Assembly Elections 2022: चुनावी मौसम और नेताओं का पाला बदल का खेल

Assembly Elections 2022: इस बार भी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही नेताओं का पाला बदल शुरू हो गया है।

Newstrack :  Network
Published By :  Ragini Sinha
Update: 2022-01-13 11:12 GMT

विधानसभा चुनाव 2022 (Social media (

Assembly Elections 2022: चुनावी मौसम में भी पाला बदल का खेल शबाब पर है। चुनाव आते ही जैसे-जैसे टिकट के लिए पारा चढ़ता है वैसे–वैसे ही नेता नगरी पाले बदलने लगती है। इस बार भी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही नेताओं का पाला बदल शुरू हो गया है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। हर चुनाव से नेताओं की प्रतिबद्धता बदल जाती है। नेताओं का चुनाव के समय अपने दल में दम घुटने लगता है, उस दल की नीतियां ख़राब लगने लगती हैं और दूसरी पार्टी सबसे अच्छी लगने लगती है। ये दौर उस समय सबसे तेज होता है जब पार्टियां अपने उम्मीदवारों की सूची को अंतिम रूप देना शुरू करती हैं। टिकट काटने के अलावा बहुत से नेता भविष्य का गुना-गणित का अनुमान करके पार्टियाँ बदलते हैं, जैसा कि बंगाल के चुनाव में बहुत अच्छी तरह से देखा गया। हालाँकि जनता के मन का अनुमान लगाना बेहद मुश्किल होता है और बहुत से नेता इसमें गच्चा खा जाते हैं और चुनाव बाद उनको फिर घर वापसी करनी पड़ती है।

कांग्रेस और बीजेपी के कई नेता बदल चुके हैं अपनी पार्टी

बहरहाल, हाल के दिनों में कांग्रेस और भाजपा के कई नेता पार्टी बदल चुके हैं। यूपी में तो कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्या और दारा सिंह चौहान ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। दूसरे दलों से कई नेता भाजपा में शामिल भी हुए हैं। सहारनपुर के बेहट विधानसभा से कांग्रेस के विधायक नरेश सैनी और फिरोजाबाद के सिरसागंज के सपा विधायक हरिओम यादव भाजपा में शामिल हुए हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के चचेरे भाई जसविंदर सिंह धालीवाल भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए हैं। इसके अलावा पंजाब में कांग्रेस और अकाली दल के चार बड़े नेताओं ने अपने समर्थकों के साथ भाजपा का दामन थामा है।

कांग्रेस के कई नेता बीजेपी में शामिल

मणिपुर से कांग्रेस के कई विधायक और बड़े नेता भाजपा में शामिल हो गए हैं। उत्तराखंड मे उत्तरकाशी जिले की पुरोला सीट से कांग्रेस विधायक राजकुमार भाजपा में शामिल हो गए हैं। उत्तराखंड में ही भाजपा को छोड़ आम आदमी पार्टी में गए वरिष्ठ नेता रविंद्र जुगरान एक बार फिर भाजपा में शमिल हो गए हैं। गोवा में कई विधायक भाजपा छोड़ चुके हैं। 2017 से गोवा में 50 फीसदी विधायक दल बदल कर चुके हैं। 

अभी तो और बढेगा सिलसिला 

पाला बदलने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी अभी और होगी जब जीताऊ प्रत्याशी के चयन में लोगों के टिकट कटेंगे। यह सिर्फ भाजपा में ही नहीं बाकी दलों में भी होगा। सभी सियासी दल जीतने का दम रखने वाले प्रत्याशियों की तलाश में जुटे हैं। जिन दलों के मौजूदा विधायक पार्टी जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे, खासकर सत्तासीन भाजपा में उनका टिकट कटना पक्का है। मुकाबला कड़ा होने से गैर भाजपा दलों में भी दावेदार इस बार चुनाव मैदान में उतरना चाहते है और सभी के बारे में हर पार्टी का हाईकमान गंभीर है। इसलिए टिकट हासिल करने में अपने दल में खुद को असुरक्षित महसूस करने वाले नेता अब दूसरे दल में सुरक्षित ठिकाने की तलाश में जुटे हैं। लेकिन उत्तरदेश के इस सबसे बड़े प्रदेश में दलदबदल कमाल तरीके से चल रहा है। भाजपा के नेता थोक के भाव टूट कर सपा में जा रहे हैं और उसी तरह थोक भाव में सपा के नेता पाला बदल कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। कुछ ऐसा ही बसपा में भी पालाबदल का खेल चल रहा है। सपा के चार एमएलसी पहले ही भाजपा में शामिल हो चुके है। जबकि बसपा के भी दर्जनभर नेता सपा में चले गए और कांग्रेस के भी बड़े नेता पाला बदल चुके हैं। समझा जाता है कि भाजपा के 45 से अधिक सिटिंग विधायकों के टिकट काटे जा सकते हैं। इसके पीछे भाजपा के शीर्ष नेताओं का मानना है कि योगी सरकार के खिलाफ जनता में कोई नाराजगी नहीं है, नाराजगी स्थानीय विधायकों से है। पार्टी की ओर से कहा जा रहा है कि ऐसे विधायक ही इस्तीफा दे रहे हैं, जिन्हें इस बार चुनाव में टिकट न मिलने का डर है। 

