अब बैकफुट पर आए आन्दोलनकारी नेता, पहली बार हुआ ऐसा
सरकार के लिए भी अब सावधानी से आगे बढ़ने का समय है। सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठायेगी जो किसान विरोधी ध्वनि दे। कोई सख्त कार्रवाई आन्दोलन को और भड़का सकती है। अभी तक सरकार और किसान संगठनों के नेताओं के साथ 11 दौर की बात हो चुकी है।
नीलमणि लाल
लखनऊ। बीते दो महीनों से किसान यूनियनों ने काफी कोशिशें करके अपने आंदोलन को किसी तरह के बवाल से बचाए रखा था। तमाम आरोपों के बावजूद किसान यूनियन के लोग कमोबेश शांतिपूर्ण धरने पर ही रहे। लेकिन 26 जनवरी के दिन सब किये कराये पर पानी फिर गया। दिल्ली में जो उपद्रव हुआ उसके बाद अब यूनियन के नेता बैकफुट पर हैं और उनके साथ कोई भी खड़ा होता नजर नहीं आ रहा है। फिलहाल तो किसान संगठनों ने बजट वाले दिन संसद मार्च का अपना प्लान छोड़ने का ऐलान नहीं किया है लेकिन ये तय है अब कोई भी कदम बहुत सावधानीपूर्वक उठाया जाएगा।
आगामी बजट सत्र में किसान आन्दोलन और कृषि कानून
संसद के आगामी बजट सत्र में किसान आन्दोलन और कृषि कानूनों का मसला छाया रहेगा और उसमें सरकार किसान संगठनों के उपद्रवी स्वरूप को ही आगे रखेगी जिसकी काट अभी नजर नहीं आ रही है। इस तथ्य का भी किसी के पास कोई जवाब नहीं है कि किसान यूनियनें और यहाँ तक कि पंजाब की कांग्रेस सरकार ने भी किनारा कर लिया है और उपद्रव की भर्त्सना की है।
अब ये तर्क भी दिया जाएगा कि अगर सरकार से बातचीत में किसान नेता किसी समझौते पर पहुँच गए लेकिन आन्दोलनकारी समझौते को मानने से इनकार कर देते हैं तो क्या होगा? उस स्थिति में किसान नेता क्या करेंगे? 26 जनवरी की घटना से साफ़ हो गया है कि किसान नेताओं की अब कोई सुन नहीं रहा है। अब किसान संगठनों को किसी न किसी तरह ये संकेत देना जरूरी है कि आन्दोलन पर उनका कंट्रोल बना हुआ है। ये सिग्नल वो कैसे देते हैं अब देखने वाली बात होगी।
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सख्त कार्रवाई आन्दोलन को और भड़का सकती है
सरकार के लिए भी अब सावधानी से आगे बढ़ने का समय है। सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठायेगी जो किसान विरोधी ध्वनि दे। कोई सख्त कार्रवाई आन्दोलन को और भड़का सकती है। अभी तक सरकार और किसान संगठनों के नेताओं के साथ 11 दौर की बात हो चुकी है। किसानों की तरफ से 41 प्रतिनिधि वार्ता में शामिल होते आये हैं।
22 दिसंबर की बातचीत के बाद कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर ने कहा था कि कुछ ताकतें किसी भी कीमत पर आन्दोलन जारी रखना चाहतीं हैं। ऐसे में यह भी मुमकिन है कि सरकार बातचीत तो जरी रखे लेकिन कोई नया ऑफर नहीं दे। सरकार पहले ही कई प्रस्ताव दे चुकी है जिसमें कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक लंबित रखना शामिल है।
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बहरहाल, एक सम्भावना ए भी नजर आती है कि किसान संगठन दिल्ली की घेराबंदी सांकेतिक रूप से जारी रखें और देश भर में समन्वित रूप से आन्दोलन शुरू कर दें। इससे संगठनों की प्रतिष्ठा भी बाख जायेगी और आन्दोलन को एक व्यापक स्वरुप मिल जाएगा।
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