Modi vs Rahul: क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को बनाया कमजोर, 2024 में कैसे होगी मोदी और राहुल की जंग

Modi vs Rahul: इन सब के मद्देनज़र यह तो साफ़ है कि कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी की भाजपा से लड़ने का कोई ब्लू प्रिंट या तैयारी नहीं है। भाजपा के खिलाफ बिना क्षेत्रीय क्षत्रपों के कांग्रेस कुछ करने की स्थिति में नहीं हो सकती है।

Report :  Anshuman Tiwari
Update: 2022-12-22 13:22 GMT

Narendra Modi vs Rahul Gandhi in Lok Sabha Election 2024 (Image: Social Media)

Modi vs Rahul: गुजरात के विधानसभा चुनाव में भाजपा की प्रचंड और ऐतिहासिक विजय का श्रेय भाजपा के साथ ही साथ आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन को भी जाता है। भारत जोड़ों यात्रा के मार्फ़त कांग्रेस को मज़बूत बनाने में जुटे राहुल गांधी भी जयपुर में यह कह चुके हैं कि गुजरात में आप के नाते बड़ा सियासी नुक़सान उठाना पढ़ा। अगले साल देश के नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ बड़ी सियासी जंग लड़नी है।

इन सब के मद्देनज़र यह तो साफ़ है कि कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी की भाजपा से लड़ने का कोई ब्लू प्रिंट या तैयारी नहीं है। भाजपा के खिलाफ बिना क्षेत्रीय क्षत्रपों के कांग्रेस कुछ करने की स्थिति में नहीं हो सकती है। कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को स्वीकारने को तैयार नहीं है। क्षेत्रीय दल कांग्रेस के हमकदम होने को तैयार नहीं है। आज जहां भाजपा खड़ी है, वहाँ अकेले कांग्रेस या क्षेत्रीय क्षत्रप भाजपा से लोकसभा में मुक़ाबिल नहीं हो सकते हैं। ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने अपने नाम व काम पर वापसी की जो तैयारी की। उसके लिए क्षेत्रीय क्षत्रप उत्प्रेरक का काम करते नज़र आयेंगे।

गुजरात के चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें तो आप को 2022 के चुनाव में 12.92 फ़ीसदी तथा कुल 4,112,055 वोट हासिल हुए। जबकि कांग्रेस को 27.28 फ़ीसदी और कुल 8,683,966 वोट मिले। जबकि भाजपा को 52.50 फीसद वोटों के साथ 16,707,957 वोट मिले। मोटे तौर यह कहा जा करता है कि यदि आप पार्टी नहीं लड़ती तो भाजपा व कांग्रेस के बीच 45 लाख वोटों का अंतर होता। इसी तरह यदि बीते दो लोकसभा के चुनावी नतीजों पर गौर करें तो 2019 में भाजपा के खाते में 37.36 फ़ीसदी वोट आये थे। कुल वोटों के लिहाज़ से देखें तो भाजपा को 2,29,076,879 वोट मिले थे। कांग्रेस को केवल 19.49 फ़ीसदी वोटों और 1,19,495,14 वोट मिले थे।

करोड़ वोट से अधिक पाने वाले दलों में डीएमके,वाईएसआर, शिवसेना, बीजद,माकपा, सपा, शामिल हैं। जबकि तृणमूल बसपा दो करोड़ से अधिक वोट पाने वालों में आती हैं। यानी साफ़ है कि 2024 की जंग में भी कांग्रेस के सामने यह बड़ी मुसीबत खड़ी होने वाली है। वैसे कई राज्यों में कांग्रेस अपने दम पर भाजपा के खिलाफ पूरी मजबूती से लड़ रही है । मगर इन राज्यों के दम पर कांग्रेस भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदखल करने में कामयाब होती नहीं दिख रही है। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मजबूती कांग्रेस के लिए महंगी पड़ती दिख रही है। ऐसे में कांग्रेस के पास क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने का सीमित विकल्प ही बचता दिख रहा है।

कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की ताकत का एहसास

पहले यदि राहुल गांधी के बयान पर गौर फरमाया जाए तो उन्होंने गुजरात में आप की वजह से कांग्रेस को बड़ा सियासी नुकसान होने की बात कही। उन्होंने कहा कि यदि गुजरात में आप को प्रॉक्सी के रूप में न रखा गया होता तो हम शायद वहां भी भाजपा को हराने में कामयाब हो गए होते। हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में राहुल गांधी ने कहा कि भाजपा की ओर से वहां संगठन की पूरी ताकत लगाए जाने के बावजूद कांग्रेस भाजपा को हराने में कामयाब रही। इस राज्य में कांग्रेस ने भाजपा को अपनी ताकत दिखा दी है।

