425 बनाम 52 सांसद : मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी में मंथन और आत्मविश्लेषण समय की मांग
Political Article: कोविड महामारी में रचनात्मक भागीदारी निभाकर सरकार का सहयोग करने की जगह फर्जी प्रोपेगंडा फैलाने और दूसरी लहर को इन्डियन वेरिएंट संबोधित करते हुए मोदी वेरिएंट बताने जैसी निहायत निकृष्टता वाली घटिया राजनीति भी कांग्रेस जैसी पार्टी की साख में बट्टा लगाने में सहायक सिद्ध हुई है
Political Article: भारत की 135 साल पुरानी राजनीतिक पार्टी की स्थापना 28 दिसम्बर 1885 को 72 विभिन्न व्यक्तियों ने सम्मिलित होकर की थी। इसमें ए ओ ह्यूम , जोकि एक अंग्रेज रिटायर्ड अधिकारी थे, के साथ ही दादा भाई नौरोजी और दिनशा विचा की प्रमुख भूमिका रही थी। भारतीय स्वतंत्रता के समय इस इन्डियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष जे बी कृपलानी थे। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दशकों तक इस राजनीतिक दल का केन्द्र और प्रायः अधिकांश राज्यो में सत्तारूढ़ पार्टी के रूप में एकछत्र आधिपत्य स्थापित रहा। हालांकि इस समयान्तराल में पार्टी विभिन्न अंतर्विरोधो के चलते लगभग दर्जन भर बार विभाजित भी हुई। लेकिन फिर भी 1969 के विभाजन के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने आगे के वर्षो में भी कतिपय टूट का झंझावत झेलते हुए भी इन्दिरा गाँधी जैसी शख्सियत के नेतृत्व में कभी कान्ग्रेस (आई) और अन्ततः फिर मूल नाम हासिल कर अपनी राजनीतिक धाक जमा कर सत्ता पर पकड़ बरकरार रखी।
पार्टी ने 542 सीटों में से 425 सीटें जीत कर विपक्ष को धराशायी कर दिया था
राजीव गांधी के नेतृत्व में 8 वी लोकसभा के लिए वर्ष 1984 में हुए आम चुनाव में, जोकि उनकी माँ श्रीमती इन्दिरा गांधी की नृशंष हत्या के पश्चात सम्पन्न हुआ था, में असाधारण विजय श्री हासिल करने वाली इस पार्टी ने 542 सीटों में से 425 सीटें जीत कर समूचे विपक्ष को धराशायी कर दिया था। पार्टी का यह उच्चतम उत्कर्ष था। बात बीते दो दशकों के समयान्तराल की करें तो तस्वीर का दूसरा स्वरूप परिलक्षित होता है, जोकि अत्यंत स्याह और चिन्ताजनक कहा जा सकता है। 2014 में हुवे लोकसभा चुनाव में यही राष्ट्रीय पार्टी अनेक आरोपों के घिरकर अपने अप्रत्याशित अधोपतन के कारण रसातल में पहुंच कर मात्र 44 सीटों पर जा सिमटी। अपने भारी अंतर्विरोधों, आन्तरिक पूर्वाग्रहो, नेताओं की आपसी कलहबाजी, अंदरूनी लोकतंत्र की कमी और अतिमहत्वाकांक्षा के चलते गुटों में होती सिरफुटव्वल से कोई सीख न लेकर पुनः 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने फिर शर्मनाक हार दुहराते हुए 52 सीटों पर ही जीत हासिल की। यूपी के अमेठी में गांधी परिवार की स्थापित सीट भी राहुल गांधी की हार के कारण हाथ से निकल गयी।
सबसे लज्जाजनक स्थिति तो यह रही कि लोकसभा में नेता विपक्ष का औपचारिक दर्जा हासिल करने के लिए वांछित न्यूनतम सीट भी प्राप्त न हो पाने के कारण न तो 2014 में और न ही 2019 में भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी सदन में नेता विपक्ष का औपचारिक दर्जा तक हासिल कर पायी।
