गीतकार शैलेंद्र ने इस पूर्व पीएम के लिए लिखा था ‘तुम्हारी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब’

साल 1923 में 30 अगस्त को शंकरदास केसरीलाल के रूप में जन्मे शैलेंद्र ने अपने समय के सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक होने और बॉलीवुड का सबसे महंगा गीतकार बनने से पहले जिंदगी में काफी संघर्ष किया।

Update:2019-08-30 20:03 IST

लखनऊ: साल 1923 में 30 अगस्त को शंकरदास केसरीलाल के रूप में जन्मे शैलेंद्र ने अपने समय के सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक होने और बॉलीवुड का सबसे महंगा गीतकार बनने से पहले जिंदगी में काफी संघर्ष किया।

1950 के शुरुआती दिनों में वह मुंबई के रेलवे यार्ड में एक वेल्डर के तौर पर काम करते थे। कहा जाता है कि शर्मीले स्वभाव के शांत रहने वाले शैलेंद्र चिंगारियों से जला छींटदार शर्ट पहनकर इंडियन पिपुल्स थियेटर एसोसिएशन के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया करते थे।

हालांकि ये शोले कभी भी उनकी काव्य महत्वाकांक्षाओं और जुनून को झुलसा नहीं सके। गीतकारों की कई पीढ़ियों को प्रेरित करने वाले शैलेंद्र ने जो गीत लिखे वे आज भी लोगों की दिलोदिमाग में ताजा हैं।

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सादगी और ईमानदारी

शैलेंद्र ने अपनी एक खास लेखन शैली का प्रदर्शन किया। उन्होंने जटिल भावनाओं और ख्यालों को सरल शब्दों में व्यक्त किया। लेकिन उन्होंने जो भी लिखा, वह कविता पर गहरा असर छोड़ने वाले वाले 15 वीं सदी के भक्ति आंदोलन के कवि संत कबीर के दोहों और 16 वीं सदी की भक्ति कवि मीरा बाई की कविता से अलग नहीं था।

फिल्मों के लिए भी उन्होंने गहरे दार्शनिक गीत लिखे जो आज भी लोकप्रिय हैं। फिल्म तीसरी कसम (1966) के गाना ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ में वह एक आदर्शवादी की तरह बात करते हैं, जो भौतिक शौक और दौलत पर सच्चाई, करुणा, उदारता और अच्छे कर्मों को तरजीह देता है और तुच्छता से बचने के लिए जीवन मूल्यों के साथ खड़े रहने के लिए कहता है।

बुनियादी सवाल उठाता गाइड मूवी का ये गाना

गाइड (1965) फिल्म का ‘मुसाफिर जाएगा कहां; एक और दार्शनिक गीत है जो ऐसे बुनियादी सवाल उठाता है, जिनका सामना हर किसी को अपनी जिंदगी में आज न कल करना पड़ता है।

इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कि यह दुनिया एक मृगतृष्णा है, वह उन विचारों को रेखांकित करते हैं जो हर ईमानदार आदमी के जहन में उठते हैं: "आपने दूसरों को राह दिखाई, आप कैसे अपनी मंजिल भूल सकते हैं, दूसरों की समस्याओं को सुलझाने वाले आप कैसे कमजोर धागों में उलझ गए, क्यों सपेरा अपनी ही धुन पर झूम रहा है।”

बंदिनी के गाने आज भी बने हुए है लोकप्रिय

बंदिनी (1963) का ‘ओ मेरे मांझी’ में विशेष साहित्यिक और दार्शनिक गहराई है और आज भी यह गीत सभी पीढ़ियों में एक समान लोकप्रिय है।

फिल्म सीमा (1955) के गीत ‘तू प्यार का सागर है’ में शैलेंद्र एक लंबे समय से बिछड़े प्रेमी से जीवन और मृत्यु की दो सीमाओं के बीच प्यार करने की एक जख्मी दिल की असीम ख्वाहिशों के बारे में बात करते हैं।

राज कपूर और उनके अनोखे नृत्य ने सदाबहार गीत ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’ को अमर कर दिया। इस गाने में शैलेन्द्र कहते हैं, ‘दूसरों के साथ मुस्कुराने के लिए अपनी मुस्कुराहटों का बलिदान देना, किसी का दुख और किसी की परेशानी बांटना और किसी के लिए अपने दिल में प्यार पैदा करना ही तो जिंदगी है।’

एक दार्शनिक की तरह प्यार में बर्बाद हो जाने के लिए कहते हुए वह आगे जोड़ते हैं, ‘अगर मर जाने के बाद हमें कोई याद करता है, हम किसी के आंसुओं में मुस्कुराते हैं, यही जिंदगी है।

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हमेशा जमीन पर बैठकर खाना खाते थे शैलेंद्र

हमारे घर आए दिन राजकपूर, शंकर जयकिशन जैसे बड़े-बड़े लोग आते थे. ऐसी कोई चीज नहीं थी जो दूसरों के पास हो और हमारे पास ना हो। लेकिन बाबा हमेशा जमीन पर बैठकर खाना खाते थे।

हम सब भाई बहन उनके साथ बैठते थे और वो सबको एक-एक कौर खिलाते थे। हमारा बहुत मन होता था कि दूसरों की तरह हम भी डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाएं।

