अपनों की मौत के बीच बीता बचपन, गरीबों की लिए लड़े, जानिए 'अंत्योदय' के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय की कहानी

Deendayal Upadhyay Jayanti 2024: पंडित दीनदयाल ने अंत्योदय का सिद्धांत दिया। 1960-70 के दौरान उन्होंने गरीबों के विकास के लिए काफी प्रयास किए।

Written By :  Sidheshwar Nath Pandey
Update:2024-09-25 09:28 IST

फोटो साभार: deendayalupadhyay.org

Antyodaya Diwas 2024: देश के महान विचारक, अंत्योदय के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का आज यानी 25 सितंबर को 108वीं जयंती है। इसे अंत्योदय दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक जीवन से लोग आज भी प्रेरणा लेते हैं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। तमाम वाद विवाद और राजनीतिक द्वेष के बाद भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय सभी राजनीतिक विचारधाराओं के लिए सम्मानीय हैं। जीवन में उतार-चढ़ाव और राजनीति के बाद भी किस तरह अपने विचारों और काम से देश का विकास किया जा सकता है इसे दीनदयाल उपाध्याय से सीखने की जरूरत है।

1916 में जन्मे पंडित दीनदयाल उपाध्याय

25 सितम्बर 1916 को राजस्थान के धनकिया में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म हुआ। उनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय उस वक्त जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। उनकी मां का नाम रामप्यारी था। भले ही उपाध्याय का जन्म राजस्थान में हुआ हो मगर उनका पैतृक निवास मथुरा के नागला चंद्रभान था। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता को अक्सर बाहर ही रहना पड़ता था। उनकी मां धार्मिक महिला थीं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय दो भाई थे। 1916 में उनके जन्म के बाद 1918 में उनके छोटे भाई शिवदयाल का जन्म हुआ। अक्सर बाहर रहने के कारण पिता ने दोनों बच्चों को ननिहाल भेज दिया। ननिहाल आगार जिले में फतेहपुर सीकरी के पास एक गांव में था। दोनों भाइयों की देखभाल उनके नाना चुन्नीलाल शुक्ल करते थे। नाना भी स्टेशन मास्टर थे। वह धानक्या जयपुर में नौकरी करते थे। पंडित जी के ननिहाल का परिवार काफी बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ बड़े हुए।

अपनों की मौत के बीच बीता बचपन

दीनदयाल का बचपन बहुत अच्छा नहीं बीता। अभी वह तीन वर्ष के भी नहीं हुए थे कि साल 1919 में उनके सिर से पिता का साया छिन गया। पिता की मृत्यु के बाद उनकी मां की भी हिम्मत टूटने लगी। उन्हें क्षय रोग हो गया। वह ज्यादातर बीमार ही रहने लगीं। मां ज्यादा दिन बिमारी नहीं झेल सकीं। 8 अगस्त 1924 उनकी मृत्यु हो गई। अभी दीनदयाल की उम्र सात वर्ष ही थी। मगर मृत्यु का सिलसिला अभी रुका नहीं। साल 1926 में नाना गुजर गए। ननिहाल में मां की तरह पालने वाली मामी भी 1931 में चल बसीं। दुखों का पहाड़ तो तब टूटा जब 18 नवम्बर 1934 को उनके छोटे भाई शिवदायल भी चल बसे। छोटी सी उम्र में दीनदयाल का मृत्यु से गहन साक्षात्कार कर लिया। ननिहाल में बची उनकी नानी का भी 1935 में देहावसान हो गया। पंडित दीनदयाल का बचपन अपनों की मौत के आघात से उबरने में ही बीत गया।


