कामगार आंदोलन का प्रारम्भ
सबका साथ, सबका विकास कोई आज का एक नारा मात्र नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण विश्व व्यवस्था को अगर ध्यान से देखें इसमें भी हमें सबका साथ और सबका विकास नज़र आयेगा। औद्योगिक क्रांति के साथ जब पश्चिम में पूँजी और विकास अपनी जगह बना रहा थे, तभी शायद उसी के प्रतिक्रिया स्वरूप पूरब में समाजवाद या सबका विकास अपने लिए जगह बना रहा था। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के साथ ब्रिटेन अपनी जगह खो रहा था और संयुक्त अमेरिकी गणराज्य का उदय हो रहा था। जर्मनी की ताकत इस बीच क्षीण हुई और जापान ने अपना लोहा मनवाया। शायद यह सुबह पश्चिम की थी। समाजवाद के साथ सोवियत संघ और चीन जैसे शक्तिशाली देश जन्म ले रहे थे और वाद के नाम पर पूंजीवाद और समाजवाद आमने सामने खड़े थे।
विचारधारायें
दोनों वादों के इसी संघर्ष के बीच ही कामगारों के हितों का संघर्ष भी शुरू हुआ है शायद। "शायद", इसलिए क्योंकि कोई भी वाद या विचारधारा शाश्वत नहीं हो सकती, जिसे हम आज अच्छा समझ रहे हैं, कल को वह बुरी भी हो सकती है। कयोंकि सबकुछ विचारधारा या वाद का इस्तेमाल कर रहे लोगों की नीयत पर निर्भर करता है। आज हम यहाँ Newstrack पर कामगारों के हितों के संघर्ष के इतिहास की बात करेंगे, भारत में यह कैसे जन्मा, इसीलिए संक्षेप में हम उस समय की वैश्विक स्थितियों की समीक्षा भी आवश्यक थी।
बहुत से विचारक इस बीच जन्मे जिन्होंने अपनी अपनी समझ और ज्ञान के अनुरूप पूँजी या समाज का समर्थन किया। और उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में पूँजी और मजदूर या कह लें कामगार आमने सामने खड़े से दिखे।
भारत में कामगार आंदोलन की शुरुआत
भारतवर्ष में कामगारों के हितों की धमक अट्ठारवीं के अंतिम दशकों में सुनाई पड़ने लगी थी। इस समय तक बम्बई, कलकत्ता, मद्रास और सूरत जैसे तटीय शहरों में कपड़ा उद्योग अपनी जगह चुका था और टेक्सटाइल मिल्स यहाँ धड़ल्ले से इसका निर्माण कर रही थीं। देश का पहला फैक्ट्रीज एक्ट अंग्रेजों अथवा ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा इसी दौर में अधिनियमित हुआ। १८८१ में पहला फैक्ट्रीज एक्ट अधिनियमित हुआ और संभवतः कामगारों ने जब इसमें सुधार की आवश्यकता महसूस की तब १८९० में एनएम लोखंडे ने बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन और १९१८ में बीपी वडिआ ने मद्रास लेबर यूनियन की स्थापना हुई।
आजादी की लड़ाई के साथ उभरती कामगारों की आजादी
स्वदेशी आंदोलन ने भी कामगारों की इस ताकत को समझा था और प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त देश की आजादी चाहने वालों ने स्वयं आगे बढ़कर १९२० में आईटक यानी आल इंडिया ट्रेड यूनियन कॉंग्रेस की स्थापना कर डाली। ३१ अक्टूबर १९२० को लाला लाजपत राय, जोसेफ बैप्टिस्टा, एनएम जोशी, दीवान चमन लाल एवं कुछ अन्य लोगों ने मिलकर आल इंडिया ट्रेड यूनियन कॉंग्रेस की, जो कि देश पहला आल इंडिया फेडरेशन था। आईटक की स्थापना कामगार हितों को समन्वित एवं संगठित रीति से चलाने एवं विभिन्न कामगार संगठनों को एक झण्डे तले इकठ्ठा कर कामगार हितों का प्रतिनिधित्व करते हुए उसे एक आंदोलन का रूप देने की खातिर की गई थी। असल में आईटक के माध्यम से देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए कामगारों को एकजुट किया जा रहा था और इन कामगारों को उनकी असल ताकत का बोध कराया जा रहा था।