उत्तर प्रदेश का हाल 

यूपी में दलबदल का सिलसिला कई महीने पहले से शुरू हो गया था। अक्टूबर में, बसपा और कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हुए। इसमें बसपा के पूर्व विधायक सूरज पाल और जी.एम. सिंह और कांग्रेस उपाध्यक्ष वीरेंद्र कुमार पासी शामिल थे। अगस्त में जेल में बंद मुख्तार अंसारी के भाई, बसपा के पूर्व विधायक सिबगतुल्लाह अंसारी सपा में शामिल हो गए थे। सपा संस्थापक सदस्य अंबिका चौधरी, जो 2017 में बसपा में शामिल हुए थे, अपने समर्थकों के साथ सपा में लौट आये। पार्टी बदलने वाले एक चर्चित नाम खलीलाबाद से भाजपा विधायक दिग्विजय नारायण उर्फ जय चौबे का रहा जो सपा में शामिल हो गए। इसके बाद धौरहरा के भाजपा विधायक बाला प्रसाद अवस्थी, बिल्सी से भाजपा विधायक राधा कृष्ण शर्मा, बलिया के चिलकलहर विधानसभा से भाजपा के पूर्व विधायक राम इकबाल सिंह, राकेश राठौर, माधुरी वर्मा, विनय शाक्य, बृजेश प्रजापति, रोशन लाल वर्मा व भगवती सागर, मुकेश वर्मा भी पार्टी से इस्तीफा दे चुके हैं। ज्यादातर लोग समाजवादी पार्टी का दमन पकड़ रहे हैं। 

लगातार चलता आ रहा सिलसिला 

अवसरवाद मानव स्वभाव की एक विशेषता है और लोग अक्सर बेहतर अवसर की तलाश में निष्ठा बदल लेते हैं। राजनीति में भी दलबदलू वह व्यक्ति होता है जो एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा बदल देता है। ऐसे व्यक्ति के लिए पूर्व निष्ठाओं से दूर होने का मुख्य उद्देश्य आम तौर पर या तो अपनी पोजीशन और विशेषाधिकारों को बनाए रखना होता है या दूसरे पक्ष से अधिक शक्ति और पक्ष प्राप्त करना होता है। इसका एक उदाहरण ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं, जिन्होंने कांग्रेस से भाजपा में प्रवेश किया, और बाद में उन्हें केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री नियुक्त किया गया। एक अन्य उदाहरण सुवेंदु अधिकारी हैं, जो ममता बनर्जी के खासमखास थे फिर भाजपा में शामिल हो गए। उन्होंने 2021 के बंगाल विधानसभा चुनावों में टीएमसी सुप्रीमो को हराया था। वह अब राज्य में विपक्ष के नेता हैं। एक अन्य उदाहरण मुकुल रॉय हैं, जो 2017 में ममता बनर्जी से अलग हो गए थे और बंगाल में भगवा पार्टी को मजबूत करने की प्रतिज्ञा के साथ भाजपा में शामिल हो गए। हालाँकि, चुनावों के तुरंत बाद वे टीएमसी में लौट आए। टीएमसी के राजीव बनर्जी भी विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए थे लेकिन बाद में टीएमसी में लौट आए।

दिसंबर में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के पूर्व नेता जगदीप सिंह नकाई और कांग्रेस के पूर्व विधायक शमशेर सिंह राय, कांग्रेस विधायक फतेह सिंह बाजवा और बलविंदर सिंह लड्डी भाजपा में शामिल हुए थे। दो मौजूदा विधायकों के अलावा, पूर्व सांसद राजदेव सिंह खालसा, पूर्व विधायक गुरतेज सिंह घुरियाना और यूनाइटेड क्रिश्चियन फ्रंट ऑफ पंजाब के अध्यक्ष कमल बख्शी भगवा पार्टी में शामिल होने वालों में शामिल थे। हालांकि, भाजपा में शामिल होने के छह दिन बाद ही लड्डी फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। पूर्व सांसद रंजीत सिंह ब्रह्मपुरा 23 दिसंबर को पार्टी के दिग्गज नेता प्रकाश सिंह बादल की उपस्थिति में शिअद में फिर से शामिल हो गए। 

गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता लुइज़िन्हो फलेरियो सितंबर में "भाजपा को हराने" के लिए टीएमसी में शामिल हुए। फलेरियो के साथ, नौ अन्य नेता- लवू ममलेदार, यतीश नाइक, विजय वासुदेव पोई, मारियो पिंटो डी सैन्टाना, आनंद नाइक, रवींद्रनाथ फलेरियो, शिवदास सोनू नाइक, राजेंद्र शिवाजी काकोडकर और एंटोनियो मोंटेइरो क्लोविस दा कोस्टा भी टीएमसी में शामिल हुए।

