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400 साल पहले इस राजा ने बसाया था गोंडा नगर, ऐसे खत्म हुआ 80 कोस का राज्य

विसेन क्षत्रिय राजा मान सिंह ने 400 साल पहले गोंडा नगर की स्थापना की थी। 1856 में ब्रिटिश सरकार के आदेश से अवध शासक के नियंत्रण में आया तो एक विस्तृत भूभाग को बहराइच जिले से अलग करके गोंडा जिला बना दिया गया।

Shreya
Published on: 11 Dec 2020 6:45 PM IST
400 साल पहले इस राजा ने बसाया था गोंडा नगर, ऐसे खत्म हुआ 80 कोस का राज्य
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400 साल पूर्व विसेन राजा ने बसाया था गोंडा नगर

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला और भगवान राम की जन्म स्थली अयोध्या के मध्य में स्थित गोनर्द भूमि पर विसेन क्षत्रिय राजा मान सिंह ने 400 साल पहले गोंडा नगर की स्थापना की थी। प्राचीन काल में यह कोसल राज्य और मुगल शासन में अवध सुबाह की बहराइच सरकार के अधीन था। 1856 में ब्रिटिश सरकार के आदेश से अवध शासक के नियंत्रण में आया तो एक विस्तृत भूभाग को बहराइच जिले से अलग करके गोंडा जिला बना दिया गया।

तब बलरामपुर का क्षेत्र भी गोंडा का हिस्सा था और इसका विस्तार नेपाल तक था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले विसेन वंश के अंतिम शासक महाराजा देवी बख्श सिंह की शौर्य गाथा आज भी लोगों में देश भक्ति का जज्बा पैदा कर रही है। विसेन राजाओं द्वारा बनाए गए राधाकुंड, सागर तालाब, मथुरा वृंदावन के तर्ज पर गोर्वधन पर्वत आज भी इस वंश के वैभवशाली अतीत की गवाही दे रहे हैं।

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गोंडा का प्राचीन इतिहास

पुरातन काल से अब तक चर्चित श्रावस्ती राज्य ही गोंडा का इतिहास है। इसके वर्तमान भूभाग पर प्राचीन काल में श्रावस्ती राज्य और कोशल महाजनपद फैला था। गौतम बुद्ध के समय इसे एक नयी पहचान मिली। जैन ग्रंथों के अनुसार श्रावस्ती उनके तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ और आठवें तीर्थंकर चंद्र प्रभनाथ की जन्मस्थली भी है। वायु पुराण और रामायण के उत्तरकाण्ड के अनुसार श्रावस्ती उत्तरी कोशल की राजधानी थी।

gonda news (फोटो- सोशल मीडिया)

सम्राट हर्षवर्धन (606 से 647 ई.) के राजकवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में श्रावस्ती पर श्रुत वर्मा नामक राजा के शासन का उल्लेख किया है। दंडी के दशकुमार चरित में भी श्रावस्ती का वर्णन है। सन 1033 ई. में राजा सुहेलदेव ने यहीं सैय्यद मसूद गाजी के भांजे और क्रूर, आततायी लुटेरे मसूद गाजी का वध किया था।

मध्य, ब्रिटिश काल और स्वतंत्रता के बाद

मध्यकाल में यह मुगल शासन के दौरान अवध सुबाह की बहराइच सरकार का एक हिस्सा था। फरवरी 1856 में अवध प्रान्त के नियंत्रण में आने के बाद बहराइच कमिश्नरी से गोंडा को अलग करके जिले का दर्जा प्रदान किया गया। सन 1857 की सशस़्त्र क्रान्ति विफल होने के बाद जब यह ब्रिटिश सरकार के अधीन हुआ तो गोंडा नगर में जनपद मुख्यालय और सकरौरा (कर्नलगंज) में सैन्य कमान बनाया गया।

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गोंडा नगर के साफ सफाई और विकास के लिए 1868 में ब्रिटिश सरकार ने म्युनिसिपैलिटी (नगर पालिका) का गठन किया। तब इसमें सात वार्ड थे और इसके संचालन के लिए गठित कमेटी में जिलाधिकारी चेयरमैन और 11 सदस्य थे। साल 1914 में पहली बार राय बहादुर कृष्ण प्रसाद अध्यक्ष चुने गए, जिनका कार्यकाल 1923 तक रहा। वर्तमान नगर पालिका में तीन दर्जन मोहल्ले और 27 वार्ड हैं। मौजूदा अध्यक्ष एवं पूर्व पालिकाध्यक्ष कमरुद्दीन की पुत्री उजमा राशिद नगर के विकास के लिए सतत प्रयत्नशील हैं।

