कैफी को गूगल का सलाम, आज अपना 'डूडल' किया शायर के नाम
सैय्यद अख्तर हुसैन रिजवी उर्फ़ कैफ़ी आजमी एक उर्दू-हिंदी शायर और लाखों दिलों की धड़कन है। उनके शब्द आज भी लोगों के दिलोंदिमाग में गूंजते हैं। उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई प्रसिद्ध गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत -"कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों" भी शामिल है।
मुंबई: सैय्यद अख्तर हुसैन रिजवी उर्फ़ कैफ़ी आजमी एक उर्दू-हिंदी शायर और लाखों दिलों की धड़कन है। उनके शब्द आज भी लोगों के दिलोंदिमाग में गूंजते हैं। उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई प्रसिद्ध गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत -"कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों" भी शामिल है। बेहतरीन कवि, गीतकार और कार्यकर्ता कैफी आजमी की आज 101वीं जयंती है। गूगल ने डूडल से देश के प्रसिद्ध कवि और गीतकार कैफी आजमी की 101वीं जयंती मना रहा है। गूगल ने अपना डूडल कैफी आजमी के नाम कर याद किया है। दरअसल, गूगल अक्सर समाज में अपना योगदान देने वाले लोगों को अपने डडूल के जरिए याद करता है और उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर डूडल बनाता है।
यह पढ़ें...दीपिका को करारा झटका: कमाई पर पड़ेगा बुरा असर
हिंदी फिल्म जगत के मशहूर शायर और गीतकार कैफी आजमी की शेरो-शायरी की प्रतिभा बचपन के दिनो से ही दिखाई देने लगी थी। प्रेम की कविताओं से लेकर बॉलीवुड गीतों और पटकथाएं लिखने में माहिर कैफी आजमी 20वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में 14 जनवरी 1919 को जन्मे सैयद अतहर हुसैन रिजवी उर्फ कैफी आजमी ने अपनी पहली कविता महज 11 साल की उम्र में लिख दी थी। कैफी आजमी उस वक्त 1942 में हुए महात्मा गांधी के भारत छोड़ा आंदोलन से प्रेरित थे और बाद में उर्दू अखबार में लिखने के लिए वह मुंबई चले गए।
कैफी आजमी को फिल्म इंडस्ट्री में उर्दू साहित्य को बढ़ावा देने के लिए भी जाना जाता है। पाकीज़ा के साउंडट्रैक चलते चलते, फिल्म अर्थ से कोइ ये कैसी बताए, ये दुनिया ये महफिल और उनकी अपनी कविता औरत जैसी प्रसिद्ध रचनाएं उर्दू भाषा और हिंदी भाषा में उल्लेखनीय योगदान के रूप में याद की जाती हैं।
उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में 14 जनवरी 1919 को जन्मे सैयद अतहर हुसैन रिजवी उर्फ कैफी आजमी के पिता जमींदार थे। पिता हुसैन उन्हें ऊंची से ऊंची तालीम देना चाहते थे और इसी उद्वेश्य से उन्होंने उनका दाखिला लखनउ के प्रसिद्ध सेमिनरी सुल्तान उल मदारिस में कराया था। कैफी आजमी के अंदर का शायर बचपन से जिंदा था। महज 11 वर्ष की उम्र से हीं कैफी आजमी ने मुशायरों मे हिस्सा लेना शुरू कर दिया था जहां उन्हें काफी दाद भी मिला करती थी।
यह पढ़ें... रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बना रही तानाजी, वहीं छपाक का रहा ये हाल
साल वर्ष 1942 मे कैफी आजमी उर्दू और फारसी की उच्च शिक्षा के लिये लखनउ और इलाहाबाद भेजे गये लेकिन कैफी ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की सदस्यता ग्रहण करके पार्टी कार्यकर्ता के रूप मे कार्य करना शुरू कर दिया और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गये। कैफी आजमी बाद में को कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उन्हें 3 फिल्मफेयर अवार्ड, साहित्य और शिक्षा के लिए प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार भी मिल चुका है।