Nalanda University Full Details: बहुत पुराना है नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास, आइये जाने क्या संदेश देना चाहते हैं मोदी ?

Nalanda University History in Hindi: नालंदा विश्वविद्यालय का नाम "नालम" (कमल) और "दा" (देना) से लिया गया है, जो ज्ञान के खिलने का प्रतीक है।

Written By :  Neel Mani Lal
Update: 2024-06-20 07:40 GMT

Nalanda University Full Details

Nalanda University Full Details: जिस विश्वविद्यालय ने 800 साल तक दुनिया को राह दिखाई राह, जो दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय रहा, वहाँ अपने तीसरे कार्यकाल के पहले महीने में ही पहुँच कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आख़िर क्या संदेश देना चाहते हैं, यह सवाल मोदी की नालंदा यात्रा के बाद पूछा जाने लगा है। हालाँकि अपनी नालंदा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी ने कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय के पुनर्निर्माण से ‘भारत का स्वर्ण युग’ शुरू होने जा रहा है। मोदी का ये कथन भारत की संस्कृति और धरोहर को संरक्षित करने, लोगों में इनके प्रति सम्मान और जुड़ाव पैदा करने से तो जुड़ा है ही। यह भारत को ज्ञान के केंद्र के रूप में स्थापित करने का एक प्रयास भी है।

नालंदा विश्वविद्यालय का नाम "नालम" (कमल) और "दा" (देना) से लिया गया है, जो ज्ञान के खिलने का प्रतीक है। हालाँकि, चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इस नाम को एक नाग के नाम से जोड़ा है जो पास के तालाब में रहता था। आधुनिक काल में वर्ष 1812 में स्कॉटिश सर्वेक्षक फ्रांसिस बुकानन-हैमिल्टन द्वारा इसकी "खोज" की गई और बाद में 1861 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा इसे प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में पहचाना गया।

मगध क्षेत्र में स्थित नालंदा महावीर या विश्वविद्यालय भारत की एक शान हुआ करता था जिसमें अध्ययन के लिए दुनियाभर से छात्र आते थे। इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व पांचवीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी में आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए जाने से पहले तक रहा है। यह विश्वविद्यालय 800 वर्षों तक फलता-फूलता रहा।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की स्थापना से 500 वर्ष से भी अधिक पहले, नालंदा विश्वविद्यालय 90 लाख पुस्तकों का घर था। विश्व भर से 11000 छात्र यहां विभिन्न विषयों की शिक्षा के लिए आते थे। जिन्हें पढ़ाने के लिए दो हजार शिक्षक थे।

गुप्त साम्राज्य के दौरान स्थापना (Nalanda University History)

नालंदा की स्थापना गुप्त साम्राज्य से मानी जाती है, जिसे अक्सर भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसी अवधि के दौरान कुमारगुप्त प्रथम (450 ईस्वी) के संरक्षण में नालंदा की स्थापना हुई थी। हालाँकि, जिस स्थान पर ‘महावीर’का निर्माण हुआ, वह अशोक काल का एक स्तूप स्थल हुआ करता था, जो कुमारगुप्त के शासनकाल से कम से कम 600 साल पहले का है।

427 ईस्वी में स्थापित नालंदा महावीर को दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय माना जाता है। छात्र यहाँ चिकित्सा, तर्कशास्त्र, गणित और सबसे बढ़कर उस युग के कुछ सबसे प्रतिष्ठित विद्वानों से बौद्ध सिद्धांतों को सीखने के लिए एकत्र होते थे। दलाई लामा ने एक बार कहा था: "हमारे पास जो भी बौद्ध ज्ञान है, उसका स्रोत नालंदा से आया है।"

नालंदा के उत्कर्ष के सात शताब्दियों से भी अधिक समय में दुनिया में इसके जैसा कुछ और नहीं था। फिलॉसफी और धर्म के प्रति नालंदा के प्रबुद्ध दृष्टिकोण ने एशिया की संस्कृति को आकार देने में मदद की।


हिन्दू राजा और बौद्ध विश्वविद्यालय (Nalanda University Ke Bare Me Jankari Hindi)

