Uniform Civil Code: नागरिक कानून: जानिए क्या है अभी की स्थिति और क्या होगा सामान नागरिक संहिता आने पर
Uniform Civil Code: समान नागरिक संहिता का मसला इन दिनों खूब जोर पकड़े हुए है। पेशकश की जा रही है कि भारत के समस्त नागरिकों के लिए एक सामान व्यक्तिगत कानून बनाया जाये और लागू किया जाए। यहाँ बता दें कि नागरिक कानून से मतलब है वह कानून जो विवाह, उत्तराधिकार, विरासत, तलाक, गोद लेना, संपत्ति अधिकार, भरण पोषण जैसी निजी चीजों के बारे में होता है। अभी क्या है कि इन सब बातें पर अलग अलग धर्म के लोगों पर अलग अलग कानून लागू हैं।
Uniform Civil Code: समान नागरिक संहिता का मसला इन दिनों खूब जोर पकड़े हुए है। पेशकश की जा रही है कि भारत के समस्त नागरिकों के लिए एक सामान व्यक्तिगत कानून बनाया जाये और लागू किया जाए। यहाँ बता दें कि नागरिक कानून से मतलब है वह कानून जो विवाह, उत्तराधिकार, विरासत, तलाक, गोद लेना, संपत्ति अधिकार, भरण पोषण जैसी निजी चीजों के बारे में होता है। अभी क्या है कि इन सब बातें पर अलग अलग धर्म के लोगों पर अलग अलग कानून लागू हैं। मिसाल के तौर पर हिन्दुओं में उत्तराधिकार का अलग कानून है तो मुस्लिमों में अलग है और आदिवासियों में अलग है। ये भी जानना जरूरी है कि व्यक्तिगत कानून और सार्वजनिक कानून अलग अलग होते हैं। सार्वजानिक कानून अपराध इत्यादि पर लागू होता है।
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कब से हैं व्यक्तिगत कानून?
भारत में व्यक्तिगत कानून 1206 से पहले थे ही नहीं। वो तो जब मुस्लिम आक्रमणकारी आए और 1206 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मुम्लुक राजवंश की स्थापना की तब मुस्लिमों के लिए निजी कानून अस्तित्व में आये। कालांतर में जब ईस्ट इंडिया कंपनी आई तब पहली बार 1772 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने व्यक्तिगत मामलों से संबंधित मुकदमेबाजी के लिए हिंदुओं के लिए हिंदू कानून और मुसलमानों के लिए इस्लामी कानून निर्धारित करने वाले प्रावधान बनाए थे। फिर ब्रिटिश राज के दौरान 1936 में बाकायदा कानून बना दिया गया। क्योंकि अंग्रेजों को समुदाय के नेताओं के विरोध का डर था और वे इस घरेलू क्षेत्र में आगे हस्तक्षेप करने से बचते थे।
अब कितने तरह के निजी कानून?