1857 में गोंडा जिले में चार तहसीलें, गोंडा सदर, तरबगंज, बलरामपुर और उतरौला शामिल थी, लेकिन 1868 में प्रथम बंदोबस्त में बलरामपुर तहसील खत्म करके उसे उतरौला में शामिल किया गया। जिला बनने के 141 साल बाद 25 मई 1997 को गोंडा को दो भागों में विभाजित किया गया और नवसृजित बलरामपुर जनपद में तत्कालीन गोंडा की बलरामपुर, उतरौला और तुलसीपुर तहसील को शामिल किया गया। विभाजन के बाद वर्तमान गोंडा जनपद देवी पाटन मण्डल का मुख्यालय है। अब जनपद में गोंडा सदर, मनकापुर, कर्नलगंज एवं तरबगंज आदि चार तहसीलें हैं।

गोनर्द से हुआ गोंडा

घाघरा नदी के उत्तर शिवालिक पर्वत तक फैले क्षेत्र को ही पौराणिक ग्रंथों में गोनर्द कहा गया। पतंजलि ने अपने अष्टाघ्यायी महाभाष्य में स्वयं को गोनर्दीय कहा है। वात्स्यायन के कामसूत्र में भी अनेक जगह गोनर्दीय मत का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि वनों, घास-फूस से आच्छादित इस क्षेत्र में वन्यजीव भी रहते थे। यहां अयोध्या के राजाओं की गाएं भी इस क्षेत्र में रहती थीं। इक्ष्वाकुवंशीय राजा महाराज दिलीप ने इसी क्षेत्र में नन्दिनी गाय की सेवा की थी। गाएं जहां कुलेल करती थीं उसे ही गोनर्द कहा गया। वर्तमान गोंडा गोनर्द का ही अपभ्रंश रुप है।

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विसेन राजा मान सिंह ने बसाया गोंडा नगर

विसेन वंश के प्रतापी राजा मान सिंह ने वर्तमान गोंडा शहर बसाया था। तब टेढ़ी (कुटिला) नदी के निकट स्थित कोडसा (खोरहंसा) से राज्य का संचालन होता था। सन 1540 ई. के प्रलयंकारी बाढ़ में जब कलहंस क्षत्रिय राजा अचल नरायन सिंह के वंशजों समेत राजमहल जलमग्न हुआ तो विसेन राजा प्रताप मल्ल ने बागडोर संभाली और खोरहंसा को राजधानी बनाया।

कहा जाता है कि राजा मान सिंह शिकार की तलाश में भ्रमण करते हुए उस स्थान पर पहुंचे जहां आज गोंडा शहर है। तब यह क्षेत्र बेल, बबूल के वृक्षों से आच्छादित घना जंगल में राजा को एक खरहा (खरगोश) दिखा, जिसे शिकारी कुत्तों ने दौड़ा लिया। लेकिन उस खरहे ने उलटे कुत्तों पर ही वार कर दिया, जिससे कुत्ते विचलित हुए और वह भागकर जान बचाने में सफल रहा। इससे प्रभावित राजा ने सोचा कि जहां के खरहे इतना निडर हों उस स्थान अवश्य कुछ खास है।

उन्होंने वहीं राजधानी बनाने का निश्चय किया। इसके बाद सन 1620 ई. में राजा मान सिंह ने अयोध्या के राजा दिलीप द्वारा काली भवानी मंदिर और राजा दशरथ द्वारा स्थापित दुःखहरण नाथ मंदिर के निकट गोंडा नगर की स्थापना कर उसे राजधानी बनाया।

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विसेन राजवंश का गौरवशाली अतीत

सूर्यवंशी क्षत्रिय भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के पुत्र महाराजा चन्द्रकेतु को मल्ल (विसेन) वंश का प्रवर्तक माना जाता है। उन्हें ही सर्वप्रथम ‘मल्ल‘ की उपाधि दी गई थी। भगवान राम ने अश्वमेध यज्ञ के बाद अपना साम्राज्य दो पुत्रों और छह भतीजों को बांट दिया था। वायु पुराण के अनुसार लक्ष्मण के पुत्र अंगद और चन्द्रकेतु को हिमालय के निकटस्थ बसा कारुपथ प्रदेश दिया गया। बाल्मीकि रामायण में चन्द्रकेतु ने कारुपथ प्रदेश में चन्द्रकान्ता को अपनी राजधानी बनाया, जिसे कालान्तर में इसे मल्ल राष्ट्र कहा गया।