उल्लेखनीय है कि किसी भी देश की लोकतंत्रीय राजनीतिक व्यवस्था में जहाँ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाले दल की महत्ता है वहीं सशक्त विपक्षी दल भी उतना ही अपरिहार्य व महत्वपूर्ण है। खेद का विषय है कि, यह सब कुछ जानते-भांपते हुए भी मौजूदा परिदृश्य में कांग्रेस पार्टी के आकाओ ने किसी तरह का वैचारिक मंथन, विश्लेषण या चिन्तन कर वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण दुर्गति से पार्टी को उबारने की न तो रणनीतिक पहल ही की है और न ही पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में आयी कमजोरी को दुरूस्त कर मौजूदा नेताओ की कार्य शैली में अपेक्षित बदलाव लाने की ही कोई कोशिश ही की गयी है।
2 साल से पार्टी का पूर्णकालिक अध्यक्ष चुना जाना लम्बित
आन्तरिक लोकतंत्र की कमी ने पार्टी की साख में बट्टा लगाने का काम किया है। 21 साल पहले 2000 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद के चयन के लिए चुनाव हुआ था। आज हालात यह है कि 2 साल से पार्टी का पूर्णकालिक अध्यक्ष चुना जाना लम्बित है। अपनी-अपनी बातें रख कर थक चुके दल के नामी गिरामी और वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के व्यापक हित की बात करने के लिये जी-23समूह बनाकर आलाकमान तक बात पहुंचाने की लोकतंत्रात्मक कोशिश भी करके देख ली, मगर सब कुछ अब भी ढ़ाक के तीन पात। इन अनुभवी नेताओं के रचनात्मक सुझावों पर गौर फरमाने की जगह पार्टी के चाटुकार समूहों ने जहाँ इस जी23के मुखिया वरिष्ठतम नेता गुलाम नबी आजाद को बी जे पी का एजेंट तक पुकारने में कोई गुरेज नहीं किया,वहीं कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी जैसों को भी संदिग्ध बना दिया। बीते दिनों अपनी उपेक्षा से आजिज आकर तीन पीढ़ी से कांग्रेसी नेता देने वाले परिवार के सदस्य रहे यू पी के शाहजहाँपुर निवासी जितिन प्रसाद टाटा करके भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं। अब जी23जी22रह गया है। राजस्थान में गहलोत बनाम सचिन पायलट की सार्वजनिक कबड्डी और पंजाब में कैप्टन बनाम सिद्धु की नूराकुश्ती जग-जाहिर है।
महाविकास आघाडी गठबंधन में अपने धुर विरोधी शिवसेना ही नहीं वरन् सोनिया गाँधी को विदेशी बताकर अलग पार्टी एन सी पी बनानेवाले शरद पवार से भी बाकायदा गलबहियाँ कर महाराष्ट्र में सरकार में शामिल कान्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष नाना पटोले सूबे में आगे चल कर अकेले चुनाव लड़ने का दावा ठोंककर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने में मशगूल हैं, यह दावा तब है जब यह असलियत सामने है कि 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में इस पार्टी के सिर्फ 44एम एल ए ही जीत सके हैं। इसी लिए इस बड़ बोले पन पर शिवसेना के नेता उनकी घोषणा के जवाब में यह कहते नजर आते हैं कि जितनी लंबी चादर हो,पैर उतने ही पसारने चाहिए।
आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, पुडुचेरी उत्तराखण्ड, गोवा, मणिपुर, मध्यप्रदेश, अरूणाचल प्रदेश जैसे अनेक राज्यों में पूर्व में घटित उठा पटक और पाला बदल के एपिसोड भी सार्व जनिक रूप से सामने आते रहे है। सवाल उठता है कि डैमेज कंट्रोल करने के लिए सार्थक पहल करने की जगह राज्यों की गुटबाजी और सूबे के छत्रप नेताओं की कलहबाजी के भूसे के ढेर को यूँ ही सुलगते छोड़ कर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है?
