जन्मदिन विशेष : 'परदेशी' जो बन गये 'दुष्यंत कुमार'...

दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के ग्राम राजपुर नवादा में 1 सितम्बर, 1933 को हुआ था। दुष्यंत का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यंत कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे।

Update:2019-09-01 22:04 IST

लखनऊ: जहां उम्मीद न हो, वहां उम्मीद जगाने वाले, जहां इंसान हार मानकर बैठ गया हो, वहां हौसला जगाने वाले कवि दुष्यंत कुमार का आज जन्मदिन है। वो जो लिख गए हैं, उसके बाद उनके बारे में लिखना बहुत कठिन हो जाता है ।

उर्दू के पास मीर हैं, गालिब हैं, दाग हैं, मोमिन हैं और न जाने कितने हैं लेकिन हिन्दी के पास ग़ज़ल में बस एक सिर्फ एक दुष्यंत कुमार हैं। उन्होंने ग़ज़ल की रवायत को जिस खूबसूरती से हिन्दी में निभाया और बढ़ाया उसका कौन मुरीद नहीं ।

उनकी ग़ज़लें किसके बारे में हैं, ये रहस्य है, लेकिन किस बारे में हैं, इसे जो न समझे वो अनाड़ी है। जब वो कहते हैं - 'मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है' तो पता नहीं वो आलोचना से मना कर रहे हैं, या आलोचना के लिए उकसा रहे हैं।

लेकिन आज करीब 40 साल बाद भी सेंसरशिप के खिलाफ इससे बड़ा शेर कोई और लिखा गया है क्या? वो वीर रस के कवि नहीं हैं, लेकिन जितना वो ललकारते हैं, कोई नहीं ललकारता।

उनकी कविताओं में शिकायत तो मिल सकती है, लेकिन नाराजगी नहीं। फिर भी अपने दौर की नाराजगी को जो आवाज उन्होंने दी, कोई नहीं दे पाया। आज भी एक पीएचडी सिर्फ इस बात पर हो सकती है कि वो मासूम हैं या शातिर।

ये भी पढ़ें...जन्मदिन विशेष: श्रुति हासन ने 6 साल की उम्र में पिता की फिल्म में गाया था गाना

उदाहरण के लिए इन पंक्तियों पर करे गौर

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

परदेशी जो बन गया दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के ग्राम राजपुर नवादा में 1 सितम्बर, 1933 को हुआ था। दुष्यंत का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यंत कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए की शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे।

इलाहाबाद में कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यंत की दोस्ती बहुत लोकप्रिय थी। वास्तविक जीवन में दुष्यंत बहुत, सहज और मनमौजी व्यक्ति थे। निदा फाजली उनके बारे में लिखते हैं दुष्यंत की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से बनी है।

यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहेंगे।

ये भी पढ़ें...जन्मदिन विशेष : जानिए सितार वादक पंडित रविशंकर को….

आज उनकी जयंती पर पढ़ें उनकी ये चुनी हुईं पांच ग़ज़लें-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

2.

धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है

धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है

एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है

यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो

आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है

कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में

मीत अब यह मन नहीं है एक धरती है

कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा

एक चिड़िया इन धमाकों से सिहरती है

मैं तुम्हें छू कर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ

और गीली पंखुरी से ओस झरती है

तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ

इस तरह की कल्पना मन में उभरती है

3.

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे

इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत

हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोड़ी आँच बची रहने दो थोड़ा धुँआ निकलने दो

तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती

वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम

अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी

आगे और बढ़े तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता

हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये

इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जायेंगे

4.

हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब

हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब

चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे

होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी

चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई

पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं

अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम

राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी

पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब

5.

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

मत कहो आकाश में कोहरा घना है,

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह का,

क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है.

हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था,

शौक से डूबे जिसे भी डूबना है

दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है,

आजकल नेपथ्य में सम्भावना है

ये भी पढ़ें...जन्मदिन विशेष : जानिए लाला लाजपत राय की जिंदगी से जुड़ी कुछ खास बातें

Tags:    

Similar News