भारत में अब कई तरह के निजी/पारिवारिक कानून चल रहे हैं और इनमें हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, पारसी लॉ मुख्य हैं। मिसाल के तौर पर विवाह से संबंधित कानूनों को विभिन्न अधिनियमों में स्पष्ट रूप से संहिताबद्ध किया गया है जो विभिन्न धर्मों के लोगों पर लागू होते हैं। ये अधिनियम हैं:
धर्मान्तरित विवाह विच्छेद अधिनियम, 1866, भारतीय तलाक अधिनियम, 1869, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872, काज़िस अधिनियम, 1880, आनंद विवाह अधिनियम, 1909, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925, बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936, मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939, विशेष विवाह अधिनियम, 1954, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, विदेशी विवाह अधिनियम, 1969, और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986।
मुस्लिम पर्सनल लॉ
सामान नागरिक संहिता की जड़ में मुस्लिम पर्सनल लॉ ही है। भारत में सभी मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 द्वारा शासित होते हैं। यह कानून मुसलमानों के बीच विवाह, उत्तराधिकार, विरासत और दान से संबंधित है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 उन परिस्थितियों से संबंधित है जिनमें मुस्लिम महिलाएं तलाक प्राप्त कर सकती हैं और जिन मुस्लिम महिलाओं को उनके पतियों ने तलाक दे दिया है उनके अधिकार और संबंधित मामलों के लिए इसमें प्रावधान हैं। ये कानून मुसलमानों सहित उन भारतीयों पर लागू नहीं होते हैं, जिन्होंने विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत शादी की है। वैसे ये सभी ये कानून गोवा में लागू नहीं हैं क्योंकि गोवा नागरिक संहिता किसी धर्म की परवाह किए बिना सभी व्यक्तियों के लिए लागू है। मुस्लिम पर्सनल लॉ आशिंक रूप से शरिया पर आधारित है।
1206 तक भारतीय प्रायद्वीप में मुस्लिम पर्सनल लॉ होने का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जबकि उस दौरान भारत पर मुस्लिम आक्रमण भी हुए थे। मुस्लिमों के लिए अलग कानूनी व्यवस्था कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा स्थापित मामलुक वंश (1206-1290 ई.) फिर उसके बाद खिलजी वंश (1290-1321), तुगलक वंश (1321-1413), लोदी वंश (1451-1526) और सूर वंश (1539-1555) के शासनकाल के दौरान लागू की गयी थी जिसमें राज दरबार मुफ़्ती की सहायता से शरीयत के हिसाब से मुसलमानों के बीच व्यक्तिगत कानून से जुड़े मामलों से निपटता था। मुग़ल राजा बाबर और हुमायूँ के शासनकाल के दौरान, पहले से चल रहे कानूनों का पालन किया गया लेकिन अकबर के शासनकाल के दौरान उलेमाओं की शक्तियां कम हो गईं और रूढ़िवादी सुन्नी स्कूल का प्रभुत्व खत्म हो गया। बाद में औरंगजेब के शासन में एक संहिताबद्ध कानून बनाया गया था।
जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी आई तब उसने 1772 में मुस्लिम कानून लागू किया गया था लेकिन यह सब मुसलमानों के लिए नहीं था। जो मुस्लिम हिंदू शास्त्रों के अनुसार विवाद तय करना चाहते थे वह इसके स्वतंत्र थे। 1772 के रेगुलेशन 11 के सेक्शन 27 में कहा गया था कि "विरासत, उत्तराधिकार, विवाह और जाति और अन्य धार्मिक प्रथाओं या संस्थानों से संबंधित सभी मुकदमों में, मुसलमानों के संबंध में कुरान के कानूनों और जेंटू (हिंदुओं) के संबंध में शास्त्रों का अनिवार्य रूप से पालन किया जाएगा।" जब भारत में ब्रिटिश राज स्थापित हुआ तो 1822 में ब्रिटेन की प्रिवी काउंसिल ने शिया मुसलमानों के अपने अलग कानून के अधिकार को मान्यता दे दी। इसके बाद 1937 में ब्रिटिश राज ने शरीयत अधिनियम लागू किया जो मुसलमानों के बीच विवाह, तलाक और उत्तराधिकार से संबंधित मामलों के बारे में था। आज़ादी के बाद भी 1937 का ब्रिटिश सरकार का शरीयत एप्लिकेशन अधिनियम लागू रखा गया वैसे तो यह कानून मूल रूप से ब्रिटिश सरकार द्वारा शासन नीति के तौर पर बनाया गया था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद यही कानून मुस्लिम पहचान और धर्म के लिए महत्वपूर्ण हो गया। धर्म के इस प्राथमिक पहलू ने मुस्लिम समुदायों और हिंदू राजनीतिक संगठनों दोनों में विवाद पैदा कर दिया है। इसी मुस्लिम लॉ के तहत मुस्लिमों में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, विरासत, गोद लेना आदि होता है। मुस्लिम लॉ में भी शिया और सुन्नी के लिए अलग अलग बातें हैं।