दिलचस्प बात यह है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले गुप्त साम्राज्य के राजा कट्टर हिंदू थे। लेकिन बौद्ध धर्म और उस समय के बढ़ते बौद्ध बौद्धिक उत्साह और दार्शनिक लेखन के प्रति सहानुभूति और स्वीकार्यता रखते थे। उनके शासनकाल में विकसित उदार सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएँ नालंदा के विस्तृत शैक्षणिक पाठ्यक्रम का मूल आधार बनीं।


आयुर्वेद, गणित और खगोलशास्त्र (Nalanda University Subjects Details)

नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध दर्शन की पढ़ाई के अतिरिक्त गणित, खगोलशास्त्र और आयुर्वेद की शिक्षा के लिए विख्यात था।

आयुर्वेद नालंदा में व्यापक रूप से पढ़ाई जाती थी। यहीं से आयुर्वेद का प्रसार समूचे भारतवर्ष में हुआ। नालंदा में उत्पादित प्लास्टर ने थाईलैंड की चर्च कला को प्रभावित किया तथा धातु कला यहां से तिब्बत और मलाया प्रायद्वीप तक पहुंची।

भारतीय गणित के जनक आर्यभट्ट छठी शताब्दी में इस विश्वविद्यालय के नेतृत्व में थे। आर्यभट्ट शून्य को अंक के रूप में स्थापित करने वाले पहले व्यक्ति थे। इसी थ्योरी ने गणितीय गणनाओं को सरल बनाया और बीजगणित और ट्रिग्नोमेट्री जैसे अधिक जटिल मार्गों को डेवलप करने में मदद की। परावर्तित सूर्य के प्रकाश को चंद्रमा की चमक का श्रेय देने वाले पहले व्यक्ति भी आर्यभट्ट थे।


पूरे एशिया में बौद्ध धर्म का विस्तार

नालंदा विश्वविद्यालय ने बौद्ध शिक्षाओं और दर्शन का प्रचार करने के लिए नियमित रूप से अपने कुछ सर्वश्रेष्ठ विद्वानों और प्रोफेसरों को चीन, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसे स्थानों पर भेजा। इस प्राचीन सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम ने पूरे एशिया में बौद्ध धर्म को फैलाने में मदद की।


बख्तियार खिलजी ने किया बर्बाद

सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था लेकिन 1190 के दशक में तुर्क अफ़गान सैन्य जनरल बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में आक्रमणकारियों की एक लुटेरी टुकड़ी ने नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया। खिलजी ने उत्तरी और पूर्वी भारत पर विजय के दौरान ज्ञान के इस शानदार केंद्र को खत्म करने की कोशिश की थी। खिलजी ने इसे तबाह इसलिए किया क्योंकि उसे लगता था कि यह केंद्र इस्लाम विरोधी है। नालंदा परिसर इतना विशाल था कि हमलावरों द्वारा लगाई गई आग तीन महीने तक जलती रही। आज 23 हेक्टेयर में फैले नालंदा के अवशेष शायद मूल परिसर का एक छोटा सा हिस्सा हैं।

नालंदा विश्वविद्यालय को सिर्फ खिलजी ही नहीं बल्कि और भी आक्रमणों का सामना करना पड़ा। 5वीं शताब्दी में मिहिरकुला के अधीन हूणों ने आक्रमण किया और 8वीं शताब्दी में बंगाल के गौड़ राजा के आक्रमण से फिर भारी क्षति हुई। हालांकि हूण लूटपाट करने आए थे। लेकिन यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि बंगाल के राजा द्वारा किया गया दूसरा आक्रमण क्यों किया गया था। तीसरे हमले ने विश्वविद्यालय की रीढ़ तोड़ दी। अगली छह शताब्दियों में नालंदा धीरे-धीरे गुमनामी में खो गया और खत्म हो गया।


90 लाख पुस्तकें

नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर अपने समय में वास्तुशिल्प का हैरतअंगेज नमूना था। लाल ईंटों, स्तूपों, मंदिरों, मठों से बने इस ज्ञान केंद्र की सबसे खास विशेषता इसकी विशाल लाइब्रेरी थी। इस परिसर में हज़ारों विद्वान और भिक्षु रहते थे, जो बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देने के लिए डिज़ाइन किए गए वातावरण में सीखते थे। विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों को सामूहिक रूप से "धर्मगज" के नाम से जाना जाता था। इनमें तीन मुख्य इमारतें शामिल थीं-रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक। इनमें पांडुलिपियों, ग्रंथों और ताड़ के पत्तों पर लिखे शास्त्रों का विशाल संग्रह था, जिनमें से कुछ दुर्लभ और अमूल्य थे जिन्हें छात्र और भिक्षु विभिन्न स्थानों से लाए थे।


नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में 90 लाख

हस्तलिखित, ताड़-पत्र पांडुलिपियाँ दुनिया में बौद्ध ज्ञान का सबसे समृद्ध भंडार थीं। उन ताड़-पत्र की पुस्तकों और चित्रित लकड़ी के पन्नों में से केवल मुट्ठी भर ही आग से बच पाए। खिलजी के आक्रमण से भागते हुए भिक्षु कुछ ही पांडुलिपियों को बचा पाए। इन्हें अमेरिका में लॉस एंजिल्स काउंटी म्यूजियम ऑफ आर्ट और तिब्बत में यारलुंग म्यूजियम में रखा गया है।


चीन पहुंच गईं पुस्तकें

चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नालंदा में एक वर्ष अध्ययन और एक वर्ष अध्यापन किया। जब वह 645 ईस्वी में चीन लौटा तो नालंदा से 657 बौद्ध धर्मग्रंथों ले गया। ह्वेन त्सांग ने इन ग्रंथों के एक हिस्से का चीनी भाषा में अनुवाद किया और एक अपनी फिलॉसफी बनाई जिसका मुख्य विचार यह था कि पूरी दुनिया मन का प्रतिनिधित्व करती है। उसके जापानी शिष्य, दोशो ने बाद में इस सिद्धांत को जापान में पेश किया और यह आगे चलकर चीन-जापान से जुड़े क्षेत्रों में फैल गया, जहाँ यह तब से एक प्रमुख धर्म के रूप में बना हुआ है।


कई बार हुआ निर्माण

नालंदा विश्वविद्यालय के कई खंडों और स्तूपों का कई बार पुनर्निर्माण हुआ। इसमें सम्राट अशोक ने भी बड़ा योगदान है। वर्तमान में अब जो नालंदा विश्वविद्यालय का पुनर्निर्माण हुआ है वह भी इसी का हिस्सा है।

वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास इस महान विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।


अद्भुत स्थापत्य

  • यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था।
  • उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं।
  • केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे।
  • अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था।
  • खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था।
  • यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे।
  • इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-1 थी। आज भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है। यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बनी हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे।
  • इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है। जिसमें भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा स्थित है।
  • परिसर में स्थित मंदिर नं.3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। छोटे छोटे स्तूपों से घिरे इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है।

कुलपति और समितियां

  • विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।
  • कुलपति दो समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। एक समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और दूसरी समिति विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी।
  • विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-रेख यही समिति करती थी। इसी से छात्रों की शिक्षा, भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।
  • छात्रों के लिए सब व्यवस्थाएं निशुल्क थीं। यहां छात्रों के रहने के लिए 300 कक्ष बने थे। इन हॉस्टल का प्रबंधन खुद छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था।

नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय

  • विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है जहां वह अवशेष रखे हुए हैं जो खुदाई में मिले थे। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। इनके साथ ही प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान भी रखे हैं।
  • संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं।

नव नालंदा महाविहार

  • विश्वविद्यालय के आधुनिक निर्माण में काफी डेवलपमेंट किया गया है। इसमें पाली साहित्य तथा बौद्ध धर्म की पढ़ाई तथा शोध होता है। यहां अन्य देशों के छात्र भी पढ़ाई के लिए आते हैं।
  • चीन के महान तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग की स्मृति में एक मेमोरियल हॉल बनाया गया है। इसमें ह्वेनसांग से संबंधित वस्तुएं तथा उनकी मूर्ति देखी जा सकती है।
  • अपने पतन के नौ सौ साल बाद नालंदा विश्वविद्यालय द्वारा नालंदा महाविहार को वापस लाया गया है, जिसे 1,600 साल पुराने संस्थान के इर्द-गिर्द बनाया गया है। ऐसा लगता है जैसे मध्ययुगीन संस्थान अपने पुस्तकालय की राख से उठ खड़ा हुआ है।
  • ये तथ्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता कि किताबें जलाई जा सकती हैं और पुस्तकालयों को ज़मीन पर गिराया जा सकता है, लेकिन ज्ञान सभी लुटेरों से बच जाता है।


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