Kanshi Ram Death Anniversary: चन साहिब की पेश है पूरी दास्तां, जो लोगों को जोड़ना जानते थे

Kanshi Ram Death Anniversary: निसंदेह कांशीराम अपने स्वयं के निर्माता खुद थे। पंजाब के दलित परिवार में जन्म लेने के बाद बीएससी किया। क्लास वन अधिकारी बने।

Written By :  Ramkrishna Vajpei
Published By :  Monika
Update: 2021-10-09 05:21 GMT

कांशीराम (फोटो : सोशल मीडिया )

Kanshi Ram Death Anniversary: दलित राजनीति का चेहरा बने कांशीराम की आज पुण्यतिथि (kanshiram ki punyatithi) है। बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर (Babasaheb Bhimrao Ambedkar) के भारतीय राजनीति में दलित राजनीति (dalit rajniti) का अगर कोई सबसे ताकतवर चेहरा बना है तो वह कांशीराम हैं। इससे पहले तक कांग्रेस की राजनीति में महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi)  के हरिजन सेवक संघ की तर्ज पर हरिजनों को प्रतिनिधित्व होता था । लेकिन उन्हें एक ताकतवर सरकार बनाने या गिराने वाली ताकत नहीं माना जाता था। लेकिन एक नौकरशाह से राजनेता बने कांशीराम ने दलितों में इस भाव का अहसास कराया कि वह अपनी ताकत से सरकार बना और गिरा सकते हैं। आज इसी बात पर विचार करते हैं कि वह कौन सी बातें थीं जिन्होंने कांशीराम को दलित राजनीति का चेहरा बना दिया।

यहां एक बात गौर करने की है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती (Mayawati) मीडिया को खास अहमियत क्यों नहीं देती हैं। क्यों मीडिया बहुजन मूवमेंट पर उस तरह खबरें नहीं लिख पाता जिस तरह से अन्य पार्टियों पर लिखता है। अगर इसके मूल में जाएं तो देखेंगे कि इसके मूल में कांशीराम की सोच है जिन्होंने अपने राजनीति के शुरुआती दिनों में शिद्दत के साथ यह महसूस किया था कि देश का पूरा मीडिया ब्राह्मणों और बनियों के हाथ में है। इसलिए उन जैसे लोगों के लिए मीडिया में कोई जगह नहीं है। शायद इसकी मूल वजह उनके आंदोलन को शुरुआत में मीडिया द्वारा उपेक्षित किया जाना रहा। डा. भीमराव अम्बेडकर के बाद वह कांशीराम ही थे जिनके नेतृत्व में बहुजन आंदोलन उत्तर भारत में फैला। इसीलिए बहुजन को संगठित करने के शुरुआती चरण में जब वह देश भर में घूम रहे थे तो उनके निशाने पर मीडिया प्रमुखता से रहता था।

कांशीराम की यह सोच थी कि दैनिक समाचार पत्र रोज छपते हैं, उसमें छपने वाले समाचारों को पढ़कर हमारे दृष्टिकोण में अंतर आता है। उनका कहना था कि इस सचाई को देश के शासक वर्ग ने शुरुआत में ही समझ लिया था और धीरे धीरे वह इसके सर्वे सर्वा बनते चले गए। इसके चलते दलित जातियों के सामने बहुत सी कठिनाइयां खड़ी होती चली गईं। उनका मानना था कि इस प्रवृत्ति को खत्म करने के लिए मीडिया का नियंत्रण खत्म करना होगा।

कांशीराम (फोटो : सोशल मीडिया ) 

कांशी राम की तुलना अम्बेडकर से क्यों (kanshiram ki tulna Ambedkar se)

यह सही है कि कांशीराम और अम्बेडकर की कोई तुलना नहीं हो सकती। लेकिन अम्बेडकर ने अगर दलित चेतना का जागरण करने का ब्लू प्रिंट संविधान (blue print constitution) में पेश किया था तब उसे सामाजिक धरातल पर उतारने का काम कांशीराम ने ही किया। यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है कि अम्बेडकर के सामने ऐसी कौन सी मजबूरियां थीं, जिसके चलते वह अपनी सोच को जनमानस में नहीं उतार पाए। लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि कांशीराम ने इसे सामाजिक धरातल पर उतरा। इसलिए भारतीय राजनीति और समाज में बड़ा परिवर्तन लाने में कांशीराम की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।

कांशीराम (फोटो : सोशल मीडिया ) 

कांशीराम की जीवनी ( kanshiram ki jeevani)

