनीताल चले जाएँगे।

अमित और राजीव तथा अजिताभ और संजय के बीच प्रगाढ़ दोस्ती के बीज इसी दिन अंकुरित हुए। शाम को घर लौटने के बाद पिताजी ने कहा था, 'डिसेंसी यानी कि शालीनता किसे कहते हैं, यह बात समझ में आई या नहीं? वह देश का टॉप बॉस है और मैं उसके अधीन काम करने वाला एक कर्मचारी। उनके लिए हम कुछ भी नहीं हैं, लेकिन कितना मान दिया उन्होंने हमको। यही सच्ची शिक्षा है। बड़े होने और अच्छे होने के बीच कोई विरोध नहीं है।'

खूशी से झूम उठा अमिताभ का बालमन

नैनीताल जाने से पहले मुन्ना और बंटी मम्मी के साथ दिल्ली के बाजारों में भटके और खूब खरीदी की। यहाँ चाट, वहाँ आइसक्रीम। लेकिन एक नई जिंदगी शुरू। पहले वे रेल द्वारा दिल्ली से काठगोदाम गए।

वहाँ से नैनीताल तक 30 किलोमीटर का सफर बस से किया और पहाड़ी पर स्थित शेरवुड कॉलेज की इमारत को देखा। यह संस्था नाम से तो कॉलेज कही जाती थी, लेकिन वास्तव में थी स्कूल ही। जिस पहाड़ी पर यह थी, उसका नाम टिफिन टॉप था। नजदीक ही चायना पीक, स्नोव्यू, कुमाऊँ रेंज।

अमिताभ को मालूम था कि रॉबिनहुड का अड्डा शेरवुड के जंगलों में ही था। अमिताभ को रॉबिनहुड नाम के छात्रावास (ग्रीन हाउस) में ही रहने को जगह मिली। इस संयोग की वजह से अमिताभ का बाल मन खुशी से झूम उठा और धीमे-धीमे वे नई जगह से प्रेम करने लगे।

यहाँ होस्टल में अपना काम आप ही करना पड़ता था। यानी दोनों भाइयों को स्वावलंबी बनना पड़ा। ‪सुबह 7‬ से रात ‪10 बजे‬ तक का पूरा रूटिन निर्धारित था। अर्थात अनुशासनबद्ध जीवन।

स्वतंत्रता का अहसास

लेकिन यहीं अमिताभ को पहली बार स्वतंत्रता का अहसास हुआ। अमिताभ को यह भी मालूम था कि इस जगह का नाम सरोवर किनारे बने नैनीदेवी के मंदिर के कारण नैनीताल है और इस स्थान पर प्रकृति की अपार कृपा है।

चारों तरफ अनेक झाड़ियाँ और रंग-बिरंगे फूल। प्रकृति की सुंदरता को आँखों में समेटने और उसे नजदीक से जानने के लिए स्कूल कॉम्प्लेक्स के आसपास विचरण करने में उन्हें विशेष आनंद आने लगा।

यहीं उनके अंदर बैठे नट (अभिनेता) को भी प्रकट होना था। अमिताभ सावधानीपूर्वक पढ़ाई-लिखाई तो करते ही थे, मगर उनकी ज्यादा रुचि नाटकों में भाग लेने में रहा करती थी।

राजीव से अमित की पहली मुलाकात चौथे जन्मदिन की पार्टी में हुई, जब अमित ने पहली बार मिलिट्री ड्रेस पहनी थी और इस दिन अमित के घर फैंसी ड्रेस स्पर्धा रखी गई थी, इसलिए इंदिराजी राजीव को धोबी के वेश में लाई थीं। तब राजीव की उम्र मात्र ढाई साल थी।

पॉलिटिक्स में प्रवेश और अलविदा

इलाहाबाद. शहर से बॉलीवुड स्टार अमिताभ बच्चन की पर्सनल और पॉलिटिकल लाइफ भी जुड़ी रही है। शादी के 11 साल बाद 1984 में बिग बी यहां पत्नी जया संग आए थे। तब वे यहां कांग्रेस संग पुरानी दोस्ती निभाने के मकसद से पहुंचे थे।

अमिताभ हिंदी फिल्मों के सुपर स्टार बन चुके थे। वह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के चुनाव में हेमवती नन्दन बहुगुणा के ख़िलाफ़ कांग्रेस के उम्मीदवार थे। अमिताभ की सभाओं में उमड़ी भीड़ और उनके प्रशंसकों को संभालना पुलिस के लिए मुश्किल हो जाता था। बिग बी खास इलाहाबादी स्टाइल और बोली में जनता से संवाद करते थे।