गुजरात के विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा 156 सीटों पर ऐतिहासिक जीत हासिल करने में कामयाब रही । वहीं कांग्रेस 17 और आम आदमी पार्टी पांच सीटों पर सिमट गई। माना जा रहा है कि गुजरात में आप को कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाबी मिली है।

कई प्रमुख राज्यों में कांग्रेस तीसरे नंबर पर

अगर गहराई से विश्लेषण किया जाए तो निश्चित रूप से कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मजबूती ने कांग्रेस को सियासी रूप से कमजोर बना दिया है। इन राज्यों में मुख्य मुकाबला भाजपा और क्षेत्रीय दलों के बीच हो रहा है। कांग्रेस तीसरे नंबर की प्लेयर बन गई है। कई राज्यों में कांग्रेस का क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन भी संभव नहीं हो पा रहा है । क्योंकि क्षेत्रीय दल या तो कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करना चाहते या अपनी शर्तों पर कांग्रेस को काफी कम सीटें देना चाहते हैं।

क्षेत्रीय दलों की मजबूती वाले राज्यों में कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी काफी कमजोर पड़ चुका है। कांग्रेस नेतृत्व की ओर से अभी तक इन राज्यों में कांग्रेस के संगठन को मजबूत बनाने की कोई ठोस पहल होती नहीं दिख रही है। ऐसे में 2024 की सियासी जंग में भाजपा को चुनौती देने के लिए क्षेत्रीय दलों पर निर्भरता कांग्रेस की सियासी मजबूरी बनती दिख रही है।

उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर

यदि लोकसभा की सीटों के लिहाज से देखा जाए तो कई बड़े राज्यों में क्षेत्रीय दल ही भाजपा से दो-दो हाथ करते हुए नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं और यहां मुख्य रूप से लड़ाई भाजपा और सपा गठबंधन में होती दिखती है। कभी राज्य में सियासी रूप से काफी मजबूत मानी जाने वाली बसपा भी इस लड़ाई में पिछड़ गई है। 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से इस बात को बखूबी समझा जा सकता है। इस साल हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन ने राज्य की 403 में से 273 सीटें जीतकर अपनी ताकत दिखाई थी। दूसरी ओर सपा गठबंधन 125 सीटें जीतने में कामयाब रहा।

प्रियंका गांधी की ओर से की गई काफी मेहनत के बावजूद कांग्रेस सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई । जबकि बसपा का हाल तो और भी बुरा रहा। 2007 से 2012 तक प्रदेश पर राज करने वाली बसपा सिर्फ एक सीट जीत सकी। चुनावी नतीजे से समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की सियासी लड़ाई अब भाजपा बनाम सपा गठबंधन में सीमित होकर रह गई है। कांग्रेस और बसपा दोनों दल इस लड़ाई में काफी पिछड़ चुके हैं।

357 लोकसभा सीटों पर क्षेत्रीय दल मजबूत

उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, केरल,पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय दलों की मजबूती कांग्रेस के लिए भारी पड़ती दिख रही है। यदि इन सभी राज्यों की लोकसभा सीटों को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा काफी बड़ा है। यूपी में लोकसभा की 80,बिहार में 40, पश्चिम बंगाल में 42, तमिलनाडु में 39, उड़ीसा में 21, तेलंगाना में 17, महाराष्ट्र में 48, आंध्र प्रदेश में 25, केरल में 20,पंजाब में 13, दिल्ली में 7 और जम्मू-कश्मीर में 5 सीटें हैं।

इन सभी को जोड़ने पर 357 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पर कांग्रेस को भाजपा ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों की चुनौतियां से भी जूझना है।

2019 में क्षेत्रीय दलों ने दिखाई थी ताकत

यदि 2019 के लोकसभा चुनावों को देखा जाए तो भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा कड़ी चुनौती क्षेत्रीय दलों से ही मिली थी। 2019 के चुनाव में कांग्रेस लोकसभा की 543 में से सिर्फ 52 सीटें जीतने में कामयाब हो सकी थी जबकि क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतकर अपनी ताकत दिखाई थी। यही कारण है कि 2024 की सियासी जंग में भाजपा कांग्रेस से ज्यादा सियासी दलों से मुकाबला करने पर फोकस कर रही है।

यदि 2019 के नतीजों को देखा जाए तो तमिलनाडु में द्रमुक ने 24, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने 22, बिहार में जदयू ने 16,आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी ने 22 व टीडीपी ने 3, उत्तर प्रदेश में बसपा ने 10 व सपा ने 5, महाराष्ट्र में शिवसेना ने 18 व एनसीपी ने 5, ओडिशा में बीजू जनता दल ने 12, तेलंगाना में टीआरएस ने 9, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने दो व आप नै एक, झारखंड में झामुमो ने एक और जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस ने 3 सीटें जीती थीं। इस तरह क्षेत्रीय दलों ने अपनी ताकत दिखाते हुए न केवल भाजपा को कड़ी चुनौती दी थी बल्कि कांग्रेस को भी बुरी तरह पिछाड़ा भी था।

