इस्‍लामाबाद में लहराता तिरंगा, यहां दिल धड़कता है हिंदुस्तान के लिए

लाहौर से करीब 56 किलो मिटर की दूरी पर स्थित ये इस्‍लामाबाद है। यहां के लोगों का दिल हिंदुस्‍तान के लिए धड़कता है। यहां वंदे मातरम् ... और जनगण मन... गाया जाता है।

Update:2020-09-20 14:25 IST
रहते हैं इस्‍लामाबाद में, दिल धड़कता है हिंदुस्तान के लिए (social media)

नई दिल्ली: लाहौर से करीब 56 किलो मिटर की दूरी पर स्थित ये इस्‍लामाबाद है। यहां के लोगों का दिल हिंदुस्‍तान के लिए धड़कता है। यहां वंदे मातरम् ... और जनगण मन... गाया जाता है। यहां के लोग तीरंगे को अपना आन-बान और शान समझते हैं। यहां भी 15 अगस्‍त और 26 जनवरी को राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया जाता। इस्‍लामाबाद के लोग हर वक्‍त जीने मरने को आतुर रहते हैं। ऐसा ही जज्‍बा और जुनून इस्‍लामाबाद के लोगों का भारत के लिए है।

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पाकिस्‍तान बनने से पहले यहां थी मुस्लिम आबादी

भारतीय रेलवे से रिटायर्ड 85 वर्षीय केवल किशन बबूटा कहते हैं कि पाकिस्‍तान बनने से पहले यहां मुस्लिम आबादी थी। बबूटा कहते हैं कि वे मूलत: अमृतसर के ही हैं और उन्‍होंने वह सब अपनी आंखों से देखा था जो इस्‍लामाबाद में हुआ था। बबूटा के मुताबिक रेलवे ट्रैक के उस तरफ यानी जीटी रोड और पुतली घर और इस तरफ का इलाका इस्‍लामाबाद है।

जब देश का बटवारा हुआ था तो मुस्लिम कम्‍युनिटी अधिक होने के कारण यहां दंगा भी हुआ था। उस दौरान यहां रहने वाले मुस्लिम समुदाय लोग पाकिस्‍तान चले गए। बाद में जो लोग (हिंदू- सिख) पश्चिमी पंजाब (आज के पाकिस्‍तान) से विस्‍थापित हो कर आए उन्‍हें यहां पर बसाया गया। लेकिन देश विभाजन के 73 साल बाद भी इस इलाके का नाम इस्‍लामाबाद का इस्‍लामाबाद ही रहा।

islamabaad (social media)

नाम से क्‍या होता है, दिल तो हिंदुस्‍तानी है

50 वर्षीय हरगोबिंद सिंह कहते हैं। जनाब! नाम से क्‍या होता है- दिल तो हिंदुस्‍तानी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह इस्‍लामाबाद या रावलपिंडी। हम भारतीय हैं। देश का बटवारा तो हमने देखा नहीं, लेकिन नाम से ही लगता है कि यहां एक धर्म संप्रदाय के लोगों के रहने वालों की संख्‍या अधिक रही होगी। इस लिए इस क्षेत्र का नाम इस्‍लामाबाद रखा गया होगा।

1926 में रखी जा चुकी थी पाकिस्‍तान की नींव

अमृतसर के इतिहास पर कई किताबें लिख चुके सुरेंद्र कोछड़ कहते हैं कि आजादी से पहले यानि 1926 में ही यहां (अमृतसर) अस्‍थाई तौर पर पाकिस्‍तान की नींव रखी जा चुकी थी। इसके पहले शहर के अंदरुनी हिस्‍स में हिंदू, सिख और मुस्‍लमान सब मिल कर एक साथ रहते थे। इनकी कोई अलग बस्‍ती या मोहल्‍ला नहीं होता था। लेकिन, 1926 के बाद धीरे-धीरे मुस्लिम आबादी शहर के अंदरुनी हिस्‍से से निकल कर इस्‍लामाबाद में बसने लगी थी।

कोछड़ के मुताबिक धीरे-धीरे अमृतसर शहर के बाहर इलाकों में इस्‍लामाबाद, मुस्लिमगंज, डैमगंज, हुसैनपुरा, कोट कैजाइयां, यासीनगंज, शरीफपुरा आदि इलाके अस्तित्‍व में आए। लेकिन, इन सभी आबादियों में से इस्‍लामाबाद सबसे पुराना और बड़ा इलाका था। इतिहाकार सुरेंद्र कोछड़ के मुताबिक देश के बटवारे से पहले अकेले इस्‍लामाबाद में 80-90 मस्जिदें हुआ कारती थीं। इनमें 30-35 मस्‍जिदें आजद भी अस्तित्‍व में हैं।

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इस्‍लामाबाद इस्‍लामाबाद ही रहा

डीएवी कॉलेज के इतिहास विभाग से सेवानिवृत्‍त प्रोफेसर हीरालाल कंधारी कहते हैं कि बटवारे के बाद देश का नक्‍शा तो बदल गया पर इस्‍लामाबाद इस्‍लामाबाद ही रहा। कंधारी के मुताबिक बटवारे के बाद इन क्षेत्रों में रहने वाले ज्‍यादतर लोग लाहौर और कसूर में जा कर बस गए। विभाजन के वक्‍त सबसे ज्‍यादा कत्‍ल-वो-गारद भी इस्‍लामा बाद में ही हुआ। क्‍योंकि पाकिस्‍तान से आने वाली रेलगाड़ी इस्‍लामाबाद के 22 नंबर फाटक के पास रुकती और इधर से लाहौर जाने वाली गाड़ी भी वहीं पर रुकती थी।

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कंधारी कहते हैं कि विभाजन के बाद इस्‍लामाबाद का नाम कई बार दला गया लेकिन सफल नहीं हुआ। क्‍योंकि यह नाम लोगों के जनमानस में पूरी तरह से रच बस गया है। इसलिए इसका नाम आज भी इस्‍लामाबाद ही है।

दुर्गेश पार्थसारथी

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