नेताओं को दे रखी है खुली छूट
एक ओर गुलाम नबी आजाद जैसे वरिष्ठ नेता और 22 अन्य अलग-थलग कर दिये गये महत्वपूर्ण नेताओं को अनसुना कर निस्पृभावी कर दिया गया है ,वहीं विस्मयकारी परिदृश्य तो यह परिलक्षित होता है कि अपने विवादास्पद, आपत्तिजनक और राष्ट्र की अखंडता, सम्प्रभुता व छवि को देश ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुंचाने वाली अनवरत् बयानबाजी के लिए कुख्यात रहे बड़बोले नेताओं को पार्टी ने खुला लाइसेंस जारी कर रखा है। पार्टी के मौजूदा आकाओ ने दिग्विजय सिंह, कमल नाथ, चिदंबरम, मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर, अधीर रंजन चैधरी जैसे बड़बोलेपन नेताओं के गिरोह को इतनी छूट दे रखी है, जोकि दल के लिए आत्मघाती ही साबित हुई है।
घटिया राजनीति भी पार्टी की साख में बट्टा लगाने में सहायक
यही नहीं शाहीनबाग के धरने, दिल्ली में हुवे भयावह दंगे, जे एन यू में भारत तेरे टुकड़े होंगे नारा लगाने वाले गैंग के बीच जाकर राष्ट्र विरोधी और घिनोनी हरकतों का समर्थक बनने की होड़, कोविड जैसी वैश्विक भयावह महामारी में रचनात्मक भागीदारी निभाकर सरकार का सहयोग करने की जगह फर्जी प्रोपेगन्डा फैलाने और तो और कोविड के दूसरी लहर को इन्डियन वैरियेन्ट संबोधित करते हुए मोदी वैरिएन्ट बताने जैसी निहायत निकृष्टता वाली घटिया राजनीति भी कान्ग्रेस जैसी पार्टी की साख में बट्टा लगाने में सहायक सिद्ध हुई है।विशेष रूप से राहुल गांधी और प्रियंका दोनों के सतही और आधारहीन बयानों ने किरकिरी का रिकार्ड कायम किया है।
दिग्विजय सिंह के बयान का औपचारिक खंडन भी नहीं जारी किया
इसी कड़ी में पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह के द्वारा बीते दिनों क्लब हाऊस चैट के दौरान पत्रकारों के मध्य एक पाकिस्तानी पत्रकार के सवाल पर भारत की अखंडता व सम्प्रभुता पर आधारित नितान्त संवेदनशील मुद्दे पर की गयी अनर्गल, गैरजिम्मेदार, आपत्तिजनक टिप्पणी का उल्लेख किया जाना सामयिक है। शर्मनाक बात तो यह है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का दम्भ भरने वाली पार्टी के किसी भी प्रवक्ता ने भारतीय संसद के दोनों सदनों में बाकायदा विमर्श के बाद 5 अगस्त 2019 को 67 के मुकाबले 367मतों के अभूतपूर्व समर्थन से पारित जम्मू-कश्मीर में 26जनवरी 1957 से लागू विशेष संविधान के अस्थायी रूप से प्रभावी अनुच्छेद 370(अनुच्छेद 35-ए समाहित) के संबंध में दिए गये दिग्विजय सिंह के बयान का औपचारिक खंडन तक जारी करने की जरूरत नहीं समझी गयी। उल्टा टीवी न्यूज चैनलों पर पार्टी के प्रवक्ताओं ने लीपा-पोती कर दिग्विजय के बयान का आशय समझाने की कोशिश कर देश की आम जनता ही नहीं वरन् राष्ट्र वादी कांग्रेसियो को भी शर्मसार करने का ही काम किया।
कभी मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान की धरती पर मोदी विरोधी एजेन्डा चलाने के लिए मोदी के नेतृत्व में भारी बहुमत से लोकतंत्रीय तरीके से चुनी गयी सरकार को अपदस्थ करने में पाकिस्तानी मदद् की सार्वजनिक गुहार लगाने वाले बयान देते दीखते हैं, तो राहुल गांधी खुद आगेआकर भारतीय सैनिकों की गौरवशाली सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जिकल स्ट्राइक कहकर कांग्रेस की सार्वजनिक थू-थू कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते। आगे बढ़ कर भारतीय सैनिकों के बलिदान को ख़ून की दलाली करने वाला घृणित बयान देकर जवाहर लाल नेहरू और इन्दिरा गाँधी की पार्टी की गरिमा को धूल धूसरित करने का प्रयास किया। खेद का विषय यह भी है कि, 370 अनुच्छेद हटाने संबंधित राहुल गांधी के दर्ज ट्वीटर कमेन्ट को संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तानी प्रधान मंत्री इमरान खान ने उद्धृत कर ढाल के रूप में इस्तेमाल कर भारत की किरकिरी कराने का निन्दनीय कार्य किया।
