Independence Day: बाघा जतिन कौन थे, जिनके लिए ब्रिटिश अधिकारी को कहनी पड़ी यह बात
भारतीय क्रांतिकारी 'बाघा जतिन' ऐसे व्यक्तित्व जिनकी तरह कोई दूसरा न था और ना ही हो सकेगा...
भारतीय क्रांतिकारी 'बाघा जतिन' ऐसे व्यक्तित्व जिनकी तरह कोई दूसरा न था और ना ही हो सकेगा। उन्होंने इंग्लैंड के प्रिंस ऑफ़ वेल्स (Prince of Wales) के सामने ही अंग्रेज अधिकारियों को पीटा था. साथ ही किसी के साथ गलत व्यवहार होते हुए बाघा देख ही नहीं सकते थे। उनका पूरा नाम जतींद्रनाथ मुखर्जी (Jatindranath Mukherjee ) था। जतींद्र का नाम उन कुछ चुनिंदा लोगों में लिया जाता है, जिनसे अंग्रेज खौफ खाते थे. जतींद्रनाथ बचपन से हष्ट-पुष्ट कद काठी और साहस के धनी थे. एक एसी कहानी है, जिसके अनुसार साल 1906 में जब जतींद्र सिर्फ 27 साल के थे, उनका सामना एक खूंखार बाघ से हो गया था। जतिन ने देखते ही देखते बाघ को मार गिराया। उसके बाद से ही लोगों ने उन्हें 'बाघा जतिन' (Bagha Jatin) बुलाना शुरु कर दिया।
Highlightes
- 27 साल कि उम्र में बाघ को मार गिराया, तो लोगों ने नाम दिया 'बाघा जतिन'
- इंग्लैंड के प्रिंस ऑफ़ वेल्स के सामने अंग्रेज अधिकारियों को पीटा
- बाघा का प्लान कामयाब होता, तो 1915 में भारत होता आजाद
- जितेंद्रनाथ, बाघा जतिन क्रांतिकारी रहे जिनकी प्रतिभा और साहस के अंग्रेज अफसर भी कायल थे. बाघा जतिन की मृत्यु हुई के बाद एक अंग्रेज अधिकारी ने कहा था, 'अगर यह आज जीवित होता, तो एक दिन पूरी दुनिया का नेतृत्व करता'। बाघा जतिन को केवल वही लोग जानते होंगे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को गहनता से पढ़ा होगा या इतिहास की जानकारी जानते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान के बाद भी, इन्हें इतिहास के पन्नों में वह स्थान प्राप्त नहीं हुआ जिसके बाघा जतिन हकदार थे। जतींद्रनाथ मुखर्जी के व्यक्तित्व की महानता का अंदाजा कोलकाता पुलिस के डिटेक्टर डिपार्टमेंट हेड और बंगाल के पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं 'चार्ल्स टेगार्ट' कि कहीं इस बात से लगाया जा सकता है की, 'अगर बाघा जतिन ब्रिटिश और होते हैं तो अंग्रेजी हुकूमत उनका स्टैच्यू लंदन के ट्रेफलगर स्क्वायर (Trafalgar Square) पर नेल्सन के बगल में लगवा देते'।
5 साल की उम्र में पिता का हुआ निधन
आपको बता दें कि जितेंद्र नाथ मुखर्जी का जन्म बंगाल प्रेसीडेंसी में कुष्टिया में 7 दिसंबर 1879 में हुआ था। जितेंद्र नाथ 5 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। जिसके बाद उन पर अपने पूरे घर परिवार को संभालने की जिम्मेदारी आ गई। जतींद्रनाथ ने अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद अपने परिवार को चलाने के लिए स्टेनोग्राफी सीख कर कोलकाता के विश्वविद्यालय अपनी पढ़ाई पूरी की थी। कॉलेज में पढ़ते हुए ही वह सिस्टर निवेदिता (Sister Nivedita) के साथ राहत-कार्यों में हाथ बटाने लगे थे। सिस्टर निवेदिता ने उनहे स्वामी विवेकानंद से मिलवाया था। स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) ने जतिंद्रनाथ को भारत के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया। विवेकानन्द के मार्गदर्शन में जतिंद्रनाथ ने उन युवाओं को जोड़ना शुरू किया जो भारत को अंग्रेजों से आजाद करना चाहते थे। बाद में उनकी मुलाकात श्री अरबिंदो (Sri Aurobindo) से हुई और उनकी प्रेरणा से बाघा ने 'जुगांतर' नाम का एक गुप्त संगठन बनाई। यह स्वतंत्रता सेनानियों का एक मुख्य क्रांतिकारी संगठन था, जिसके प्रमुख नेता वह स्वयं थे।