मौर्य साम्राज्य के उदय के समय शक्तिशाली मल्ल राष्ट्र का विघटन हुआ तो प्रथम शती ईस्वी में इस वंश के राजा विश्वसेन ने मझौली (देवरिया में) राज्य की स्थापना की। इसके बाद मल्ल वंश के स्थान पर यह विसेन राजवंश कहलाया। इतिहासकार डा. राजबली पाण्डेेय के अनुसार, तुर्कों के आक्रमण के समय जब गहड़वाल राज्य छिन्न भिन्न हुआ तब विसेन वंश के 75वें राजा धर्मसेन ने मझौली को स्वतंत्र करके उसका विस्तार किया।

उनके पुत्र राजा धूमसेन के बाद उनके वंशज वेणीदत्त सेन, गंगादत्त सेन, धूम मल्ल सेन, हरदेव मल्ल, भूप मल्ल, दीप मल्ल, आनन्द मल्ल, माधव मल्ल, धीर मल्ल ने यहां शासन किया। धीरमल्ल के बाद सन 1311 से 1366 तक उनके पुत्र राजा भीम मल्ल के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बलभद्र मल्ल को मझौली का राज्य मिला तो छोटे पुत्र भूपति शाह को भयाना ठिकाही में गौरा तालुका मिला। कालान्तर में भूपति शाह के वंशजों को गौरहा विसेन कहा गया।

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11वीं पीढ़ी के प्रताप मल्ल आए गोंडा

मझौली नरेश बलभद्र के बाद 10वीं पीढ़ी में राम मल्ल के द्वितीय पुत्र पृथ्वी मल्ल ने अपने पुत्र प्रताप मल्ल और दो भतीजों सहंगशाह और महंगशाह को चंदेरी नरेश की सहायता के लिए भेजा। चंदेरी नरेश की सहायता के बाद मझौली को दिल्ली के सुल्तान का कोपभाजन न बनना पड़े इसलिए पृथ्वीमल्ल ने प्रताप मल्ल को कुछ समय के लिए अन्यत्र रहने के लिए कहा। चूंकि प्रताप मल्ल के अनुज सर्वजीत मल्ल उर्फ फतेह मल्ल राजस्थान के मूल निवासी कलहंस राजूपतों के राज्य कोडसा (खोरहंसा) के तत्कालीन राजा अचल नरायन सिंह के यहां सेनापति थे, इसलिए प्रताप मल्ल भी वहीं रहने लगे।

कुछ समय बाद जब जलप्लावन में राजा अचल नरायन सिंह का सर्वनाश हो गया, तब राजकुल का कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण प्रताप मल्ल ने सन 1541 ईस्वी में कोडसा राज्य की बागडोर संभाल ली और यहां विसेन राजवंश का शासन हो गया। प्रताप मल्ल के पुत्र शाह मल्ल के बाद पौत्र कुसुम मल्ल ने शासन किया। साल 1612 में कुसुम मल्ल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजा मान सिंह राजा हुए। मान सिंह की वीरता के कायल तत्कालीन मुगल सम्राट जहांगीर ने उन्हें राजा की पदवी और सिंह की उपाधि दी।

साल 1620 में गोंडा नगर की स्थापना

राजा मान सिंह ने साल 1620 में खोंरासा से 10 किमी पश्चिम में गोंडा नगर की स्थापना की। मान सिंह के बाद उनके पुत्र लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र निर्वाहन सिंह के बाद 1665 में पौत्र अमर सिंह के पुत्र राम सिंह राजा हुए। साल 1698 में राम सिंह की मृत्यु के बाद पुत्र दत्त सिंह गोंडा के राजा हुए। पराक्रमी और साहसी राजा दत्त सिंह ने राज्य का विस्तार किया और युद्ध कौशल से अवध के नवाबों की अधीनता से राज्य को मुक्त करा लिया। महाराजा दत्त सिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र उदवत सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया और मात्र छह दिन की अवस्था में छोटे पुत्र अजमत सिंह को बांधलगोती क्षत्रियों की रियासत मनकापुर की राजगद्दी पर आसीन करा दिया।

