15 अगस्त स्पेशल : वीर क्रांतिकारियों ने जेल में ही रच दिया था इस जोशीले गीत को

जिस गीत से अधिकतर लोग परिचित हैं वह गीत 1965 की हिंदी फिल्म ‘शहीद’ का गीत है जिसे गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन ने लिखा था। फिल्म बनाने से पहले मनोज कुमार अपने पूरे दल को लेकर भगत सिंह के गांव में उनकी माँ को मिलने गये थे। इस फिल्म के गीत-संगीतकार प्रेम धवन भी इस दल के सदस्य के रूप में साथ गए थे।

Update:2019-08-11 20:15 IST

लखनऊ: ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर देने वाले, देश के वीर क्रांतिकारीयों ने अपनी देशभक्ति और जज्बे को और तेज धार देने के लिए साथ ही देशवासियों को भी भक्ति में रंगने के लिए कई जोशीले गीतों को लिखा और रचा है। इसी तरह का एक देशभक्ति ओत-प्रोत गीत है ‘रंग दे बसंती चोला’ जिसकी रचना हमारे क्रांतिकारियों ने जेल में ही कर डाली जो कि बहुत ही लोकप्रिय देश-भक्ति गीत है।

 

यह गीत किसने लिखा यह जानने के लिए बहुत से लोगों की जिज्ञासा है और वे समय-समय पर यह प्रश्न पूछते रहते हैं

इसका उत्तर जानने के लिए हमें इसका इतिहास खंगालना होगा। इस गीत के दो संस्करण है। जिस गीत से अधिकतर लोग परिचित हैं वह गीत 1965 की हिंदी फिल्म ‘शहीद’ का गीत है जिसे गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन ने लिखा था। फिल्म बनाने से पहले मनोज कुमार अपने पूरे दल को लेकर भगत सिंह के गांव में उनकी माँ को मिलने गये थे। इस फिल्म के गीत-संगीतकार प्रेम धवन भी इस दल के सदस्य के रूप में साथ गए थे।

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प्रेम धवन ने शहीद भगत सिंह की मां से मिलने के यह गीत लिखा

प्रेम धवन ने शहीद भगत सिंह की मां से मिलने के पश्चात उस घटना से प्रेरित होकर ही ‘रंग दे बसंती चोला’ गीत लिखा था। इस गीत को बोल दिये थे – मुकेश, महेंद्र कपूर और राजेन्द्र मेहता ने।

प्रेम धवन का लिखा यह गीत इस प्रकार है:-

 

“मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे

मेरा रंग दे बसंती चोला

दम निकले इस देश की खातिर बस इतना अरमान है

एक बार इस राह में मरना सौ जन्मों के समान है

देख के वीरों की क़ुरबानी अपना दिल भी बोला

मेरा रंग दे बसंती चोला …

जिस चोले को पहन शिवाजी खेले अपनी जान पे

जिसे पहन झाँसी की रानी मिट गई अपनी आन पे

आज उसी को पहन के निकला हम मस्तों का टोला

मेरा रंग दे बसंती चोला … ”

 

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एक क्रांतिकारी साथी ने बिस्मिल से ‘बसंत’ पर कुछ लिखने को कहा और बिस्मिल ने इस रचना को जन्म दिया

रंग दे बसन्ती चोला

“मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में गांधी जी ने, नमक पर धावा बोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में वीर शिवा ने, माँ का बन्धन खोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में पेशावर में, पठानों ने सीना खोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में बिस्मिल अशफाक ने सरकारी खजाना खोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में वीर मदन ने गवर्नमेंट पर धावा बोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।”

साप्ताहिक अभ्युदय

 

उपरोक्त गीत, ‘भगत सिंह का अंतिम गान’ शीर्षक के रूप में ‘ साप्ताहिक अभ्युदय’ के 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था।

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यह गीत भगत सिंह को बहुत पसंद था

भगत सिंह ने अंतिम समय में यह गीत गाया कि नहीं? इसके साक्ष्य उपलब्ध नहीं किंतु निःसंदेह यह गीत भगत सिंह को पसंद था और वे जेल में किताबें पढ़ते-पढ़ते कई बार इस गीत को गाने लगते और आसपास के अन्य बंदी क्रांतिकारी भी इस गीत को गाते थे।

यह गीत क्रांतिकारियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय था। बाद में कुछ अन्य प्रकाशनों ने मूल गीत में कुछ और भी जोड़कर, इसे इस तरह भी प्रस्तुत किया है :

 

रंग दे बसन्ती चोला

मेरा रंग दे बसन्ती चोला माई रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में गांधी जी ने नमक पर धावा बोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में बीर सिवा ने माँ का बन्धन खोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में पेशावर में पठानों ने सीना खोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में बिस्मिल असफाक ने सरकारी खजाना खोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में वीर मदन ने गौरमेन्ट पर धावा बोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग को गुरू गोविन्द ने समझा परम अमोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।

इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला ।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।”

 

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ये सभी काकोरी-कांड के कारण कारागार में थे

नि:संदेह इस फिल्म के बाद यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ लेकिन इस गीत का इतिहास 1965 की इस फिल्म से कहीं पुराना है। इस गीत की तुकबंदी 1927 में मुख्य रूप से शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अश़फ़ाक उल्ला खाँ व उनके कई अन्य साथियों ने जेल में की थी। ये सभी काकोरी-कांड के कारण कारागार में थे।

बसंत का मौसम था। उसी समय एक क्रांतिकारी साथी ने बिस्मिल से ‘बसंत’ पर कुछ लिखने को कहा और बिस्मिल ने इस रचना को जन्म दिया। इसके संशोधन में अन्य साथियों ने भी साथ दिया। मूल रचना का जो रूप निम्नलिखित रचना के रूप में सामने आता है, वह 1927 में इन क्रांतिकारियों द्वारा रचा गया था ।

 

 

 

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