बच्चन को तकरीबन 2.65 लाख वोट मिले थे, जबकि बहुगुणा को 1.14 लाख वोट। अमिताभ सियासत में ज्यादा दिन नहीं रह पाए। 1987 आते-आते उन्होंने पद से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि वो राजनीति के लिए फिट नहीं हैं। बोफोर्स दलाली विवाद में अमिताभ और उनके भाई अजिताभ पर आरोप लगे। उसके बाद उन्होंने कांग्रेस और पॉलिटिक्स को अलविदा कह दिया।

यूपी में जमीनें भी खरीदीं

गंगा किनारे के शहर और गंगा के प्रदेश अमिताभ की ज़िंदगी से अभिन्न रूप में जुड़े रहे। उनकी ज़िंदगी के हर बदलाव के साथ इनके रिश्ते बनते बुनते देखे जा सकते है। अभिनेता बनने का बीज इलाहाबाद में पड़ा। अभिनेता नेता बना इलाहाबाद में ही। वैसे मेरा मानना है कि नेता सबसे बड़ा अभिनेता होता है। इस लिहाज़ से भी देखें तो अमिताभ ने चरम छुआ। यहीं राजनीति को तौबा कर दिया।

अमिताभ को जब महाराष्ट्र में किसान बनने का सपना पूरा करने का मन हुआ तो लखनऊ के मलिहाबाद में ज़मीन ख़रीदी।

बारांबकी के दौलतपुर गाँव में अमिताभ ने एक कालेज खोलने के लिए २७ जनवरी, २००८ में दस बीघा ज़मीन पर अपनी बहू ऐश्वर्या राय बच्चन के नाम से डिग्री कालेज की आधारशिला रखी। पर इस दिशा में कुछ बच्चन परिवार ने किया नहीं।

बाद में उसे ग्राम प्रधान के नाम कर छुट्टी पा ली। लेकिन गाँव के लोग हिम्मत नहीं हारे उन्होंने बग़ल में ही एक कालेज दूसरा खोल कर दो साल पहले पढ़ाई भी चालू कर दी। लोगों से मदद लेकर इसको सत्यवान शुक्ल नाम के टीचर ने अंजाम दिया है।

अमर सिंह व सुब्रत राय ने की मदद

जब एबीसीएल के घाटे से उबरने की कोशिश में थे तो जिन दो लोगों ने सबसे ज़्यादा मदद की उन दोनों का रिश्ता उत्तर प्रदेश से जुड़ता है। इनके नाम अमर सिंह और सुब्रत राय सहारा है। एक आज़मगढ़ के हैं तो दूसरे गोरखपुर के। ज़मीन के दस्तावेज़ों को लेकर मुक़दमा भी अमिताभ बच्चन को झेलना पड़ा। यह आयुक्त फ़ैज़ाबाद के यहाँ चला।

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अमिताभ बच्चन की सबसे ज़्यादा फ़िल्मों को टैक्स फ़्री होने का अवसर भी उत्तर प्रदेश में ही मिला। अमिताभ बच्चन ने भले ही राजनीतिक से तौबा कर ली हो पर उनकी पत्नी जया बच्चन जब राजनीति की डगर चलीं तब इन्हें उत्तर प्रदेश का ही क्षेत्रीय दल रास आया। वह समाजवादी पार्टी रही।

वह कई बार इस दल से राज्य सभा सदस्य रहीं। इन्हें भी चुनाव के दौरान ग़लत हलफ़नामा देने के चलते सदस्यता गवानी पड़ी। पर बाद में दोबारा जीत गयी। एक बार गांधी बच्चन परिवार के बीच के रिश्तों को लेकर जया बच्चन ने एक तीखा बयान दे दिया तब अमिताभ ने आगे बढ़कर सँभाला।

इस बयान की ज़मीन भी गंगा किनारे ही रही। अपने बेटे के विवाह के तमाम धार्मिक अनुष्ठान अमिताभ को विंध्याचल व वाराणसी में करने पड़े।

180 मजदूरों को भेजा यूपी

अमिताभ बच्चन के बारे में कहा जाता है कि वह चैरिटी नहीं करते। पर कोरोना काल में उन्होंने 180 मज़दूरों को जहाज़ बुक करा कर उत्तर प्रदेश भेजने का काम किया। इनमें अधिकांश टेलरिंग, सैलून व मैकेनिक का काम करने वाले लोग व उनके परिजन थे। इसमें उन्नाव की नगमा ख़ातून तो पहली बार जहाज़ में बैठने वाले लोगों में शुमार हैं।

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इन दिनों वह जिस फ़िल्म को लेकर चर्चा में है, वह भी गंगा वाले प्रांत उत्तर प्रदेश से जुड़ती है। लखनऊ की पृष्टभूमि में बनी फिल्म गुलाबो सिताबों ऑनलाइन रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म में लखनऊ का खूबसूरती से फिल्मांकन किया गया है।