उदवत सिंह के बाद उनके पुत्र मंगल सिंह और पौत्र शिव प्रसाद सिंह राजा हुए। शिव प्रसाद सिंह अत्यंत दूरदर्शी थे और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के विश्वासपात्र भी। उनके पुत्र जय सिंह ने जब शासन संभाला तो एक युद्ध में घायल होने के कारण उनकी मौत हो गई। तब अवध सरकार ने गोंडा राज्य को अपने अधिकार में ले लिया, लेकिन कुछ समय बाद राज्य का आकार छोटा करके रानी फूल कुमारी को वापस कर दिया।

निःसंतान रानी ने राजा के सगोत्रीय दुनियापति सिंह के पुत्र गुमान सिंह को गोद ले लिया था। राजा गुमान सिंह निःसंतान रहे इसलिए उनकी रानी भगवन्त कुंवरि ने उनके अनुज दलजीत सिंह के पुत्र देवी बख्श सिंह को गोद लेकर साल 1836 में राजा गुमान सिंह के देहावसान पर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

raja Devi Bakhsh Singh राजा देवी बख्श सिंह भगवान शिव और आदि माता के उपासक थे (फोटो- सोशल मीडिया)

राजवंश ने कराया 36 शिवालयों, मंदिरों का निर्माण

धर्म के प्रति पूर्ण आस्था और श्रद्धा से ओत प्रोत विसेन राजवंश के राजाओं ने समय समय पर अनेक मठ मंदिरों का निर्माण कराया और उनके प्रबंधन की भी व्यवस्था की। राजा गुमान सिंह ने ही पृथ्वीनाथ में भगवान शिव के सात खंडों वाले अद्वितीय शिवलिंग को भव्य मंदिर में स्थापित कराया। राजा देवी बख्श सिंह भगवान शिव और आदि माता के उपासक थे। उन्होंने तीन दर्जन भव्य शिव मंदिरों का निर्माण और जीर्णोंद्धार कराया था और उनके प्रबंध हेतु जमीन भी दिया था। जिगना कोट के करीब राजगढ़ में बनवाया गया विशाल पंचमुखी शिव मंदिर आज भी अपने भव्यता की गवाही दे रहा है।

गोंडा नगर के समीप खैर के जंगलों में मां भवानी के भव्य मंदिर का निर्माण, जिसे आज मां खैरा भवानी के नाम से जाना जाता है। बाराबंकी जिलेे के महादेवा गांव में भी उन्होंने एक विशाल शिव मंदिर बनवाया था। मशहूर लेखक अमृत लाल नागर ने ‘गदर के फूल‘ में लिखा है कि राजा देवी बख्श सिंह ने मंदिर के अंदर पत्थर लगवाकर भव्यता दी और मंदिर के नाम पर पांच सौ बीघा भूमि दान किया था।

मन मोहक था जगमोहन महल, वृंदावन

महाराजा दत्त सिंह द्वारा निर्मित जग मोहन महल अत्यंत विशाल और दर्शनीय था। इसी जग मोहन महल के एक भाग में आज महाराजा देवी बख्श सिंह स्मारक कांग्रेस भवन और उनकी प्रतिमा के साथ स्थापित स्मारक स्थित है। धार्मिक प्रवृत्ति के राजा उदवत सिंह की मथुरा के वृंदावन के प्रति आसक्तता को देखते हुए उनकी रानी ने सागर तालाब के बीचों बीच एक टापू पर वृंदावन के तर्ज पर गोर्वधन पर्वत, कृष्ण कुंज, बरसाना, श्याम सदन तथा नगर के बीच राधाकुंड सरोवर और कृष्ण कुंज मंदिर बनवाया।

यहां स्नान के बाद राज परिवार के लोग अंदर बनी सुरंग के रास्ते सगरा तालाब के बीच टापू पर बने गोवर्धन मंदिर में पूजन अर्चन के लिए जाया करते थे। समय के थपेड़ों के साथ तालाब का स्वरूप भी बदल गया और मंदिर झाड़ियों से घिर गया। राजा देवी बख्श सिंह ने गोंडा के पूर्व में जिगना में एक मजबूत किले का निर्माण किया, वहीं से राज्य सम्पत्ति में वृद्धि की और 80 कोस तक राज्य का विस्तार किया।

raja baksha singh साल 1853 में सबसे बड़े संग्राम की अगुआई राजा महाराज देवी बख्श सिंह ने ही की थी (फोटो- सोशल मीडिया)