सीकर के महाराज ने किया सम्मानीत

दीनदयाल ने कल्याण हाईस्कूल, सीकर, राजस्थान से 1935 में दसवीं की बोर्ड परीक्षा दी। इस परीक्षा में उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1937 में उन्होंने राजस्थान के ही पिलानी से इंटर की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस दौरान सीकर के महाराजा ने उन्हें एक स्वर्ण पदक, किताबें खरीदने के लिए 250 रुपये और 10 रुपये की मासिक छात्रवृत्ति दी। बीए करने के लिए उन्होंने कानपुर के सनातन धर्म कालेज में दाखिला लिया। यहां भी वह प्रथम स्थान पर ही रहे। एमए करने के लिए आगरा के सेंट जॉन्स कालेज में पढ़ाई शुरु की। पहले साल में प्रथम स्थान से परीक्षा पास की। मगर एमए की पढ़ाई पूरी होने से पहले उनकी बहन रामादेवी बीमार रहने लगीं। पंडित दीनदयाल उनकी सेवा में लगे रहे मगर बचा न सके। उनके परिवार का अब कोई नहीं बचा।

नहीं की अंग्रेजों की नौकरी

साल 1941 में उन्होंने प्रयागराज से बीटी की परीक्षा पास की। उनके मामा ने उन्हें सरकारी नौकरी करने की सलाह दी। उनके आग्रह पर पंडित दीनदयाल ने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी दी। पास भी हो गए। मगर अंग्रेज सरकार के लिए नौकरी करना उन्हें मंजूर नहीं था। बीए और बीटी की डिग्री होने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। दीनदयाल धोती-कुर्ता और टोपी पहना करते थे। इसी वेश-भूषा के चलते उन्हें पंडित जी की उपाधि दे दी गई। वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय हो गए।


RSS से संपर्क

1937 में कानपुर से बीए करने के दौरान अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे के जरिए पहली बार दीनदयाल का संपर्क RSS से हुआ। कानपुर में ही उनकी मुलाकात आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार से हुई। वह आरएसएस की एक शाखा में बौद्धिक चर्चा में शामिल हुए थे। साल 1942 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय पूरी तरह आरएसएस से कामों में जुड़ गए। उन्होंने नागपुर में 40 दिन होने वाले आरएसएस के शिविर में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने संघ शिक्षा का प्रशिक्षण लिया। शिक्षा विंग में दूसरे वर्ष का प्रशिक्षण पूरा होने के बाद वह आरएसएस के प्रचारक बन गए।

पत्रिकाओं की शुरुआत

वह लखीमपुर में आरएसएस के प्रचारक के रूप में रहे। 1955 से वह उत्तर प्रदेश के पंथ प्रचारक रहे। दीनदयाल उपाध्याय आजीवन आरएसएस के प्रचारक रहे। आरएसएस की विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने 1940 में लखनऊ से राष्ट्र धर्म पत्रिका की शुरुआत की। यह एक मासिक पत्रिका थी। इसके जरिए वह हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार प्रसार करते थे। बाद में उन्होंन साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक स्वदेश की भी शुरुआत की।

राजनीति में एंट्री

संघ ही राजनीति में आने का जरिया रहा। 21 अक्टूबर 1951 को श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। पहली अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय इसके महामंत्री बने। अधिवेशन में 15 प्रस्ताव पारित हुए। सात प्रस्तवा दीनदयाल ने दिए थे। उनके काम से प्रभावित होकर डॉ. मुखर्जी ने कहा कि "यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।" उन्हें इसकी उत्तर प्रदेश शाखा का महासचिव और बाद में अखिल भारतीय महासचिव नियुक्त किया गया। 15 वर्षों तक वह संगठन के महासचिव बने रहे।


जौनपुर से लड़े चुनाव

1963 में उन्होंने चुनावी मैदान में हाथ आजमाया। जनसंघ के सांसद ब्रम्ह जीत सिंह की मृत्यु के बाद जौनपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए। दीनदयाल ने चुनाव लड़ा मगर जीत नहीं सके। दिसंबर 1967 के कालीकट अधिवेशन में उन्हें जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया। हालांकि उनके कार्यकाल में पार्टी में कोई बड़े परिवर्तन नहीं हुए। फरवरी 1968 में उनके निधन के चलते उनका कार्यकाल दो माह में ही खत्म हो गया।