कामगारों की इस एकजुटता ने अपना रंग दिखाना भी जल्द ही शुरू कर दिया और १९२६ में अंग्रेज सरकार ने ट्रेड यूनियन्स एक्ट १९२६ का अधिनियमन कर दिया। इस अधिनियमन के साथ ही पंजीकृत कामगार संगठनों को अब वैधानिकता प्राप्त हो गई। जिससे कामगार संगठन के सदस्यों को सिविल सूट एवं आपराधिक प्रस्तुति में प्रतिरक्षा का एक उपाय प्राप्त हो गया। संघ की पंजीकरण व्यवस्था ने कामगारों को नियोक्ताओं एवं आम जनता के समक्ष सम्मानित दर्जा प्रदान कर दिया। दरअसल यह स्थापित हो रहे पूँजीवाद द्वारा जड़ें जमाने कोशिश में जुटे समाजवाद को एक जवाब सा था।
प्रथम विश्व युद्ध का नतीजा द्वितीय विश्व युद्ध करीब ही था अतः वैश्विक कूटनीति के साथ दोनों वादों का संघर्ष बढ़ता चला गया और भारतीय कामगार आंदोलन को मेरठ कांस्पीरेसी केस का सामना करना पड़ा। २५ कामगार नेताओं को इस केस में फर्जी मामलों के तहत उत्पीड़ित किया गया। लेकिन १९३३ में मेरठ कांस्पीरेसी केस पर आधारित मैनचेस्टर स्ट्रीट थिएटर द्वारा खेले एक नाटक "रेड मेगाफोन्स" ने वैश्विक बुद्धिजीवियों मध्य उपनिवेशवाद और औद्योगीकरण के परखच्चे उड़ा कर रख दिए। बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक १९२९ का भी ईस्ट इण्डियन सरकार ने दमन किया और द्वितीय विश्वयुद्ध के आते आते कामगार आंदोलन की एकता को खंड खंड कर दिया। कामगार आंदोलन जिसने उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक दशक में भारत में स्वयं को मजबूत होते हुए देखा था वह उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक टूटने सा लगा। दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत से पहले आल इंडिया ट्रेड यूनियन कॉंग्रेस समर्थन और विरोध के बीच टूट गई और तीव्र समाजवाद के समर्थक इसे अपने साथ लेकर अलग हो गए।
अट्ठारहवीं सदी के अंतिम दशक में मजबूत होते कामगार
अट्ठारहवीं सदी के अंतिम दशकों और उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों ने जिन कामगार हड़तालों ने कामगार आन्दोलनों को मजबूती प्रदान की थी, उनका द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत से पूर्व अंग्रेजी हुक्मरान ने "द डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स" के नाम पर दमन कर दिया। लेकिन इस बीच कामगार हितों के लिए जो कुछ सकारात्मक हो चुका था वह यह था कि कामगारों की एक अच्छी खासी संख्या इन पंजीकृत संगठनों के साथ दर्ज हो चुकी थी, जिसने आजादी के लिए चल रहे भारतीय आंदोलन और देश को आजादी दिलाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज की। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के दो वर्ष के भीतर ही भारत भी आजाद हो गया और इसके बाद कामगार आंदोलन भी एक अलग रूप में आगे बढ़ा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कामगार संगठनों का बिखराव
वैचारिक मतभेद, आर्थिक मंदी और जीवन यापन की बढ़ती लागत के कारण द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कामगार संगठनों की एकता बिखर सी गई। आईटक यानी आल इंडिया ट्रेड यूनियन कॉंग्रेस पर साम्यवादी विचारधारा काबिज हो गई और इसे कम्युनिस्टों ने हथिया लिया। आजादी के बाद जल्द ही तीन और केंद्रीय संगठन अस्तित्व में आ गए। ३ मई, १९४७ को सरदार वल्लभभाई पटेल में इंटक अर्थात इंडियन नैशनल ट्रेड यूनियन कॉंग्रेस की स्थापना की जो कि कॉंग्रेस पार्टी की विचारधारा द्वारा समर्थित था। २९ दिसंबर, १९४८ हिंद मजदूर सभा अस्तित्व में आई। जिसे अशोक मेहता, मणिबेन कारा, बसावन सिंह, रामचंद्र सखाराम रुइकर, टीएस रामानुजम, वीएस माथुर, आरए खेड़गीकर, शिबनाथ बैनर्जी, सीजी मेहता एवं अन्य साथियों ने मिलकर स्थापित किया। १९४९ में केटी शाह, मृणाल काँटी बोस एवं अन्य साथियों ने मिलकर यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस - यूटक की स्थापना की।