दरअसल, गुलाबो सिताबो कठपुतली किरदारों के नाम हैं। यूपी में कठपुतली का खेल दिखने वाले गुलाबो और सिताबो नामक किरदारों के नाम से पत्नी और सौतन, सास-बहू या ननद-भाभी के झगड़ों के किस्से सुनाते और लोगों का मनोरंजन करते थे। अवध में कठपुतलियों का इतिहास नवाबों के शासनकाल से है। उस दौर में घुमंतू परिवार कठपुतली नृत्य के जरिए लोगों का मनोरंजन करते थे।

बात गुलाबो सिताबो की

1857 के स्वतंत्रता संग्राम तक कठपुतिलयों का इस्तेमाल लोगों में देश प्रेम जगाने के लिए किया जाने लगा था। सिर्फ नाम में ही गुलाबो सिताबो फिल्म की कहानी से गुलाबो सिताबो कठपुतली का कोई लेना देना नहीं है। पूरी फिल्म में कठपुतली के सिर्फ दो सीन हैं। वैसे फिल्म के डाइरेक्टर शूजित सरकार का कहना है कि एक यूट्यूब वीडियो देख कर इस नाम का आईडिया आया। शायद अब कठपुतली की लुप्त होती परंपरा को कुछ सहारा मिल जाये।

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लखनऊ के कलाकार इसमें हैं और बताया जाता है कि काफी शोध करके फिल्म बनाई गई है। लेकिन कुछ बड़ी गड़बड़ियाँ भी नजर आतीं हैं। जैसे कि, फिल्म के क्रेडिट्स में शूटिंग लोकेशन के नाम दिये गए हैं। एक नाम लिखा है – आग़ा मिल डेविल’ । असल में लिखा जाना चाहिए था ‘आगा मीर ड्योढ़ी’ लेकिन लगता है अनुवाद गलत हो गया या जानकारी का अभाव था।

फिल्म का प्लॉट फातिमा मंज़िल नाम की हवेली पर फोकस्ड है। जिस जगह को फातिमा मंज़िल बताया गया है वह महमूदाबाद के राजा की विशाल इमारत का एक हिस्सा है। इस विशाल बिल्डिंग के कई हिस्सों पर वाकई में ढेरों किरायेदार और अवैध कब्जेदार बरसों में रहते चले आ रहे हैं।

मिर्जा की बेगम फार्रुख जाफर की बात

फिल्म में मिर्ज़ा की बेगम की भूमिका फार्रूख जाफ़र ने निभाई है। 86 वर्षीय फार्रूख जाफ़र मूल रूप से जौनपुर की हैं। उनका जीवन लखनऊ में ही बीता है। अब वे गोमतीनगर में रहती हैं। वे कई फिल्मों में काम कर चुकीं हैं। फार्रूख जाफ़र रेडियो पर विविध भर्ती प्रोग्राम की पहली महिला एनाउंसर थीं। फार्रूख जाफ़र का पत्रकारिता से भी रिश्ता रहा है। उनकी बेटी मेहरू जाफ़र पत्रकार और लेखिका हैं। फार्रूख जाफ़र के पति भी पत्रकार थे लेकिन बाद में पॉलिटिक्स में चले गए।

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गुलाबो – सिताबो में एक किरदार पुरातत्व विभाग के अधिकारी का है जिसे लखनऊ के फोटो जर्नलिस्ट त्रिलोचन सिंह ने निभाया है। त्रिलोचन सिंह कई अखबारों में काम कर चुके हैं और अब एक संस्थान में फोटोग्राफी पढ़ाते हैं। गोमतीनगर के रहने वाले श्रीप्रकाश वाजपेयी अमिताभ के दोस्त के रोल में हैं। ये चार दशक से थियेटर से जुड़े हैं।

बेगम से 17 साल छोटे हैं मिर्जा

फिल्म में मिर्ज़ा यानी अमिताभ बच्चन की बेगम की उम्र 95 वर्ष बताई गई है और मिर्ज़ा की उम्र बेगम से 17 साल कम। इस हिसाब से मिर्ज़ा हुये 78 साल के। अमिताभ बच्चन की असली उम्र भी यही है।

फिल्म की लेखिका जूही भी लखनऊ की रहने वाली हैं और 1975 यहीं जन्मीं थीं। जूही के पिता शिक्षा विभाग में काम करते थे। जूही ने आर्ट्स कॉलेज से डिग्री ली है। वह टाइम्स ऑफ इंडिया में काम कर चुकी हैं। गुलाबो सिताबो की शूटिंग भी आर्ट्स कॉलेज में हुई है।



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राम केवी

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