नई दिल्ली: भारत में साढ़े सात फीसदी लोग किसी न किसी मानसिक बीमारी से पीडि़त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि वर्ष २०२० तक भारत की २० फीसदी जनसंख्या मानसिक बीमारियों का शिकार होगी। ये स्थिति भयावह है लेकिन उससे भी ज्यादा परेशानी की बात ये है कि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के चिकित्सकों की संख्या चार हजार से भी कम है।
जहां तक शारीरिक स्वास्थ्य की बात है तो आजकल लोग फिटनेस के बारे में काफी सतर्क और जागरूक हो गये हैं। क्या खाना है क्या नहीं खाना है, क्या व्यायाम करना है, लेटेस्ट डायट ट्रेंड क्या चल रहा है, कौन सा फिटनेस बैंड सबसे बढिय़ा है, ये सब जानकारी लोगों को रहती है। लेकिन जब मानसिक हेल्थ की बात आती है तो जागरूकता का लेवल करीब करीब शून्य हो जाता है। बहुत से लोगों को न तो खुद पता है कि उन्हें कोई मानसिक परेशानी है और न उनके परिवारीजनों को।
सोशल मीडिया की सनक बना रही बीमार
सोशल मीडिया पर छाए रहने की सनक युवाओं को मनोरोगी बना रही है। फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप ही नहीं टिकटॉक, लाइक जैसे वीडियो एप भी युवाओं के दिलोदिगाम पर हावी हो चुके हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि सोशल मीडिया पर दो घंटे से ज्यादा बिताना मनोरोग का संकेत है।
वेब सीरीज, गेमिंग और स्मार्टफोन से लोकप्रियता और पैसा कमाने का चस्का बीमार बना रहा है। नतीजतन युवा अवसाद, कुंठा और भूलने जैसी बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं। एम्स के सर्वे में इसकी पुष्टि हुई है। दिल्ली के स्कूलों में पढऩे वाले 20 फीसदी बच्चे और युवा मनोरोगों के शिकार हैं। इनमें ज्यादातर 14 से 24 साल के लोग हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि सोशल मीडिया पोस्ट पर लाइक, कमेंट, व्यू न आने से यूजर्स में नकारे जाने का भाव पैदा होता है। इससे भावनात्मक बोझ बढ़ता है।
अंधविश्वास पर ज्यादा भरोसा
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता के लिए चल रहे कार्यक्रमों के बावजूद लगभग हर दूसरे व्यक्ति को अंधविश्वास पर भरोसा है। एक सर्वे के मुताबिक 44 फीसदी मानसिक रोगी इलाज की जगह तांत्रिक, बाबा और नीम-हकीम का सहारा ले रहे हैं जबकि 26 फीसदी ऐसे हैं जिन्हें चिकित्सकीय सुविधा नहीं मिलती।
विश्व मानसिक स्वास्थ्य कासमोस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंसेस के एक स्टडी के अनुसार 49 फीसदी मरीजों को उनके घर के 20 किलोमीटर के दायरे में स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाती हैं। 48 फीसदी ने माना कि परिजन या दोस्त नशे के आदी हैं लेकिन आसपास नशा मुक्ति केंद्र नहीं है। मानसिक रोगों को लेकर लोग बाबा और तांत्रिकों के पास इलाज के लिए चक्कर लगाते रहते हैं। इसकी वजह समाज में गलत धारणाएं, जागरूकता का अभाव व स्वास्थ्य सुविधाओं का सुलभ नहीं होना है।
अध्ययन में करीब 87 फीसदी ने मोबाइल, एप्लीकेशन या फिर टेली मेडिसिन सुविधा के जरिए मानसिक रोगों के उपचार की मांग की है। डॉक्टरों के अनुसार, ऑनलाइन परामर्श से बेहतर परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
आत्महत्याओं पर चिंता
इस साल डब्ल्यूएचओ ने विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर मानसिक स्वास्थ्य प्रोत्साहन और आत्महत्या रोकथाम को थीम बनाया है। हर साल दुनिया में आठ लाख लोग खुदकुशी करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 21वीं सदी में जीवनशैली में आ रहे बदलाव बड़ा कारण हैं।
यूपी के 20 लाख युवा डिप्रेशन के शिकार
उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में युवा हताशा की प्रवृत्ति का शिकार हो रहे हैं। यह हताशा उन्हें नशे की लत में धकेलने से लेकर जिंदगी से मोहभंग तक खींच ले जा रही है। उत्तर प्रदेश स्टेट मेंटल हेल्थ सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदेश के 20 लाख से ज्यादा कामकाजी युवाओं में जिंदगी जीने का हौसला घट गया है। यह संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि प्रदेश के 1.95 करोड़ लोग किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारी का शिकार हैं। इस संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है। यह समस्या शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में बढ़ रही है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में कुछ अधिक है। युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी, किसी न किसी तरह के नशे की प्रवृति के चलते डिप्रेशन के साथ ही मूड डिसआर्डर जैसी गम्भीर बीमारियां बढ़ा रही हैं।