George Fernandez Birth Anniversary: चर्च के आडम्बर न बांध सके, जार्ज फर्नांडीज के विद्रोही स्वरों को
आज हम भारतीय राजनीति के एक ऐसे पुरोधा नेता की बात करेंगे जिसे परिवार पादरी बनाना चाहता था लेकिन चर्च का आडम्बर उसे रास नहीं आया और वह विद्रोही हो गया।
George Fernandez Birth Anniversary: आज हम भारतीय राजनीति के एक ऐसे पुरोधा नेता की बात करेंगे जिसे परिवार पादरी बनाना चाहता था लेकिन चर्च का आडम्बर उसे रास नहीं आया और वह विद्रोही हो गया। और इसी विद्रोही चरित्र ने उन्हें भारतीय राजनीति में शीर्ष पर स्थापित किया। जी हां हम बात कर रहे हैं जार्ज फर्नांडीज (George Fernandez) की।
3 जून 1930 को मैंगलोर के मैंग्लोरिन-कैथोलिक परिवार में जन्मे जार्ज अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। परिवार में इन्हें 'गैरी' नाम से बुलाया जाता था। आम बच्चो की तरह जार्ज ने भी अपनी प्राथमिक शिक्षा मैंगलौर के स्कूल से पूरी की। इसके बाद मैंगलौर के सेंट अल्योसिस कॉलेज से अपनी 12वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की।
लेकिन इसी के बाद आया जार्ज की जिंदगी का सबसे बड़ा टर्निंग पाइंट घरवाले परिवार की पारम्परा के अनुसार इन्हें पादरी बनाना चाहते थे इसलिए 16 वर्ष की आयु में बैंगलोर के सेंट पीटर सेमिनरी में धार्मिक शिक्षा के लिए भेज दिया। लेकिन तीन साल में ही चर्च के आडम्बरों ने जार्ज के विद्रोही चरित्र पर जमी धूल को साफ कर दिया और 19 वर्ष की आयु में वे सेमिनरी छोड़ भाग गए और मैंगलौर के रोड ट्रांसपोर्ट कंपनी तथा होटल एवं रेस्तरां में काम करने लगे।
जार्ज का ये समय बहुत कष्टप्रद रहा। रहने को जगह नहीं थी फुटपाथ पर सो जाते थे। अत्यंत कठिनाइयों को झेलते हुए उन्होंने बंबई का रुख किया। यहां भी शुरुआती दौर की दिक्कतों के बाद एक अखबार में प्रूफ रीडर का काम मिल गया। इस अखबार के लिए लिखते पढ़ते उनका संपर्क 1950 में राममनोहर लोहिया से हुआ कुछ ही दिन में वह लोहिया के करीब आ गए। जार्ज उनके जीवन से काफी प्रभावित हुए और सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन के आन्दोलन में शामिल हो गए। इस आन्दोलन में उन्होंने मजदूरों, कम पैसे में कम्पनियों में काम करने वाले कर्मचारियों तथा होटलों और रेस्तरांओं में काम करने वाले मजदूरों के लिए आवाज उठाई। इसके बाद एक दशक के भीतर वे श्रमिकों की आवाज बन गए।
1961 तथा 1968 में मुम्बई सिविक का चुनाव जीतकर वे मुम्बई महानगरपालिका के सदस्य बन गए। इसके साथ ही वे लगातार निचले स्तर के मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए आवाज उठाते रहे और सही तरीकों से कार्य करते रहे। इस तरह के लगातार आन्दोलनों के कारण वे राजनेताओं की नजर में आ गए। 1967 के लोकसभा चुनाव में उन्हें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की ओर से मुम्बई दक्षिण की सीट से टिकट दिया गया जिसमें वे 48.5 फीसदी वोटों से जीते। इसके कारण उनका नाम 'जॉर्ज द जेंटकिलर' रख दिया गया। उनके प्रतिद्वन्द्वी पाटिल को यह हार बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने राजनीति छोड़ दी।
जार्ज फर्नांडीज का कद लगातार बढ़ता गया 1969 में वे संयुक्त सोसियालिस्ट पार्टी के महासचिव चुन लिए गए और 1973 में पार्टी के अध्यक्ष बन गए। 1974 में जॉर्ज ने ऑल इंडिया रेलवे फेडरेशन का अध्यक्ष बनने के बाद देश की सबसे बड़ी हड़ताल शुरू की।
1977 में, आपातकाल हटा दिए जाने के बाद, फ़र्नान्डिस ने गैरहाजिरी में बिहार में मुजफ्फरपुर सीट जीती और उन्हें केंद्रीय उद्योग मंत्री नियुक्त किया गया। केंद्रीय मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने निवेश के उल्लंघन के कारण, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों आईबीएम और कोका-कोला को देश छोड़ने का आदेश दिया।
जार्ज 1989 से 1990 तक रेल मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कोंकण रेलवे परियोजना के पीछे प्रेरणा शक्ति थे। वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार (1998-2004) में रक्षा मंत्री थे, जब कारगिल युद्ध भारत और पाकिस्तान और भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किए एक अनुभवी समाजवादी, फर्नान्डिस को बराक मिसाइल घोटाले और तहलका मामले सहित कई विवादों से डर लगा था। जॉर्ज फर्नान्डिस ने 1967 से 2004 तक 9 लोकसभा चुनाव जीते।