हिन्दू लॉ
मुस्लिमों की तरह हिन्दुओं के लिए अलग कानून अंग्रेजों ने ही बनाया था जिसे एंग्लो-हिन्दू लॉ कहा गया। एंग्लो-हिंदू कानून भी वारेन हेस्टिंग्स 1772 में लाये थे और इसे मुस्लिम कानून की तर्ज पर तैयार किया गया था। जहाँ मुस्लिमों के लिए कानून को इस्लामिक अल-हिदाया और फतवा-ए आलमगिरी के आधार पर बनाया गया वहीँ ब्रिटिश नियुक्त विद्वानों सर विलियम जोन्स, हेनरी थॉमस कोलब्रुक, सदरलैंड और बोरोडेले ने हिन्दुओं के लिए ‘धर्मशास्त्र’ के आधार पर हिन्दुओं के लिए कानून बनाया लेकिन वह धर्मशास्त्र कौन सा था ये स्पष्ट नहीं है। जहाँ अंग्रेजों ने इस्लामी कानून की व्याख्या के लिए काजी , मौलवियों का प्रावधान किया वहीँ शास्त्रों की व्याख्या में ब्रिटिश न्यायाधीशों की सहायता के लिए ब्रिटिश अदालतों में पंडितों का उपयोग भी शामिल था। वस्तुतः एंग्लो-हिंदू कानून हिन्दुओं की प्रथाओं, रीति रिवाजों और पारम्पराओं से विकसित हुआ।
एंग्लो-हिंदू कानून का पहला चरण 1772 से और 1864 तक चला और दूसरा चरण 1864 में शुरू हुआ, और 1947 में समाप्त हुआ जिसके दौरान एक लिखित कानूनी संहिता को अपनाया गया। 1828 और 1947 के बीच ब्रिटिश संसद अधिनियमों की एक सीरीज के साथ एंग्लो-हिंदू कानून का विस्तार किया गया था, जो धार्मिक ग्रंथों के बजाय राजनीतिक सहमति पर आधारित था। एक ही मामले पर पंडितों की राय में विसंगतियों के कारण, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी कानूनी सेवा के लिए पंडितों को प्रशिक्षण देना शुरू किया, जिसके चलते बनारस और कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई, ताकि भारतीय हिन्दू कानून प्रणाली के एक निश्चित विचार पर पहुंचने में मदद मिल सके। यहीं से हिंदू पर्सनल लॉ की शुरुआत हुई। समय के साथ हिंदू पर्सनल लॉ में बड़े सुधार हुए। आज़ादी के बाद भारतीय संसद ने हिंदू कोड बिल पारित किया, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956), हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम (1956) और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम (1956) शामिल हैं। कोड बिल के अधिकार क्षेत्र के तहत सिख धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म को मानने वालों को हिंदू माना गया।
ईसाई पर्सनल लॉ
ईसाई पर्सनल लॉ गोद लेने, तलाक, संरक्षकता, विवाह और उत्तराधिकार को नियंत्रित करता है। विवाह से संबंधित कैनन कानून के प्रावधानों को भारत में (गोवा को छोड़कर) कैथोलिकों के व्यक्तिगत कानून के रूप में मान्यता प्राप्त है। भारतीय कैथोलिकों के विवाह भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 द्वारा विनियमित होते हैं। ईसाई पर्सनल लॉ गोवा राज्य में लागू नहीं है।
पारसी पर्सनल लॉ
पारसी कानून भारत के पारसी पारसी समुदाय को नियंत्रित करने वाला कानून है। पारसी कानून काफी हद तक उन्नीसवीं सदी की कानूनी परंपरा से लिया गया है। विशेष रूप से, पारसी कानून के मुख्य विधायी पाठ हैं :पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1865, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936, पारसी विवाह और तलाक (संशोधन) अधिनियम, 1940 और पारसी विवाह और तलाक (संशोधन) अधिनियम, 1988।
सामान नागरिक संहिता