बाघा जतिन ने 'आमरा मोरबो, जगत जागबे' का नारा दिया
इसके बाद बंगाल का विभाजन हुआ। देखते ही देखते अंग्रेजों के खिलाफ़ जनता का आक्रोश जितना बढ़ता जा रहा था और साथ ही ब्रिटिश हुकूमत का उत्पीड़न भी। ऐसे में बाघा जतिन ने 'आमरा मोरबो, जगत जागबे' का नारा दिया। यानी 'जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा'। इस नारे के बाद बहुत से युवा जुगांतर पार्टी में शामिल हो गये। जल्द ही जुगांतर के चर्चे भारत ही नही बल्कि पूरे विश्व में होने लगे। कई दूसरे देशों में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी भी इस पार्टी से जुड़ने लगे। बाघा जतिन अब किसी भी कीमत पर 'पूर्ण स्वराज' प्राप्त करना चाहते थे।
इंग्लैंड के प्रिंस ऑफ वेल्स के सामने अंग्रेज अधिकारियों को पीटा
साल 1905 में प्रिंस ऑफ वेल्स का कोलकाता में दौरा हुआ। इस दौरान प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत जुलूस निकल रहा था। उस समय एक गाड़ी की छत पर कुछ अंग्रेज़ बैठे हुए थे, जिनके जूते गाड़ी में बैठी महिलाओं के बिल्कुल मुंह पर लटक रहे थे। यह देख कर पहले तो जतिन ने अंग्रेजों से उतरने को कहा, लेकिन वो नहीं माने इसके बाद बाघा जतिन खुद ऊपर चढ़ गये और एक-एक करके सबको तब तक पीटा जब तक कि सारे अंग्रेज नीचे नहीं गिर गए। यह पूरी घटना प्रिंस ऑफ वेल्स के सामने हुई। यही नहीं एक बार किसी भारतीय का अपमान करने पर उन्होंने एक साथ चार-पांच अंग्रेजों की पिटाई कर दी थी। वहीं, साल 1905 में ही मुजफ्फरपुर में अलीपुर बम प्रकरण में बंगाल में कई क्रांतिकारियों को आरोपी मान गिरफ्तार किया गया, लेकिन बाघा जतिन गिरफ्तार नहीं हुए। बाद में 27 जनवरी,1910 को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया, लेकिन कोई ठोस प्रमाण न मिलने पर कुछ दिनों के बाद ही उन्हे छोड़ दिया गया। रिहाई के बाद से, बाघा जतिन ने विचारधाराओं के एक नए युग की शुरूआत की।
बाघा का प्लान कामयाब होता, तो 1915 में भारत होता आजाद
जेल में कैद रहने के दौरान बाघा जतिन ने अन्य कैदियों के साथ मिलकर एक योजना बनाई थी। कहा जाता है देश को आजाद करवाने के लिए वह अब तक का सबसे बड़ी योजना थी। इस योजना को 'जर्मन प्लॉट' या 'हिंदू-जर्मन कांस्पिरेसी' के नाम से जाना गया। अगर यह प्लान कामयाब हो गया होता तो हमारा देश को साल 1915 में ही आजाद हो गया होता। बाघा के प्लान के मुताबिक फरवरी 1915 में भी सन् 1857 की तरह क्रांति करने की योजना थी। लेकिन पंजाब 23वीं कैवलरी के एक विद्रोही सैनिक के भाई कृपाल सिंह ने क्रांतिकारियों को धोखा दिया और सारी योजना अंग्रेजी सरकार को बता दी।
1915 में बाघा जतिन का निधन हो गया
जेल से बाहर आने के बाद बाघा की गतिविधियां धीरे धीरे बढ़ती गईं। वहीं ब्रिटिश पुलिस अब उनकी हर गतिविधि पर नज़र रख रही थी। यही वजह थी कि बाघा जतिन को अप्रैल 1915 में उड़ीसा में बालासोर के जंगलों जाना पड़ा। जहां 9 सितंबर 1915 को जतिन्द्रनाथ मुखर्जी और उनके साथियों और ब्रिटिश पुलिस के बीच मुठभेड़ हुई। इसमें जतिन गंभीर रूप से घायल हो गए थे। बाघा जतिन को उपचार के बालासोर अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने 10 सितंबर, 1915 को अपनी अंतिम सांस ली।