सांसों में जहर: देश के 10 शहरों में 7 फीसदी मौतें वायु प्रदूषण से

Air Pollution in India: एक बड़े शोध के बाद वैज्ञानिकों ने कहा है कि भारत में दिल्ली समेत तमाम बड़े शहरों की जहरीली हवा लोगों के फेफड़ों को बुरी तरह प्रभावित कर रही है।

Newstrack :  Network
Update:2024-07-09 13:23 IST

Air Pollution in India   (photo: social media )

Air Pollution in India: भारत में वायु प्रदूषण ने कहर इस कदर बरपाया है कि 10 बड़े शहरों में होने वालीं हर 100 में से 7 मौत के लिए जहरीली हवा जिम्मेदार है। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में दसियों हजारों लोगों की जानें बचाने के लिए फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है नहीं तो प्रदूषण ऐसे ही जाने लेना जारी रखेगा।

एक बड़े शोध के बाद वैज्ञानिकों ने कहा है कि भारत में दिल्ली समेत तमाम बड़े शहरों की जहरीली हवा लोगों के फेफड़ों को बुरी तरह प्रभावित कर रही है और आने वाले समय में स्वास्थ्य के लिए यह और बड़ा खतरा बन सकता है। कई भारतीय वैज्ञानिकों के साथ मिलकर किए गए इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अहमदाबाद, बेंगलुरू, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, मुंबई, पुणे, शिमला और वाराणसी में पीएम 2.5 माइक्रोपार्टिकल के स्तर का अध्ययन किया। इस सूक्षम पार्टिकल को कैंसर के लिए जिम्मेदार माना गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पीएम 2.5 पार्टिकल का प्रति घन मीटर 15 माइक्रोग्राम से ज्यादा का स्तर सेहत के लिए खतरनाक होता है लेकिन भारत में यह स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रखा गया है जो डब्ल्यूएचओ की सिफारिश से चार गुना ज्यादा है।

33 हजार मौतें

प्रतिष्ठित ‘’लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ’’ पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट कहती है कि 2008 से 2019 के बीच कम से कम 33 हजार लोगों की जान पीएम2.5 पार्टिकल के कारण गई। यह इस अवधि में इन दस शहरों में हुईं कुल मौतों का 7.2 फीसदी है। सबसे ज्यादा खतरनाक दिल्ली को बताया गया है, जहां सालाना लगभग 12 हजार यानी 11.5 फीसदी लोगों की जान वायु प्रदूषण के कारण हुई। दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। रिपोर्ट कहती है कि मुम्बई और चेन्नई जहां वायु प्रदूषण का स्तर उतना खतरनाक नहीं है वहां भी पीएम2.5 के कारण मौतों की संख्या बहुत ज्यादा थी। प्रदूषण के कारण इस अवधि में अहमदाबाद में 2,495, बेंगलुरू में 2,102, चेन्नई में 2,870, दिल्ली में 11,964, हैदराबाद में 1,597, कोलकाता में 4,678, मुंबई में 5,091, पुणे में 1,367, शिमला में 59 और वाराणसी में 831 लोगों की जान गई। रिपोर्ट कहती है कि पीएम2.5 के स्तर में दो दिन में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि से इन दस शहरों में मौतों की संख्या 1.42 फीसदी बढ़ गई। शोधकर्ताओं ने मॉडलिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हुए वायु प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों जैसे परिवहन, कूड़े को जलाना और डीजल जेनरेटर आदि को अलग कर दिया था। वे कहते हैं कि अगर इन स्रोतों को भी मिला लिया जाए तो रोजाना होने वाली मौतें 3.45 फीसदी बढ़ जाएंगी।


कड़े कदम उठाना जरूरी

वैज्ञानिकों का कहना है कि वायु प्रदूषण को कंट्रोल करने के लिए सरकार को अतिशीघ्र कड़े कदम उठाने चाहिए। इस शोध में शामिल हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जोएल श्वार्त्स का कहना है कि पीएम2.5 का स्तर कम करने और इसकी सीमा को घटाने से हर साल दसियों हजार लोगों की जान बचाई जा सकती है। प्रदूषण को काबू करने के तरीके भारत में आपातकालीन ढंग से लागू करने की जरूरत है।