आजादी के बाद कामगार हितों की स्थिति
आजादी के बाद कामगार संगठनों ने अपने सदस्यों की संख्या में तो अवश्य बढ़ोत्तरी की लेकिन विचारधाराओं के टकराव और पार्टीलाइन पर चले जाने की वजह से कामगार हितों की अनदेखी भी महसूस की गई। समय के साथ बहुत से केंद्रीय संगठन अस्तित्व आये, इस समय भारत में ५०,००० से अधिक पंजीकृत कामगार संगठन काम कर रहे हैं।
१९४७ में स्वतंत्रता और १९५० भारतीय गणतंत्र की स्थापना के बाद भारतवर्ष ने समाजवादी आर्थिक दृष्टिकोण को अपनाया जिससे सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों की स्थापना बड़ी संख्या में हुई। कामगार समर्थक विधानों को भी प्रोत्साहित किया गया, लेकिन इन व्यवस्थाओं का एक नकारात्मक पहलू भी रहा कि कामगारों की उत्पादकता में कमी आई और कई बार ऐसा भी महसूस किया गया कि कामगार नेतृत्व ने कामगार हितों के समक्ष स्वहितों को तरजीह दी। कामगार संगठन समाजवादी एवं कम्युनिस्ट लाइनों पर बंटे रहे और १९५५ में राष्ट्रवाद समर्थित भारतीय मजदूर संघ भी स्थापित हो गया। भारतीय मजदूर संघ की स्थापना दत्तोपंत ठेंगड़ी ने २३ जुलाई, १९५५ को की। इस कामगार संगठन को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कामगार संगठन भी माना जाता है।
मुंबई और महराष्ट्र में जड़ें जमाता कामगार आंदोलन
१९७० और १९८० के दशक में कामगार संगठनों की गतिविधियाँ फिर बढ़ीं और ट्रेड यूनियन्स की सदस्यता भी अपने उफान पर रही। जॉर्ज फर्नांडीज जैसे सम्मानित कामगार नेतृत्व का उदय हुआ और १९७४ की रेलवे हड़ताल ने उनके कद को ऐसा बढ़ाया कि फिर उन्हें पलटकर देखने की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। मुंबई और तब का बॉम्बे कामगार गतिविधियों का गढ़ बन चुका था, कम्युनिस्ट नेतृत्व का वर्चस्व कम हो रहा था और समाजवादी नेतृत्व वाले संगठन उनपर हावी हो रहे थे। कम्युनिस्ट कामगार संगठन धीरे धीरे पश्चिम बंगाल में सीमित होकर रह गए। कामगार संगठनों की असल रणभूमि अब मुंबई थी। इस बीच एक और राष्ट्रवादी नेतृत्व बालासाहेब ठाकरे ने अपनी उपस्थिति पुरजोर ढंग से की। दत्ता सामन्त भी इसी दौर में अपने उफान पर रहे।
दत्ता सामन्त पेशे से डॉक्टर थे और मिल कामगारों का इलाज करते करते वे कब उनका नेतृत्व बन गए कोई समझ ही न सका। प्रीमियर ऑटोमोबाइल में हुई हड़ताल और उसमें हुये कामगारों के फायदे ने दत्ता सामन्त को मुंबई कामगारों के मध्य बहुत लोकप्रिय बना दिया था। कहा तो यह भी जाता है कि उन्हें प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का भी मूक समर्थन प्राप्त था। १९८२ की ग्रेट बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक ने शुरुआती दौर में दत्ता सामन्त को और भी लोकप्रिय बना दिया, लेकिन ग्रेट बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक के परिणाम न तो कामगारों के हित में रहे और न ही दत्ता सामन्त की लोकप्रियता के लिए। कहा जाता है कि इस हड़ताल के बाद इंदिरा गाँधी ने उनसे दूरियाँ बना ली थीं।
पीछे छूटते कामगार हित