लेकिन बाबा खुद भी जमीन से जुडे़ रहे और हमें भी यही सिखाया।बाबा के बारे में एक गलतफहमी सबको है कि फिल्म तीसरी कसम फ्लॉप होने के बाद माली हालत खराब होने से वो टूट गए। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। बाबा ने यह फिल्म बनाई थी और इसमें उनका काफी पैसा भी लगा था।

फिल्म फ्लॉप होने के बाद बाबा टूट भी गए थे। लेकिन इसकी वजह पैसा डूबना नहीं बल्कि धोखा था. तीसरी कसम में पैसा डूबने के बाद दोस्तों, रिश्तेदारों का जो रवैया था वह ज्यादा टीस देने वाला था।

बाबा का दुख अगर सिर्फ पैसे का होता तो उतने पैसे वो चार पांच महीने में कमा लेते। फिल्म उस समय भले ही कमाई न कर पाई हो लेकिन 1966 की वह सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी। 1966 में उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।

 

इस झटके के बाद खुद को घर बंद कर लिया था

इस झटके के बाद बाबा घर में ही रहने लगे। किसी से मिलते नहीं थे. उसी दौरान नवकेतन फिल्म्स की ज्वेलथीफ बन रही थी। इस फिल्म में एस डी बर्मन का संगीत था।

एस डी बर्मन चाहते थे कि इस फिल्म के लिए बाबा गीत लिखें. बर्मन अंकल लगातार घर आते रहे, बाबा उनसे मिलते नहीं। बाबा कमरे में रहते थे और हम कह देते कि बाबा घर पर नहीं हैं। उन्होंने अपनी कार गैराज में बंद कर दी थी ताकि सबको लगे वो कहीं बाहर गए हैं।

वर्मन अंकल के बार-बार आने की वजह से एक दिन बाबा उनसे मिले. बाबा ने कहा मैं अभी काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा हूं, इसलिए मैं सिर्फ एक गीत लिखूंगा। बाकी गीत मजरूह सुल्तानपुरी से लिखवा लें।

बर्मन अंकल ने उनकी बात मान ली। इस फिल्म में बाबा ने लिखा, 'रुला के गया सपना मेरा.' फिल्म रिलीज हुई 1967 में पर बाबा 1966 में ही दुनिया को अलविदा कह चुके थे।

भावनात्मक झटका

शैलेंद्र ने राज कपूर की आग्रह पर फिल्म उद्योग में प्रवेश किया था, जब वह 500 रुपये का कर्ज वापस करने उनके पास गए थे। उन्होंने लगभग 20 वर्षों के अपने कैरियर में सैकड़ों यादगार गीत दिए।

इसके अलावा उन्होंने फिल्म तीसरी कसम भी बनाई जिसे समीक्षकों ने काफी पसंद किया। इस फिल्म को वह कभी भी एक ठेठ बम्बईया फिल्म के रुप में नहीं बनाना चाहते थे।

जैसा कि बहुत से लोगों ने संभावना जताई थी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल हो गई। सारी जिंदगी अपने गीतों में प्यार और खुशी की बात करने और ‘गाता रहे मेरा दिल’ की दुआ करने वाले शैलेंद्र ने 43 वर्ष की उम्र में धोखा खा कर और भावनात्मक रूप से टूट कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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पंडित नेहरु के लिए लिखी थी ये कविता

तुम्हारी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब

महामानव

मेरे देश की धरती पर

तुम लम्बे और मज़बूत डग भरते हुए आए

और अचानक चले भी गए !

लगभग एक सदी पलक मारते गुज़र गई

जिधर से भी तुम गुज़रे

अपनी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब खिला गए,

जिनकी भीनी सुगन्ध

हमेशा के लिए वातावरण में बिखर गई है !

तुम्हारी मुस्कान के ये अनगिनत फूल

कभी नहीं मुरझाएँगे !

कभी नहीं सूखेंगे !

जिधर से भी तुम गुज़रे

अपने दोनों हाथों से लुटाते चले गए

वह प्यार,

जो प्यार से अधिक पवित्र है !

वह ममता,

जो माँ की ममता से अधिक आर्द्र है !

वह सहानुभूति,

जो तमाम समुद्रों की गहराइयों से अधिक गहरी है !

वह समझ,

जिसने बुद्धि को अन्तरिक्ष पार करने वाली

नई सीमाएँ दी हैं !

अच्छाई और बुराई से बहुत ऊपर

तुम्हारे हृदय ने पात्र-कुपात्र नहीं देखा

पर इतना कुछ दिया है इस दुनिया को

कि सदियाँ बीत जाएँगी

इसका हिसाब लगाने में !

इसका लेखा-जोखा करने में !

तुमने अपने आपको साधारण इनसान से

ऊपर या अधिक कभी नहीं माना ।

पर यह किसे नहीं मालूम

कि तुम्हारे सामने

देवताओं की महानता भी शरमाती है !

और अत्यन्त आदर से सर झुकाती है !

आनेवाली पीढ़ियाँ

जब गर्व से दोहराएँगी कि हम इनसान हैं

तो उन्हें उँगलियों पर गिने जाने वाले

वे थोड़े से नाम याद आएँगे

जिनमें तुम्हारा नाम बोलते हुए अक्षरों में

लिखा हुआ है !

पूज्य पिता,

सहृदय भाई,

विश्वस्त साथी, प्यारे जवाहर,

तुम उनमें से हो

जिनकी बदौलत

इनसानियत अब तक साँस ले रही है !

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