बाकी देशों का हाल

अन्य देशों में हुए ऐसे ही अध्ययनों से करने पर पता चलता है कि भारत में मृत्यु दर बहुत अधिक है. चीन में 272 शहरों के अध्ययन के बाद पाया गया था कि वायु प्रदूषण के कारण 0.22 फीसदी मौतें ज्यादा हुईं जबकि पूर्वी एशिया के 11 शहरों में यह दर 0.38 फीसदी थी। हालांकि ग्रीस (2.54 फीसदी), जापान (1.42 फीसदी) और स्पेन (1.96 फीसदी) के मुकाबले भारत में मृत्यु दर कम पाई गई।


स्वच्छ ईंधन की कमी

अमेरिका के एक विश्वविद्यालय द्वारा किए गए नए शोध में कहा गया है कि भारत में खराब ईंधन के संपर्क में आने से हर साल 1,000 शिशुओं और बच्चों में से 27 की मृत्यु हो जाती है। शोधकर्ताओं ने कहा कि भारतीय घरों में लड़कों की तुलना में युवा लड़कियों के लिए मृत्यु दर का प्रभाव बहुत अधिक है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि लड़कियाँ प्रदूषण से संबंधित श्वसन संबंधी बीमारियों के प्रति कमज़ोर या अतिसंवेदनशील होती हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि जब कोई छोटी बेटी बीमार पड़ती है या उसे खांसी होने लगती है तो परिवारों द्वारा उपचार की संभावना कम होती है।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के अध्ययन ने 2023 की छठी वार्षिक विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि दुनिया के सबसे खराब वायु प्रदूषण वाले शीर्ष 100 शहरों में से 83 भारत में हैं। इन सभी भारतीय शहरों में प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों से 10 गुना अधिक था। अध्ययन में कहा गया है कि जहाँ बाहरी वायु प्रदूषण पर बहुत ध्यान दिया जाता है, वहीं पर्यावरण संरक्षण एजेंसी और अन्य संगठनों का सुझाव है कि खराब इनडोर वायु गुणवत्ता बहुत अधिक घातक है क्योंकि लोग अपना अधिकांश समय घर पर ही बिताते हैं।


अध्ययन के मुख्य लेखक अर्नब बसु ने कहा कि यह पहला शोधपत्र है जो घरों में बायोमास ईंधन के उपयोग की वास्तविक लागत का एक मजबूत कारणपरक अनुमान देता है, जिसमें युवा जीवन की हानि शामिल है। वे कॉर्नेल विश्वविद्यालय में चार्ल्स एच. डायसन स्कूल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक्स एंड मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं।

शोधकर्ताओं ने खाना पकाने के ईंधन पर निर्भरता की मानवीय लागत निर्धारित करने के लिए 1992 से 2016 तक के घरेलू सर्वेक्षण डेटा का उपयोग किया और पाया कि सबसे बड़ा प्रभाव एक महीने से कम उम्र के शिशुओं में देखा गया। यह एक ऐसा आयु वर्ग है, जिसमें फेफड़े पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं और जब शिशु अपनी माताओं के सबसे करीब होते हैं, जो अक्सर घर में खाना बनाने का काम करती हैं। भारत में लड़कों की तुलना में लड़कियों की मृत्यु दर बहुत अधिक है, क्योंकि बीमार पड़ने या खाँसी शुरू होने पर लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया की लगभग एक तिहाई आबादी खुली आग पर या बायोमास (लकड़ी, पशुओं का गोबर और फसल अपशिष्ट) से चलने वाले स्टोव पर खाना पकाती है, जिससे दुनिया भर में हर साल अनुमानित 3.2 मिलियन मौतें होती हैं। शोध पत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि घर के अंदर के प्रदूषण को भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए, तथा यह समझा जाना चाहिए कि क्षेत्रीय कृषि भूमि स्वामित्व, वन क्षेत्र, घरेलू विशेषताएं और पारिवारिक संरचना जैसे कारक इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।



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