निसंदेह कांशीराम अपने स्वयं के निर्माता खुद थे। पंजाब के दलित परिवार में जन्म लेने के बाद बीएससी किया। क्लास वन अधिकारी बने। लेकिन उनकी सोच में शुरुआत से ही अपने समाज का हित साधन रहा। उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी दलितों से जुड़े सवालों को उठाया। अंबेडकर जयंती के दिन अवकाश घोषित किये जाने की मांग भी उठाई। दरअसल वह देख रहे थे कि तत्कालीन शासक वर्ग किस तरह से दलितों को भरमा कर लगातार राज कर रहा है।दलितों को उनका हक देने से पीछे हट जा रहा है या आनाकानी कर रहा है।

कांशीराम ने भारतीय राजनीति को बहुत गहराई से समझा । उन्होंने देखा कि अम्बेडकर किताबी ज्ञान देने के अलावा कुछ नहीं कर पाए ।उनके बाद बाबू जगजीवनराम की निष्ठा से भी दलितों का जरूरत भर भला नहीं हुआ। इसीलिए वह अक्सर कहा करते थे, "अम्बेडकर ने किताबें इकट्ठा कीं। मै लोगों को इकट्ठा करता हूं।"?कांशीराम की इसी ताकत पर बाबा नागार्जुन ने कहा था कि दलितेंद्र कांशीराम भाषण देते धुरझार सब रहते हैं दंग, बज रहे दलितों के मृदंग।

15 मार्च, 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के पिरथीपुर बंगा गांव में जन्मे कांशीराम 1980 के दशक के आते आते भारतीय राजनीति के उस्ताद या मास्टर बन चुके थे। शायद आज की पीढ़ी के तमाम लोगों को पता नहीं हो कि कांशीराम के घर को पंजाब के लोग चन साहिब कह कर पुकारते हैं। चन का अर्थ घर होता है। जिसे एक मंदिर की उपाधि मिली हुई है। साहिब कांशीराम के लिए एक उपाधि के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है।

इससे पहले या यों कहें सबसे पहले कांशीराम ने सर्वे आफ इंडिया में नौकरी की। लेकिन वहां बांड साइन करना था जिसे कांशीराम ने मंजूर नहीं किया। इसके बाद एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट की लेबोरेटरी में रिसर्च असिस्टेंट रहे। पूना जिसे अब पुणे कहा जाता है यहां नौकरी करते हुए वह अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले की लेखन से प्रभावित हुए।यहीं उनके भीतर जागरण के नवांकुर के बीजारोपण की शुरुआत थी।

बीस साल लगे उन्हें कांशीराम को परिपक्वता हासिल करने में । महाराष्ट्र में खांचों में बंटे दलित आंदोलन ने भी उन्हें व्यथित किया। अंत में उन्होंने एक कड़ा फैसला लिया और 24 पन्ने का एक पत्र लिखा। यह पत्र उन्होंने अपने घर वालों को भेजा। यह पत्र नहीं शपथ नाम था। कांशीराम दलित समाज के लिए अपना जीवन होम करने की भीष्म प्रतिज्ञा ले चुके थे, जिसे उन्होंने अंतिम समय तक निभाया। इसी प्रतिज्ञा के चलते वह अपने पिता के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हुए।

कांशीराम (फोटो : सोशल मीडिया ) 

क्या था इस पत्र में 

इस पत्र में कांशीराम ने लिखा था। अब कभी घर नहीं आऊंगा। कभी अपना घर नहीं खरीदूंगा। गरीबों दलितों का घर ही मेरा घर होगा। सभी रिश्तेदारों से मुक्त रहूंगा। किसी के शादी, जन्मदिन, अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होऊंगा। कोई नौकरी नहीं करूंगा । जब तक बाबा साहेब अंबेडकर का सपना पूरा नहीं हो जाता चैन से नहीं बैठूंगा।

बाबा तेरा मिशन अधूरा कांशीराम करेंगे पूरा

इसके बाद 1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति या डीएस 4 बनायी। परंपरागत विचारधारा के दलगत राजनीति से जुड़े दलित नेता उनके निशाने पर आए। लेकिन 1983 में उन्होंने तीन लाख लोगों की रैली निकालकर अपनी ताकत दिखायी। 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना (bahujan samaj part ki sthapna) की। जिसने उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक अलग छाप छोड़ी। कांशीराम मायावती के गुरू या मार्गदर्शक रहे। 2003 तक वह सक्रिय रहे। 1987 में स्टेट गेस्ट हाउस में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने काफी कटु शब्दों में मुझसे कहा था आप लोग सामंतवादी सोच से हमें रोक नहीं पाएंगे। बहुत जल्द हम आ रहे हैं। हमें पता चल गया है हक गिड़गिड़ाने से नहीं मिलेगा इसके लिए लड़ना पड़ेगा। 9 अक्टूबर, 2006 को दलित राजनीति का यह सूर्य अमर हो गया। लेकिन दलितों को जगा गया।

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