आया राम-गया राम

'आया राम-गया राम', इस वाक्य की उत्पत्ति 1967 में हुई जब हरियाणा के विधायक गया लाल ने पहले एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की, फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और एक पखवाड़े के भीतर तीन बार फिर से दल बदले। वो पहले कांग्रेस से संयुक्त मोर्चा में गए, फिर वापस कांग्रेस में लौटे और फिर नौ घंटे के भीतर फिर से संयुक्त मोर्चा में चले गए। जब गया लाल ने कांग्रेस में शामिल होने के लिए संयुक्त मोर्चा छोड़ दिया था तब पार्टी के नेता राव बीरेंद्र सिंह ने कहा था कि – 'गया राम अब आया राम है।' 1957 से 1967 तक हुए आमचुनावों में 542 बार सांसद या विधायकों ने अपने दल बदले। 1967 में चौथे आम चुनाव के बाद साल भर के भीतर में रिकार्ड संख्या में 430 बार सांसदों और विधायकों ने दल बदल किया। एक और रिकॉर्ड ये बना कि दल बदल के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं। 1979 में जनता पार्टी में दल-बदल के चलते ही चौधरी चरणसिंह प्रधानमंत्री बन सके थे। 

नुकसान में कांग्रेस 

भारतीय राजनीतिक के सिस्टम में आया राम-गया राम संस्कृति कठोर दलबदल विरोधी कानूनों के बावजूद वर्षों से फली-फूली है। इस संस्कृति का ताजा उदाहरण पंजाब में देखने को मिला जहां विधायक बलविंदर सिंह लड्डी पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होने के छह दिन बाद ही कांग्रेस में लौट आए। एक बड़ा रिकॉर्ड हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल ने 1980 में बनाया था जब उन्होंने समूची जनता पार्टी विधायक दल का विलय कांग्रेस में करा दिया। इअसके बाद भजनलाल मुख्यमंत्री बने रहे।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय राजनीति ने पिछले पांच वर्षों में कई दलबदल देखे हैं। एक विश्लेषण के अनुसार, भाजपा को दलबदल का सबसे बड़ा फायदा हुआ, जबकि 2014 और 2021 के बीच हुए चुनावों में अपने नेताओं के पक्ष बदलने के कारण कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस अवधि में हुए विधानसभा और संसदीय चुनावों के दौरान कांग्रेस से सबसे अधिक 222 लोग पार्टी को छोड़कर अन्य दलों में शामिल हो गए। इसी अवधि के दौरान 153 लोगों ने बहुजन समाज पार्टी को छोड़ कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर ली थी।

दल बदल और चुनावी नतीजा 

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि नेताओं के दल बदलने से चुनावी नतीजे प्रभावित हो सकते हैं लेकिन बड़े पैमाने पर नहीं। हर राज्य और हर चुनाव में फ्लोटिंग मतदाता होते हैं। 15-20 प्रतिशत के दायरे में आने वाला यह हिस्सा किसी भी पार्टी के प्रति वफादार नहीं होता है और ये वर्ग ऐन चुनावों से पहले अपने वोट के बारे में निर्णय लेता है। जब लोग एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाते हैं, तो यह धारणा पैदा होती है कि दूसरी पार्टी के चुनाव जीतने की अधिक संभावना है। ऐसे में ये फ्लोटिंग मतदाता उस पार्टी के पक्ष में शिफ्ट हो जाते हैं जिसके चुनाव जीतने की संभावना होती है। उनमें से कुछ ही ऐसे हैं जो नेताओं द्वारा छोड़ी गई पार्टी के पक्ष में वोट करते हैं और क्योंकि उनमें ये धारणा बनती है कि उस पार्टी के चुनाव जीतने की संभावना नहीं है। धारणाएं बनाने के अलावा दलबदल करने वाले कुछ लोकप्रिय व जनाधार वाले नेता अपने साथ वोट भी लाते हैं। इसका एक उदाहरण बंगाल के सुवेंदु अधिकारी रहे। बंगाल चुनावों में भाजपा के बेहद ख़राब प्रदर्शन के बावजूद वह ममता बनर्जी को हराकर राज्य की सबसे प्रतिष्ठित नंदीग्राम सीट जीतने में कामयाब रहे। हालांकि, कुछ ऐसे भी आया राम-गया राम होते हैं जो पार्टियां बदलने के बाद भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते। विश्लेषकों का कहना है कि, इसलिए मूल रूप से जब चुनाव के समग्र परिणाम की बात आती है, तो दलबदलुओं के प्रभाव की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं की जा सकती है।

कानून भी है 

भारत में दल-बदल विरोधी कानून भी है जो एक पार्टी को दूसरी पार्टी के लिए छोड़ने के लिए व्यक्तिगत सांसदों/विधायकों को दंडित करता है। हालांकि, 1985 में संविधान के 52वें संशोधन के बाद सांसद - विधायकों के एक समूह को दलबदल के लिए किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने की अनुमति है। संविधान की दसवीं अनुसूची भी दलबदल करने वाले विधायकों को प्रोत्साहित करने या स्वीकार करने के लिए राजनीतिक दलों को दंडित नहीं करती है।

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