ट्रेन से आखिरी सफर

10 फरवरी 1968 को दीनदयाल लखनऊ से पटना जाने के लिए ट्रेन में सवार हुए। ट्रेन रास्ते में कई बार रुकी। जौनपुर तक दीनदयाल ठीक ठाक थे। ट्रेन 1:40 पर वाराणसी में रुकी। यहां से मुगलसराय जानी थी। रात 2:10 बजे ट्रेन मुगलसराय पहुंची। मगर ट्रेन में दीनदयाल नहीं थे। दस मिनट बाद उनका शव स्टेशन के बाहर प्लेटफॉर्म से करीब 750 फीट दूर मिला। मृत अवस्था में उनके हाथ में पांच रुपए का नोट था।


सीबीआई ने की जांच

मौत की जांच सीबीआई ने की। जांच में बताया गया कि मुगलसराय स्टेशन पहुंचने से ठीक पहले लुटेरों ने दीनदयाल को कोच से बाहर धकेल दिया था। बताया गया कि एक आदमी दीनदयाल की फाइलों में कुछ ढूंढते हुए दिखा। इसकी पहचान भरत लाल के रूप में हुई। इसकी मदद से राम अवध को गिरफ्तार किया गया। उसपर हत्या और चोरी का मुकदमा चला। सीबीआई के अनुसार लुटेरों ने दीनदयाल को लूटने का प्रयास किया। विरोध करने पर उन्हें कोच से घक्का दे दिया गया। हालांकि इन सभी को हत्या से बरी कर दिया गया। भरत लाला चोरी के दोषी पाए गए।

आज भी उलझी है गुत्थी

मौत की गुत्थी आज भी नहीं सुलझ सकी है। कहा जाता है कि कांग्रेस सरकरा के दौरान सीबीआई ने ठीक तरीके से जांच नहीं की। जिसके चलते यह मामला सुलझ नहीं सका। इसे राजनीतिक हत्या के रूप में प्रस्तुत किया गया। सरकार ने जांच के लिए न्यायमूर्ति वाई.वी. को नियुक्त किया। उन्होंने मामले की जांच कर 1970 में रिपोर्ट दी। इसके अनुसार सीबीआई की रिपोर्ट सही थी। राजनीतिक हत्या को नकारते हुए इसे चोरी के तहत हत्या ही माना गया।


समय के बिल्कुल पक्के

दीनदयाल समय के बिलकुल पक्के थे। बताया जाता है कि एक बार वह कार्यकर्ता की मोटरसाइकल से कहीं जा रहे थे। पथरीले और झाड़ियों वाले रास्तों पर जाते वक्त कोई कंटीली झाड़ उनके पैर को घायल कर गई। मगर वह चुपचाप बैठे रहे। गंतव्य पर पहुंचने पर उनके कार्यकर्ता ने पूछा कि चोट लगने पर आपने बताया क्यों नहीं? इसपर उन्होंने कहा कि बताने पर डॉक्टर के पास जाना पड़ता। ऐसे में तय समय पर न पुहंच पाते, पहुंचने में देर हो जाती।

अंत्योदय के प्रणेता

पंडित दीनदयाल ने अंत्योदय का सिद्धांत दिया। 1960-70 के दौरान उन्होंने गरीबों के विकास पर जोर दिया। 1970 में सरकार ने अंत्योदय योजना की शुरुआत की। इसके अनुसार समाज के निचले स्तर या आखिरी व्यक्ति का उत्थान होना चाहिए तभी समाज विकास कर सकता है। इस विचार के चलते ही उनके जन्मदिन को अंत्योदय दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज 25 सितंबर को उनकी 108वीं जयंती है। उनकी विचारधारा के चलते कई सरकारी योजनाओं को अंत्योदय नाम भी दिया गया है। साथ ही उनके प्रभावशाली जीवन और उनके बारे में लोगों को बताने के लिए कई जगहों के नाम भी दीनदयाल उपाध्याया के नाम पर रखे गए हैं।

(फोटो साभार: deendayalupadhyay.org)

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