क्षत्रपों की मजबूती भी कांग्रेस के लिए मुसीबत

देश के कई राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रपों ने मजबूत पकड़ बना ली है । वे अपने दल को कांग्रेस की अपेक्षा मजबूती से स्थापित कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव, तेलंगाना में केसीआर, तमिलनाडु में एमके स्टालिन, ओडिशा में नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी व चंद्रबाबू नायडू,महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे, केरल में पिनराई विजयन, झारखंड में हेमंत सोरेन, कर्नाटक में कुमारस्वामी, पंजाब और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला फैमिली व महबूबा मुफ्ती ने अपने दलों को मजबूती से स्थापित कर रखा है। दरअसल अपने राज्यों में मजबूत पकड़ रखने वाले ये नेता या तो कांग्रेस के साथ समझौता नहीं करना चाहते या अपनी शर्तों पर ही कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहते हैं।

भाजपा को चुनौती दे रहे ममता और नीतीश

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी भाजपा को अपने दम पर चुनौती देती हुई नजर आ रही हैं। राज्य के पिछले विधानसभा चुनाव में भी टीएमसी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया था और भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद ममता राज्य की सत्ता पर फिर काबिज होने में कामयाब हुई थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की ओर से पूरी ताकत लगाए जाने के बावजूद भाजपा ममता को कड़ा मुकाबला देने में कामयाब नहीं हो सकी।

बिहार में नीतीश कुमार के राजद से हाथ मिलाने के बाद सियासी स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। हालांकि बिहार में कांग्रेस महागठबंधन में शामिल है । मगर राज्य के दो प्रमुख सियासी दलों जदयू और राजद के साथ आने के बाद कांग्रेस के लिए चुनावी संभावनाएं और क्षीण हो गई हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस राजद से काफी सीटें झटकने में कामयाब हो गई थी मगर लोकसभा चुनाव में ऐसा संभव होता नहीं दिख रहा है। 2025 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस इसी मुसीबत में फंसी दिखेगी।

क्षेत्रीय दलों के आगे कांग्रेस बेबस

इसी तरह अन्य राज्यों को भी देखा जाए क्षेत्रीय दलों के सामने कांग्रेस पिछड़ती हुई दिख रही है। तमिलनाडु में एआईडीएमके, ओडिशा में बीजू जनता दल, तेलंगाना में टीआरएस, महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना (उद्धव गुट), आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस और टीडीपी, केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा, पंजाब व दिल्ली में आम आदमी पार्टी और जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने खुद को मजबूती से स्थापित कर रखा है।

कर्नाटक में कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव के बाद जदएस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी । मगर अब वहां भी समीकरण बदल गए हैं। जद एस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी अपने दम पर चुनाव लड़ने की बात कह रहे हैं। झारखंड में कांग्रेस और अन्य दलों ने झामुमो के साथ मिलकर गठबंधन बना रखा है । मगर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को झामुमो और अन्य दलों से समझौते के कारण सीटों में बड़ी हिस्सेदारी मिलने की संभावना नहीं दिख रही है।

पीएम के चेहरे की गुत्थी उलझी

क्षेत्रीय दलों की इस मजबूती के कारण सबसे बड़ा सवाल यह पैदा हो गया है कि 2024 की सियासी जंग आखिर राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी कैसे होगी। भाजपा के खिलाफ विपक्षी मोर्चे में पीएम चेहरे को लेकर पेंच अभी भी फंसा हुआ है। पीएम चेहरे को लेकर उलझी हुई इस गुत्थी को सुलझाना आसान काम नहीं है। टीएमसी की ओर से समय-समय पर ममता बनर्जी का नाम पीएम के दावेदार के रूप में उछाला जाता रहा है। ममता खुद भी इसके लिए सियासी दांवपेच आजमाती दिख रही हैं। नीतीश कुमार हालांकि खुद को पीएम पद की दौड़ से बाहर बताते हैं मगर हाल में उन्होंने 2025 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी की अगुवाई में लड़े जाने की बात कहकर बिहार की सियासत से अलग होकर दिल्ली की सियासत करने का संकेत दे दिया है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप मुखिया अरविंद केजरीवाल तीसरे विपक्षी मोर्चे की बात को खारिज करते हुए मोदी के खिलाफ चेहरे का फैसला जनता पर छोड़ने की बात करते हैं। केसीआर ने भी राष्ट्रीय दल के गठन का शिगूफा छोड़कर विपक्षी दलों को असमंजस में डाल रखा है। ऐसे में मोदी के खिलाफ राहुल को चेहरा बनाने की राह में भी बड़ी सियासी अड़चन नजर आ रही है और इसे दूर करना आसान नहीं होगा।

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