दिग्विजय, कमल नाथ, चिदंबरम, थरूर, मणिशंकर जैसे बयान वीरों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को रसातल में ले जाने के लिए कमर कस ली है। जिन पर ऐसे विषवमन करनेवाली चैकडी पर नकेल लगाने की जिम्मेदारी व जवाब देही है, वह राहुल गांधी स्वयं अति मुखर हो कर पार्टी की जड़ों में मट्ठा डालने का काम खुद भी करते नजर आते हैं। अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित बयानबाजी देने वाले नेताओं पर पार्टी की चुप्पी के निहितार्थ का ताल्लुक कदाचित मुस्लिम समुदाय के वोट-बैंक पर यदि अवलम्बित है,तो यह सोच मौजूदा परिदृश्य में कांग्रेस पार्टी को महंगी ही पड़ती नजर आती है। इसके उलट पार्टी की यह आत्मघाती नीति समर्पित कैडर और समर्थकों में हताशा को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी है।
जितिन प्रसाद के भारतीय जनता पार्टी ज्वॉइन करने के अवसर पर दी गयी टिप्पणी पर पार्टी के वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली का तंज काबिले गौर है ,उन्होंने कहा कि, अगर कोई व्यक्ति काबिल नहीं होगा तो उसे कोई भी जन नेता नहीं बना सकता।आगे कहा कि, कान्ग्रेस को ष्बड़ी सर्जरी ष् की जरूरत है। मोइली ने कहा कि, पार्टी को सिर्फ विरासत पर निर्भर नहीं रहना चाहिए बल्कि नेताओं को जिम्मेदारी देते हुए वैचारिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता देनी चाहिए। बीते साल जी-23के नेताओं ने भी सुप्रीमों सोनियां गाँधी को चिट्ठी लिखकर पार्टी मे हर स्तर पर बदलाव की जरूरत बताई थी।अहंकारी सोच और वर्चस्व की जंग के सार्व जनिक प्रदर्शन ने भीतर ही भीतर संगठनात्मक ढांचे को खोखला बनाने का ही काम किया है।
ज्ञातव्य है कि दशकों तक विपक्ष में रही भारतीय जनसंघ पार्टी और कालांतर में भारतीय जनता पार्टी ने जहाँ विपक्ष की दमदार भूमिका का सतत् निर्वाहन किया, वहीं राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर आगे बढ कर एक स्वर में सत्ता रूढ़ रही कांग्रेस पार्टी का साथ भी दिया। 1971में भारत पाकिस्तान युद्ध, बान्ग्लादेश निर्माण, श्री लंका के मामलों, आपरेशन ब्लू स्टार, पूर्वोत्तर राज्यों के प्रकरणों आदि पर रचनात्मक विरोधी दल की भूमिका प्रस्तुत की।भारत की जनता ने बारीकी से सब देखाभी।यही कारण रहा कि संसद में कभी मात्र 2 एम पी वाली भाजपा आज दो आम चुनावों में ऐतिहासिक मेजोरिटी के साथ केन्द्रीय सरकार बनाने में कामयाब हुई है,अपितु देश के अधिकांश राज्यो में सत्ता रूढ़ हो पायी है। यही नहीं पूर्वोत्तर राज्यों सहित सुदूरवर्ती स्थान पर भी अपनी जड़ों को फैलाने में सफल हो पायी है। दूसरी ओर 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनने और पुनः 2019 में इसी सरकार की पुनरावृत्ति को निजि खुन्नस मान कान्ग्रेस विरोध और डाह की इस वैमनस्यता वाली नीति पर उतर आयी हैकिमोदी सरकार के हर काम को नकारात्मक सोच का मुलम्मा चढ़ा कर मिथ्यामंडन का डंका पीटने लगती है।इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है जब आम जनता को लगता है कि यह सब जानबूझकर निहित एजेन्डे के तहत ही किया जा रहा है।