राम जन्मभूमि के प्रथम आन्दोलन का नेतृत्व

अयोध्या में भगवान श्रीराम के जन्मभूमि और राम मंदिर को लेकर प्रथम बार साल 1853 में सबसे बड़े संग्राम की अगुआई राजा महाराज देवी बख्श सिंह ने ही की थी। इसमें अवध के लगभग सभी हिन्दू राजा उनके साथ थे। जन्मभूमि के इतिहास का यह सबसे बड़ा और प्रथम साम्प्रदायिक युद्ध था और सात दिनों तक चले इस संग्राम में मुगलों को पीछे हटना पड़ा। जन्मभूमि वाला स्थान पुनः हिन्दुओं के कब्जे में आ गया और अस्थाई मंदिर बना दिया गया।

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साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक गोंडा नरेश

राजा देवी बख्श सिंह बहादुरी, घुड़सवारी और तलवारबाजी के लिए प्रसिद्ध थे। अवध के नवाब वाजिद अली शाह मां मलका किश्वर उन्हें बेटा कहकर उन्हें सीने से लगा लेतीं थीं। मलका और उनके बीच मां बेटे का प्रगाढ़ रिश्ता जीवन पर्यन्त रहा। देवी बख्श सिंह साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक थे, वे जहां दशहरा, दीवाली और होली का त्योहार मनाते थे, वहीं शबेबरात, ईद का जश्न और मोहर्रम पर मातम भी मनाते थे। ईद का चांद देखने के बाद वे 10 दिन तक व्रत रखते, जमीन पर सोते और जौ की रोटी ही खाते थे।

गोंडा नगर, जिगना में उन्होंने इमामबाड़ा बनवाया था। जिगना कोट के मुख्य द्वार पर बने सैकड़ों ताखों में दीवाली और शबेबरात की रात दीप जलाए जाते थे। मुहर्रम के अंतिम दिन कर्बला जाते हुए ताजिये जगमोहन महल के सामने झुका दिए जाते और उन पर धूप, दीप, फूल और जल चढ़ाया जाता था। यही कारण है कि अब भी महराजगंज मोहल्ले में राजा देवी बख्श सिंह की ड्योढ़ी (स्मारक) के सामने ताजिया झुका दिया जाता है।

ताउम्र अंग्रेजों से लड़ते रहे देवी बख्श

गोंडा नरेश देवी बख्श सिंह का पूरा जीवन देश की आजादी के लिए संघर्ष में बीता। अंग्रेज हुकूमत की ओर से समर्पण के प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं, जिनमें जरवा, सीतापुर व लमती की लड़ाई प्रमुख है। 1856 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी तेवर अपना लिए थे।

1857 में आजादी की पहली क्रांति में महाराजा के एक सिपहसालार ने अंग्रेज कलेक्टर का सिर काट लिया था। देश के गद्दारों के कारण पराजय अवश्यंभावी देख राजा नेपाल के दांग देवखुर चले गये, जहां बाद में उनकी मृत्यु हो गयी। उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में अपना 80 कोस में फैला राज्य गंवा दिया, लेकिन अंग्रेजों के सामने सिर नहीं झुकाया।

raja baksh singh puskalaya (फोटो- सोशल मीडिया)

महाराजा को मिले सम्मान, यादगार हो सुरक्षित

विसेन वंशज और राजा देबी बख्श सिंह साहित्य एवं संस्कृति जागरण समिति के अध्यक्ष माधवराज सिंह कहते हैं कि महाराजा देवी बख्श सिंह ने देश की आजादी के लिए अपना साम्राज्य कुर्बान कर दिया। लेकिन आजाद भारत में उन्हें सम्मान नहीं मिला। माधवराज सिंह की मांग है कि आजादी के बाद 1957 में जारी चित्रमाला के अनुसार, स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम क्रान्ति के अग्रिम पंक्ति के आठ क्रान्तिकारियों मंगल पाण्डेय, बहादुर शाह जफर, नाना साहब, लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, कुंवर सिंह और बेगम हजरत महल के साथ महान सेनानी राजा देवी बख्श सिंह का भी नाम शामिल हो और विसेन राजवंश द्वारा स्थापित भवनों, वृंदावन, सागर तालाब और उनके जिगना कोट स्थित राजमहल के ध्वंशावशेष का संरक्षण हो ताकि आने वाली पीढ़ी महाराजा के त्याग, बलिदान, न्याय और जनप्रियता के बारे में जान सके।

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