भारत की आजादी के बाद, हिंदू कोड बिल ने बौद्ध, हिंदू, जैन और सिख जैसे भारतीय धर्मों के विभिन्न संप्रदायों में बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध और सुधार किया, लेकिन इसने ईसाइयों, यहूदियों, मुसलमानों और पारसियों को छूट दी, जिन्हें हिंदुओं से अलग समुदायों के रूप में पहचाना गया। हालाँकि भारतीय संविधान में साफ़ पर कहा गया है कि देश में एक समान नागरिक संहिता बनाई – लागू की जायेगी। अलग अलग धर्मों की कानूनी व्यवस्थाएं ख़त्म की जायेंगी।
1985 में शाहबानो मामले के बाद समान नागरिक संहिता भारतीय राजनीति में रुचि का एक महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरा। इसके बाद बहस मुस्लिम पर्सनल लॉ पर केंद्रित रही, जो आंशिक रूप से शरिया कानून पर आधारित है, जो एकतरफा तलाक, बहुविवाह की अनुमति देता है और इसे कानूनी तौर पर शरिया कानून लागू करने वालों में रखता है। समान नागरिक संहिता को नवंबर 2019 और मार्च 2020 में दो बार प्रस्तावित किया गया था, लेकिन संसद में पेश किए बिना दोनों बार जल्द ही वापस ले लिया गया।
खत्म हो जाएंगे हिंदू और मुस्लिम के कुछ विशेषाधिकार
कॉमन सिविल कोड लागू होने पर क्या होगा? क्या मुस्लिमों से संबंधित कानून खत्म हो जाएंगे? क्या नए सिरे से नागरिक संहिता लिखी जाएगी? ये सब सवाल अभी अनुत्तरित हैं। बहरहाल इतना तय है कि धर्म विशेष के विशेषाधिकार खत्म हो जाएंगे, खासकर विवाह, उत्तराधिकार, विरासत आदि के मामले में।
भारतीय संविधान पूरे भारत में हिंदू कानून, ईसाई कानून और मुस्लिम कानून सहित सभी धर्म-आधारित नागरिक कानूनों को खत्म करते हुए एक समान नागरिक संहिता का आदेश देता है। तो कौन कौन से विशेषाधिकार फिलहाल मिले हुए हैं, ये जानते हैं।
हिन्दू
1. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 : यह कानून हिंदुओं के बीच विवाह और तलाक को नियंत्रित करता है, जिसमें वैध हिंदू विवाह की शर्तों, पंजीकरण और वैवाहिक अधिकारों की बहाली के प्रावधान शामिल हैं।
2. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 : यह कानून हिंदुओं के बीच संपत्ति की विरासत और उत्तराधिकार को नियंत्रित करता है, जिसमें परिवार के सदस्यों के बीच संपत्ति के वितरण के प्रावधान भी शामिल हैं।
3. हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 : यह कानून हिंदुओं के बीच नाबालिग बच्चों की हिरासत और संरक्षकता से संबंधित है, उनके कल्याण और सुरक्षा के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है।
4. हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 : यह कानून हिंदू परिवारों के भीतर गोद लेने की प्रक्रिया और भरण-पोषण दायित्वों को नियंत्रित करता है।
5. पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 : यह कानून 15 अगस्त, 1947 को मौजूद धार्मिक स्थानों की स्थिति को स्थिर कर देता है। यह धार्मिक स्थानों के रूपांतरण पर रोक लगाता है और कुछ विवादित धार्मिक संरचनाओं में पूजा के लिए हिंदुओं को प्रवेश की अनुमति देता है।
मुस्लिम समुदाय
1. मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 : यह कानून मुसलमानों को शादी, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत के मामलों में उनके व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित होने की अनुमति देता है। यह मुसलमानों के लिए इन क्षेत्रों में इस्लामी कानून (शरिया) के आवेदन को मान्यता देता है।
2. मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 : यह कानून तलाक (तलाक), खुला (पत्नी द्वारा शुरू किया गया तलाक) और न्यायिक तलाक जैसे विभिन्न माध्यमों से मुस्लिम विवाहों के विघटन के प्रावधान प्रदान करता है।
3. मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 : यह कानून तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से संबंधित है, जिसमें रखरखाव के भुगतान और उचित निपटान के प्रावधान शामिल हैं।
4. वक्फ अधिनियम, 1995 : यह कानून वक्फ के रूप में ज्ञात मुस्लिम बंदोबस्ती के प्रशासन और प्रबंधन को नियंत्रित करता है, जो धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित हैं।