Criminalization Of Politics: राजनीति में अपराधी, कैसे होगी सफाई, कोर्ट ने कहा बंधे हुए हैं हाथ
Criminalization Of Politics: राजनीति में अपराध कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है। कोर्ट ने कुछ निर्देश जरूर दिए हैं और साथ में ये भी दोहराया है कि आदर्श रूप से तो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को चुनाव लड़ने का मौका ही नहीं मिलना चाहिए।
Criminalization Of Politics: राजनीति के अपराधीकरण का मसला सुलझते नहीं सुलझ रहा है। हर चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के सैकड़ों उम्मीदवार सामने आते हैं। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बीते सालों में इस स्थिति में सुधार लाने के लिए कई आदेश दिए हैं, लेकिन यह समस्या आज भी बनी हुई है।
गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने हाल ही में प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिपरिषद के 78 मंत्रियों के हलफनामों का अध्ययन कर चौंकाने वाली जानकारी दी थी। एडीआर के मुताबिक, 78 में से 33 मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले (Criminal Cases) हैं। इनमें से 24 के खिलाफ हत्या (Murder), हत्या की कोशिश, चोरी (Theft) जैसे गंभीर मामले दर्ज हैं।
राजनीति की सफाई की जिम्मेदारी संसद पर
वैसे, शीर्ष अदालत पहले ही राजनीति की सफाई की जिम्मेदारी संसद पर डाल चुकी है। कोर्ट ने तीन साल पहले एक आदेश में कहा था कि न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करके कानून नहीं बना सकती क्योंकि यह काम संसद का है। उसी को इस बारे में कानून बनाना चाहिए कि जिन व्यक्तियों पर गंभीर अपराधों के मामलों में मुकदमा चल रहा है, उन्हें चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने से कैसे रोका जाए ताकि वे चुने जा कर विधायक एवं सांसद यानी स्वयं कानून बनाने वाले न बन जाएं।
फिलहाल व्यवस्था यह है कि हत्या एवं बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में नामजद होने के बारे मुकदमों का सामना करने वाले व्यक्ति चुनाव में खड़े हो सकते हैं और जीत कर विधायक, सांसद और मंत्री भी बन सकते हैं। केवल अपराध सिद्ध होने की स्थिति में ही उनकी उम्मीदवारी या चुनाव को रद्द किया जा सकता है और उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लग सकता है। लेकिन जैसा कि भारत की न्यायप्रक्रिया के बारे में सभी को पता है, यहां इंसाफ का पहिया बहुत धीमी रफ्तार से घूमता है और अधिकांशत: ऐसे मामले लंबे समय तक लटके रहते हैं।
बहरहाल, राजनीति में अपराध कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है। कोर्ट ने कुछ निर्देश जरूर दिए हैं और साथ में ये भी दोहराया है कि आदर्श रूप से तो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को चुनाव लड़ने का मौका ही नहीं मिलना चाहिए, लेकिन इस मामले में अदालत के हाथ बंधे हैं।
पार्टियों पर लगाया गया जुर्माना
चुनावी उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की पूरी जानकारी सार्वजानिक न करने पर कोर्ट ने भाजपा, कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, सीपीआई और एलजेपी पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। सीपीएम और एनसीपी पर पिछले साल बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान अदालत का आदेश ना मानने के लिए पांच लाख का जुर्माना लगाया गया है।
उस समय अदालत ने आदेश दिया था कि उम्मीदवारों को पार्टियों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए चुने जाने के 48 घंटे के भीतर या नामांकन भरने से कम से कम दो सप्ताह पहले अपनी खिलाफ दर्ज सभी आपराधिक मामलों की जानकारी पार्टी की वेबसाइट पर सार्वजनिक कर देनी चाहिए।
ताजा आदेश में अदालत ने पार्टियों को कहा है कि अब से उम्मीदवार को चुन लेने के 48 घंटों के भीतर ही यह जानकारी उन्हें अपनी वेबसाइट पर डालनी होगी। उन्हें अपनी वेबसाइट के होमपेज पर आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए अलग से इंतजाम करना होगा। इसके अलावा पार्टियों को अपनी वेबसाइट पर ही यह भी विस्तार से बताना होगा कि आपराधिक मामलों के बावजूद उन्होंने उस उम्मीदवार को क्यों चुना। इस संबंध में अदालत ने चुनाव आयोग को भी कई निर्देश दिए हैं।
नए निर्देश
चुनाव आयोग को अब एक मोबाइल ऐप बनाना पड़ेगा जिसमें सभी उम्मीदवारों के आपराधिक मामलों की जानकरी उपलब्ध रहेगी, ताकि मतदात किसी धोखे में ना रह जाएं। कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह भी कहा कि वो इस ऐप और वेबसाइट के बारे में मतदाताओं के बीच विस्तार से जागरूक फैलाने के कदम उठाए। आयोग को एक अलग विभाग भी बनाना पड़ेगा जो इन कदमों के पालन की निगरानी करे और इस संबंध में कोर्ट को समय समय पर जानकारी देता रहे। कोर्ट ने कहा है कि अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने का काम विधायिका के कार्यक्षेत्र का विषय है और इस बारे में उपयुक्त कदम विधायिका को ही उठाने चाहिए।
वापस नहीं ले सकते मुकदमे
राजनीति की सफाई से सम्बंधित एक और मामला सुप्रीम कोर्ट के पास है। कोर्ट ने वर्तमान तथा पूर्व सांसदों – विधायकों के खिलाफ फौजदारी मुकदमों को वापस लेने की प्रवृत्ति पर सख्त आपत्ति जताई है। कोर्ट ने कहा है कि राजनीतिक तथा असंगत कारणों से पूर्व एवं वर्तमान विधायकों व सांसदों के खिलाफ फौजदारी के मुकदमे वापस नहीं लिए जाने चाहिए।
चीफ जस्टिस एनवी रमण, जस्टिस विनीत सरन और सूर्यकांत की बेंच ने निर्देश दिया है कि नेताओं के खिलाफ दर्ज मुकदमे संबंधित हाई कोर्ट की अनुमति के बिना वापस नहीं लिए जा सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह कदम उस समय उठाया, जब न्याय मित्र विजय हंसारिया ने अदालत को संगीन मुकदमे वापस लेने की सूची सौंपी। इनमें उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर में 2013 में हुए सांप्रदायिक दंगों के अभियुक्तों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे वापस लेने का भी जिक्र था। राज्य विधान सभा के सदस्यों के खिलाफ मुकदमे वापस लेने की अर्जी राज्य सरकार ने दायर की है। इसके अलावा कर्नाटक में भी राजनीतिक नेताओं के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लेने का जिक्र हंसारिया ने किया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 321 के तहत राज्य सरकार को मुकदमे वापस लेने का अधिकार है, लेकिन इसका उपयोग जनहित में ही किया जा सकता है। राजनीतिक तथा अन्य बाहरी कारणों से केस वापस नहीं लिए जा सकते। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले माह केरल बनाम अजीत एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला दिया और कहा कि इस केस में शीर्ष अदालत ने मुकदमे वापस लेने के लिए दिशा निर्देश जारी किए हैं। हर सरकार को इन गाइडलाइंस का पालन करना पड़ेगा।
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