आज समय की मांग है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आकाओ को उदारवादी दृष्टिकोण दिखाते हुए सुसुप्त हो चुके संगठनात्मक ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए सबकी बातें सुनने की लोकतंत्रात्मक कार्य शैली अपनाने के लिए आगे बढ़ कर पहल करनी होगी। जी23जो अब जी22 रह गया है के सभी अनुभवी नेताओं को ससम्मान आमंत्रित कर पार्टी को सशक्त बनाने के लिए समूचे ढांचे को आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिए मन बनाने की अपरिहार्य आवश्यकता है। रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अपनाकर ही अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल की जा सकती है,न कि मात्र विरोध करने के लिए हर बात का आन्ख मूंद कर विरोध करने की मौजूदा नीति से।
निन्दक नियरे राखिए की सूक्ति को हाथों हाथ ले कर आलोचनात्मक प्रतिक्रिया का सम्मान करना चाहिए। चाटूकारिता की दीमक भीतर-भीतर पार्टी को खोखला करती चली गयी है। आज यह वस्तुस्थिति है कि,दशकों तक केन्द्र सरकार के साथ साथ लगभग पूरे भारत में सत्ता रूढ़ रही पार्टी कभी समाज वादी पार्टी कभी राजद तो कभी विलुप्त होती कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओ के साथ गठबंधन के लिये खीसें निपोरती नजर आती है। शिवसेना, मुस्लिम लीग और हाल ही में असम विधानसभा चुनाव में साम्प्रदायिक रीजनल नेता की पार्टी के साथ समर्पण करती लाचारगी दर्शाती दृष्टिगत होती है। पार्टी के लिए भस्मासुर बनी, भोंडे बयानबाजी के लिए कुख्यात रही टोली को नियंत्रित करनेऔर बाज न आने पर बाहर का दरवाजा दिखाने का साहस करने की जरूरत है।
इस आत्म मंथन की भी आवश्यकता है कि, क्या कारण है कि पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन का ख़ून्खार सरगना खुले आम भारत सरकार के खिलाफ जहर उगलते हुवे कान्ग्रेसी नेताओं और इस पार्टी के लिए तारीफों के कसीदे पढ़ता दीखता है। क्या कारण है कि भारतीय सुरक्षा व सम्प्रभुता पर आधारित अति संवेदनशील मुद्दों पर भारत की मौजूदा मुख्य विपक्षी पार्टी के सबसे बड़े नेताओं और द्वितीय पंक्ति के नेताओ के समयान्तराल पर दिए पाकिस्तान को फायदा पहुंचाने वाले बयानों को प्रायः संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य वैश्विक मंचों पर अथवा विदेशी मीडिया के सामने रखकर भारत को नीचा दिखाने के राष्ट्र विरोधी अभियान में उद्धृत कर फायदा उठाया जाता रहा है। हाल में चीनी सेना द्वारा एल ए सी पर बरते गयी हठधर्मी और भारतीय सैनिकों के शानदार त्वरित हस्तक्षेप के जरिए भारतीय सीमा को शत- प्रतिशत संरक्षित करने सराहनीय पहल के संवेदनशील मुद्दे पर कान्ग्रेसी नेताओं की गलतबयानी ने भारतीय जनता में इस पार्टी की छवि को पलीता लगाने का काम ही किया है।जब दिग्विजय अतिरंजित बयानबाजी के लिए कथित रूप से यह कहते हैं कि, सिम्मी हो या आइ आइ एस का इस्लामी आतंकवाद, हमें इससे ख़तरा नहीं है, इससे ज्यादा खतरनाक हिन्दू उग्रवाद है। मणिशंकर तो चार हाथ आगे बढ़ कर कहते नजर आते हैं कि, मोदी सरकार ने 370हटाकर जम्मू-कश्मीर को फिलिस्तीन बना दिया है।
