मार्च के बाद तैयार होंगी फसलें तो क्या लौटेंगे किसान, भाजपा को क्या है इसका इंतजार
पश्चिमी क्षेत्र और खासकर दिल्ली के आसपास के इलाकों के विशेषज्ञों की राय कुछ और ही है। इस संबंध में वह कहते हैं कि आंदोलन कर रहे किसानों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि फसल तैयार है या फसल बोनी है। भाजपा सरकार ने बहुत गलत पंगा ले लिया है।
रामकृष्ण वाजपेयी
दिन पर दिन जोर पकड़ते किसान आंदोलन को लेकर अब ये सवाल उठने लगा है कि किसान कब तक आंदोलन चलाएंगे और ये आंदोलन आखिर कब खत्म होगा। किसान कब वापस लौटेंगे। ये सवाल जितना आम आदमी के दिमाग में घुमड़ रहा है उससे कहीं अधिक सरकार के नुमाइंदों और प्रतिनिधियों के जेहन में हैं। अटकलें लगाई जा रही हैं कि मार्च के बाद जब फसलें तैयार होंगी तो किसान खुद ब खुद आंदोलन खत्म कर लौट जाएंगे।
भाजपा सरकार ने बहुत गलत पंगा ले लिया
पश्चिमी क्षेत्र और खासकर दिल्ली के आसपास के इलाकों के विशेषज्ञों की राय कुछ और ही है। इस संबंध में वह कहते हैं कि आंदोलन कर रहे किसानों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि फसल तैयार है या फसल बोनी है। भाजपा सरकार ने बहुत गलत पंगा ले लिया है। सरकार किसानों को जितना दबाना चाहेगी किसान उतना तेज प्रतिक्रिया देगा। पश्चिम में एक कहावत मशहूर है किसान गन्ना न दे गुड़ की भेली दे दे। अर्थात किसान से कोई लड़कर एक गन्ना लेना चाहे तो वह नहीं देगा लेकिन खुश होकर पांच सेर की गुड़ की भेली दे देगा।
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सरकार अगर इस बात का इंतजार कर रही है किसानों के आर्थिक मदद के स्रोत काटकर या किसान की खेत देखने की मजबूरी उसे आंदोलन खत्म करने पर मजबूर कर देगी तो वह मुगालते में है।
आंदोलन से जुड़े किसानों के सामाजिक समीकरण समझने चाहिए
सरकार की आंदोलन से जुड़े किसानों के सामाजिक समीकरण समझने चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गांव की व्यवस्था गोत्र पर आधारित है। यानी एक गोत्र के किसानों के गांव एक साथ हैं। वह अपने को एक ही पिता या पूर्वज की संतान मानते हैं। इसीलिए गांव का बुजुर्ग यदि किसी जवान को गरिया भी देता है तो वह बुरा नहीं मानते हैं।
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दूसरी बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उससे लगे राज्यों में तकरीबन हर गांव से सौ से दो सौ लड़के सेना और पुलिस में हैं। पश्चिम में किसानों के लड़के बढ़िया खाते पीते हैं और कसरत करके सेना या पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। इसीलिए इन क्षेत्रों में अनुशासन भी होता है क्योंकि जो सेना या पुलिस से रिटायर होकर गांव लौटते हैं वह अपने गांव में सेना और पुलिस को अनुशासन को लागू करते हैं।
यही सेना और पुलिस में भर्ती होने वाले लड़के अपने घर गांव की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ भी होते हैं। जिससे घरों में उन्नत खेती होती है। अब यदि एक घर यानी एक परिवार का एक सदस्य धरने पर बैठा है तो न तो उसके घर पर कोई फर्क पड़ेगा और न ही खेती पर। किसान को गांव में भी सादा भोजन करना है और धरना स्थल पर भी। उसे तो दो टाइम भोजन करना है घर पर न सही धरना स्थल पर सही।
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आवश्यक वस्तु अधिनियम खत्म करने की तैयारी
ये इन आंदोलनकारी किसानों की मानसिकता है। किसानों को मदद गांव घर से आ रही है कहीं बाहर से नहीं जो बंद हो जाने का संकट हो। सरकार के लिए ये अहम सवाल जरूर हो सकता है कि किसान आंदोलन कैसे खत्म हो। तीसरी और सबसे बड़ी बात किसान ये लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं लड़ रहे हैं। वह देश की जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं। जनता के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने जिस तरह से चोर दरवाजे से आवश्यक वस्तु अधिनियम खत्म करने की तैयारी कर रही है उसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ेगा जिसका जीवन सस्ते मिलने वाले अनाज पर निर्भर है।
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 के तहत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, आलू, प्याज जैसे उत्पादों को आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है जिसका मतलब यह है कि अब इन वस्तुओं का असीमित भण्डारण किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अब कालाबाजारी को वैध बना दिया गया है। इसलिए यह सरकार का आम आदमी को रोटी पर डाका है। यह सही है कि आम आदमी अभी इसे समझ नहीं पाया है। लेकिन किसान जिस तरह से लड़ रहे हैं और आम आदमी को जिस दिन ये सचाई समझ आ गई तब ये आंदोलन किस मुकाम पर पहुंचेगा कल्पनातीत है।
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आंदोलन थमने या धीमा पड़ने के आसार नहीं
इसलिए किसान आंदोलन थमने या धीमा पड़ने के आसार नहीं हैं। क्योंकि सरकार की आंदोलन को जाट, गूजर आदि में बांटने की कोशिशें फेल हो चुकी हैं। अब तो मुस्लिम किसान भी आंदोलन से जड़ गया है। इसलिए आंदोलन फैलने के आसार अधिक हैं।
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