पुण्यतिथि पर विशेष: ऐसे बने थे वैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन
बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सिर्फ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज के कवि ही नहीं, वे हिंदी जाति के सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे।
लखनऊ: बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सिर्फ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज के कवि ही नहीं, वे हिंदी जाति के सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे। प्रमुख हिन्दी साहित्यकार उदय प्रकाश का यह कथन नागार्जुन के बारे में एक दम सटीक बैठता है। गरीब की रसोई का अकाल के बाद में वह सजीव चित्रण करते हैं।
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कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
इसी तरह उनकी कविता बाघ आया उस रात में वह एक और स्थिति दर्शाते हैं
बाघ आया उस रात
"वो इधर से निकला
उधर चला गया"
वो आँखें फैलाकर
बतला रहा था-
"हाँ बाबा, बाघ आया उस रात,
आप रात को बाहर न निकलों!
जाने कब बाघ फिर से बाहर निकल जाए!"
"हाँ वो ही, वो ही जो
उस झरने के पास रहता है
वहाँ अपन दिन के वक़्त
गए थे न एक रोज़?
बाघ उधर ही तो रहता है
बाबा, उसके दो बच्चे हैं
बाघिन सारा दिन पहरा देती है
बाघ या तो सोता है
या बच्चों से खेलता है ..."
दूसरा बालक बोला-
"बाघ कहीं काम नहीं करता
न किसी दफ़्तर में
न कॉलेज में"
छोटू बोला-
"स्कूल में भी नही ..."
पाँच-साला बेटू ने
हमें फिर से आगाह किया
"अब रात को बाहर होकर बाथरुम न जाना"
असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था
नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से लेखन किया। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखीं। आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। लेकिन बाद में कुछ मित्रों के आग्रह पर 1941 के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी और नाम से न लिखने का निर्णय लिया। नागार्जुन नाम उन्होंने 1936 में अपनाया था। दरअसल इसकी कहानी भी कम रोचक नहीं है।
विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली
दरअसल शुरुआत में वह पढाई करने के लिए बनारस आए और संस्कृत की पढ़ाई की। यहां वह शुरुआती दौर में आर्यसमाज से प्रभावित हुए। लेकिन बाद में इनका झुकाव बौद्ध दर्शन की ओर होता गया। इसमें वह राहुल सांकृत्यायन के पीछे एक छोटे भाई की तरह चले। दोनो को गुरुभाई भी कहा जाता है। बनारस से निकलकर नागार्जुन घूमते हुए कोलकाता पहुंचे और फिर श्रीलंका पहुंचे। और श्रीलंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। यहीं उन्होंने नागार्जुन नाम लिया।
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नागार्जुन जिस तरह बौद्ध धर्म में राहुल जी के पीछे चले उसी तरह घुमक्कड़ी में भी उनका अनुसरण किया। लेकिन नागार्जुन की निगाह स्वतंत्रता आंदोलन व अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर भी रही। उन्होंने आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लिया। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर किसान आंदोलन में भाग लिया मार खाई जेल गए। इसके अलावा 1974 में जेपी के आंदोलन में भी नागार्जुन की सक्रिय भागीदारी रही। उन्होंने कहा था कि सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ। कल जेल भी जा सकता हूँ। और सचमुच ये नागार्जुन का खौफ ही था कि जेपी के आंदोलन के दौरान उन्हें लंबा समय जेल में बिताना पड़ा। नागार्जुन एक क्रांतिकारी कवि और कर्म योद्धा थे 5 नवंबर 1998 को उनका निधन हुआ।