2611 के मुम्बई आतंकवादी हमले को कथित रूप से आर एस एस फंडेड बताना,पुलवामा हमले को फर्जी बताना, 2008में हुवे बटाला हाऊस मुठभेड़ के आरोपियों को जो अदालत द्वारा आज दोषी सिद्ध हो चुके हैं को भी इन्हीं बयान बहादुर दिग्विजय ने मासूम युवक बताकर क्लीन चिट दे कर अपनी पार्टी का परचम फहराने का काम किया था। सलमान खुर्शीद ने तो यह बयान दे डाला था कि निर्दोष मासूमो की तस्वीरें देख मैडम सोनियाजी की आखों में आंसू निकल आए थे। ओसामा बिन लादेन जैसे खून्खार आतंकवादी को ओसामा जी संबोधित करने वाले दिग्विजय जैसों ने अपनी विकृत मानसिकता के चलते ही आज देश की 135साल पुरानी पार्टी की यह गत बना दी है कि विगत सात साल से भारत के सदन लोकसभा में विपक्ष का औपचारिक दर्जा हासिल करने के लिए तरसने को विवश होना पड़ा है। चुनावी सभा में अपनी पार्टी में मंत्री रह चुकी और भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ रही महिला को ष्टंच मालष्बताने वाले, और कोविड के दौर में अपने कार्य कर्ताओ को अराजकता फैला कर शिवराज सिंह चैहान की सरकार को बदनाम करने का आवाहन करने वाले कमल नाथ सरीखो ने आम संवेदनशील कार्यकर्ताओं को किंकर्तव्यविमूढ़ करके रख दिया है।
एक संगठित कैडर वाली और समर्पित विचार-धारा वाले अनुशासित कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी पार्टी जिसकी संगठनात्मक संरचना जम्मू-कश्मीर से कन्याकुमारी तक और ओडीसा से गुजरात तक सुस्थापित रही हो, यहाँ तक कि पूर्वोत्तर राज्यों सहित सुदूर लक्ष्य द्ववीप और अंडमान निकोबार जैसे केन्द्र शासित राज्यों में भी जिस पार्टी की तूती बोलती रही हो वह राष्ट्रीय दल आज अपने ही आकाओ की मानसिकता और गंभीर उदासीनता के चलते नेतृत्वहीनता का शिकार होकर अभिशप्त सी हालत में रसातल में जाने को तैयार है ,यह खेद जनक ही नहीं अपितु शर्मनाक ही कहा जा सकता है। आम कार्यकर्ताओं की पीड़ा को समझने की कूवत मौजूदा सात सितारा पार्टी नेताओं में कहीं नजर नहीं आती है। जनता से जुड़ी मूलभूत समस्याओ के प्रति सहानुभूति का भाव रख विभिन्न मुद्दों पर सड़क पर उतर कर जन आन्दोलन छेड़ने का जज्बा कहीं गुम सा हो चला है। अब वातानुकूलित कमरों में बैठ कर ट्वीटर हैन्डिल पर ट्वीट कर नेता अपनी भूमिका की इतिश्री कर लेते दिखाई पड़ते हैं। काश ईश्वरीय शक्ति पार्टी को सन्मार्ग दिखाए।
खेदजजनक है कि, विगत साल 15जून को गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ हुयी अप्रत्याशित मुठभेड़ के दौरान शहीद हुवे20 जाबांज भारतीय सैनिकों की शहादत की बरशी के पावन और संवेदनशील दिवस पर सोनिया गाँधी ने अपने जारी वक्तव्य में यह कह कर कि, 1साल बीतने के बाद भी शहीदों के बलिदान की सच्चाई सामने नहीं आयी है। जैसा धुर पोलिटिकल बयान देकर भारतीय सेना के अप्रतिम शौर्य को कटघरे में खड़ा कर अपने गैर जिम्मेदार विरोधी दल होने का ही परिचय दिया है।कान्ग्रेस को दल हित की जगह देश हित के मुद्दों पर संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है।
देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी की इसी सतत् कमजोरी का चतुराई पूर्वक फायदा उठाकर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि मानते हुए परिवार वाद की पोषक रीजनल पार्टियां कुकुरमुत्तों की तरह अपनी-अपनी रियासतें हासिल करने के लिए सिद्धान्तो को तिलान्जलि देने पर उतारू नजर आती है। इनकी प्राथमिकता सत्ता की मलाई चाटने की ही रहती आयी है,राष्ट्रीय महत्व और दीर्घ कालीन संवेदनशील मुद्दों को ताक पर रख कर निहित एजेन्डे के तहत सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना ही मूल उद्देश्य रहता है। इसी लिए रीजनल पार्टियां की जगह राष्ट्रीय पार्टी का मजबूत होना ही भारतीय लोकतंत्र के लिए सुखद अध्याय साबित होगा, यही समय की मांग भी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार के निजी विचार हैं)