ग्रेट बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक में मुंबई की ५० से अधिक टेक्सटाइल मिलों के २,५०,००० से अधिक कामगारों एक साथ हड़ताल पर चले गए। उद्योगपति भी इस बार अपनी जिद्द पर अड़ गए क्योंकि टेक्सटाइल मिल्स तब तक बहुत फायदे का सौदा नहीं रह गई थीं। यह हड़ताल लम्बी खिचती चली गई और दो साल से अधिक चली इस हड़ताल ने ८० टेक्सटाइल मिलों ने या तो अपने आपको गुजरात में शिफ्ट कर लिया या फिर उन्हें बंद कर दिया। १,५०,००० से अधिक कामगार बेरोजगार रह गए। बहुत से कामगार अपने गावों को वापस लौट गए, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में बेरोजगार रह गए कामगार फिर और कहीं स्थापित न हो सके और उनकी स्थिति न घर के रहे न घाट के जैसी हो गई। इस बीच कामगार संगठनों में बर्चस्व की लड़ाई भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई और इसके लिए साम, दाम, दण्ड, भेद सबका इस्तेमाल शुरू हो गया और कामगार हित कहीं पीछे बहुत पीछे रह गये।
मुंबई और महराष्ट्र में बदलते समीकरण
१९ जून, १९६६ को शिव सेना की स्थापना ने मुंबई और महराष्ट्र में कामगार संगठनों के समीकरण बदलने शुरू कर दिए। बालासाहेब ठाकरे के लोकप्रिय नेतृत्व में मराठी मानुस के नारे ने मराठी कामगारों को उनकी तरफ आकर्षित किया। इसका नतीजा यह हुआ कि धीरे धीरे उनका बर्चस्व मात्र मराठी ही नहीं बल्कि उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय कामगारों में भी बनता चला गया। अपने शुरुआती दौर में बालासाहेब ने दक्षिण भारतीय आप्रवासियों का विरोध भी किया लेकिन इसके बावजूद उनकी दक्षिण भारतीय कामगारों के मध्य पैठ बनी रही। उनके चमत्कारी नेतृत्व ने उन्हें धीरे धीरे मुंबई और महराष्ट्र का बेताज बादशाह सा बना दिया।
आर्थिक उदारीकरण और कामगार हित
इस बीच १९९१ में आर्थिक उदारीकरण ने कामगार आंदोलन को एक नई स्थिति से परिचय कराया। अब सरकार ने आर्थिक क्षेत्रों में अपना हस्तक्षेप बहुत काम कर दिया था। सार्वजनिक क्षेत्रों की बजाय निजी क्षेत्रों को वरीयता दी जाने लगी। अब कामगारों के सन्दर्भ कोई भी विधान बनाने से पहले नियोक्ता एवं कामगारों के मध्य एक संतुलन बना के रखा जाने लगा। कामगारों की उत्पादकता कैसे बढ़ाई जाये और उन्हें कैसे संतुष्ट रखा जाए इसका ख्याल अब कामगार संघों की बजाय खुद कम्पनियाँ रखने लगीं। सरकार ने न्यूनतम मजदूरी और घंटे इत्यादि तय कर दिए, प्रोविडेंट फण्ड, बीमा इत्यादि की भी व्यवस्था कर दी गई। इन नीतियों के कारण संघकृत औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या में ठहराव आया।
इस बदलाव को देखते हुए १९९० के बाद कामगार संगठनों ने अनौपचारिक क्षेत्रों की और भी अपना रुख किया, जिससे अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों को भी फायदा हुआ। सार्वजनिक क्षेत्र की बची खुची कंपनियों और रेलवे, परिवहन इत्यादि क्षेत्रों में अभी भी कामगार संगठन कार्य कर रहे हैं लेकिन प्राइवेट कम्पनीज की संस्कृति में कामगार संगठन कम ही पैठ बना सके हैं। समय कितना भी बदला हो, सरकारी नीतियां कितनी भी बदली हों पर कामगारों के हित रक्षकों की आवश्यकता आज भी उतनी ही है जितनी कल थी क्योंकि अगर नियोक्ताओं के ऊपर किसी का दबाव न हो तो वे मनमाने ढंग से व्यवहार करने लग जाते हैं। अनौपचारिक क्षेत्रों एवं असंगठित कामगारों वाले क्षेत्रों जैसे फिल्म एवं टीवी इंडस्ट्री, ऑटो टैक्सी चालकों, भवन निर्माण इत्यादि क्षेत्रों में काम कर रहे असंगठित कामगारों को आज भी अपने हित रक्षकों की आवश्यकता शायद पहले से कहीं अधिक है।
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