Veer Savarkar Death Anniversary: नेताजी सुभाष बोस को आईएनए की प्रेरणा दी थी वीर सावरकर ने

Veer Savarkar Death Anniversary: वीर सावरकर ही नेताजी सुभाष बोस के प्रेरणास्रोत थे और उन्होंने ही इंडियन नेशनल आर्मी स्थापित करने का विचार आगे बढ़ाया था।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Shreya
Update:2022-02-26 12:33 IST

नेताजी सुभाष बोस-वीर सावरकर (फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

Veer Savarkar Death Anniversary: भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) और विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) के बीच भी ख़ास रिश्ता रहा है। दरअसल, वीर सावरकर ही नेताजी सुभाष बोस के प्रेरणास्रोत थे और उन्होंने ही इंडियन नेशनल आर्मी (Indian National Army- INA) स्थापित करने का विचार आगे बढ़ाया था। 

23 जनवरी 1897 को कटक में पैदा हुए सुभाष चन्द्र बोस ने 1920 के दशक की शुरुआत में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था, जबकि सावरकर 20वीं सदी के पहले दशक में स्वतंत्रता आंदोलन (Swatantrata Andolan) में शामिल हुए थे। ये दोनों बाद में भारत की आजादी के लिए काम करने के लिए साथ आए। 22 जून, 1940 को मुम्बई में सावरकर के निवास स्थान पर बोस और सावरकर के बीच एक लम्बी बैठक हुई थी। 

वीर सावरकर ने सुभाष चंद्र बोस को दी थी यह सलाह 

सावरकर के निजी सचिव बलाराव सावरकर (Balarao Savarkar) ने 2 जून 1954 को एक पत्र में उस बैठक का खुलासा करते हुए बताया था कि ये एक निजी और व्यक्तिगत बैठक थी, जिसमें सावरकर ने सुभाष बोस से कहा था कि वह भारत छोड़ कर जर्मनी जाएं और वहां जर्मनी से मदद लेने के बाद जापान जाएं और वहां रास बिहारी से हाथ मिलाएं। इस बिंदु पर जोर देने के लिए सावरकर ने सुभाष बोस को रास बिहारी बोस का पत्र दिखाया जो जापानी युद्ध की घोषणा की पूर्व संध्या पर लिखा गया था। इस बैठक के लगभग छह महीने बाद बोस ने ठीक वही रास्ता अपनाया। जनवरी 1941 में वह कोलकाता में एल्गिन रोड पर अपने घर से गायब हो गए और अंततः जापान में रास बिहारी बोस के गुट में शामिल हो गए। 

'ए कोनेस्टेड लिगेसी' किताब में विक्रम संपत सावरकर ने लिखा है कि रास बिहारी बोस ने 28-30 मार्च 1942 को टोक्यो सम्मेलन (Tokyo Conference) आयोजित किया जिसमें भारतीय अधिकारियों की सीधी कमान के तहत इंडियन नेशनल आर्मी बनाने का संकल्प लिया गया था।

सुभाष चंद्र बोस के कलकत्ता से भागने के बाद, सावरकर ने एक बयान जारी किया था कि - एक राष्ट्र की कृतज्ञता, सहानुभूति और शुभकामनाएं उनके लिए कभी न खत्म होने वाली सांत्वना और प्रेरणा का स्रोत हों। वह जहां कहीं भी होंगे, मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ, यहां तक कि स्वास्थ्य और जीवन के लिए भी योगदान देंगे।

आईएनए के युद्धबंदी

बहरहाल, द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) में जापान की हार के कारण आईएनए का अभियान बंद हो गया और लगभग 2,50,000 भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों द्वारा युद्ध बंदी बना लिया गया। इस मुद्दे पर जहां ज्यादातर कांग्रेस नेताओं ने चुप्पी साध ली, वहीं सावरकर इन जवानों के बचाव में खुलकर सामने आए। उन्होंने 1 दिसंबर 1945 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली (Clement Attlee) को एक तार भेजा जिसमें लिखा था कि "युद्ध बंदियों के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के सामान्य नियमों और जनता में व्याप्त बहुत गहरे असंतोष को देखते हुए मैं विनती करता हूं कि उन युद्धबंदियों को सामान्य माफी की घोषणा करके रिहा किया जाना चाहिए।

इससे पहले सुभाष बोस ने 25 जून 1944 को सिंगापुर से एक रेडियो प्रसारण में सावरकर के बारे में बात की थी, जहां उन्होंने कहा था - जब गुमराह राजनीतिक सनक और दूरदर्शिता के कारण कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी नेता भारतीय सेना के सभी सैनिकों को भाड़े के सैनिकों के रूप में निंदा कर रहे हैं। यह जानकर खुशी हो रही है कि वीर सावरकर निडर होकर भारत के युवाओं को सशस्त्र बलों में भर्ती होने का आह्वान कर रहे हैं। ये सूचीबद्ध युवा स्वयं हमें प्रशिक्षित पुरुष प्रदान करते हैं जिनसे हम अपनी भारतीय राष्ट्रीय सेना के सैनिकों को आकर्षित करते हैं।

वीर सावरकर (फाइल फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

सावरकर की पुस्तक से बोस ने ली थी प्रेरणा

'माई पॉलिटिकल मेमॉयर्स या ऑटोबायोग्राफी' पुस्तक में प्रख्यात कांग्रेसी नेता एनबी खरे ने आईएनए के बारे में लिखा है कि - इस अभियान में सुभाष बोस ने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सावरकर की पुस्तक से प्रेरणा ली थी। अपने एक भाषण में, सुभाष बोस ने स्वतंत्र रूप से इसे स्वीकार किया है। उन्होंने इस पुस्तक की प्रतियां सभी सैन्य कर्मियों के बीच स्वतंत्र रूप से वितरित कीं थीं। उन्होंने अपनी एक रेजिमेंट का नाम झांसी रेजिमेंट की रानी रखा और उन्होंने मेरठ में भारतीय सैनिकों से चलो दिल्ली का नारा लिया, जो 10 मई 1857 को वहां से दिल्ली की ओर बढ़े थे।

रास बिहारी बोस ने भी एक रेडियो संबोधन में सावरकर की बहुत प्रशंसा की थी और कहा था - आपको नमन करते हुए मैं स्वयं बलिदान के प्रतीक को प्रणाम कर रहा हूं। स्पष्ट है कि नेताजी और सावरकर ने घनिष्ठ समन्वय में काम किया और सावरकर, नेता जी, रास बिहारी बोस और आईएनए के बीच संबंध न केवल स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष के सबसे गौरवशाली अध्यायों में से एक थे, बल्कि उन्होंने मिलकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

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