पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्वः कोरोना का ग्रहण और पंडों का विरोध

हिंदू धर्म में वैदिक परंपरा के अनुसार अनेक रीति-रिवाज़, व्रत-त्यौहार व परंपराएं मौजूद हैं। गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक अनेक प्रकार के संस्कार किये जाते हैं।

Update: 2020-09-05 09:43 GMT
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व (social media)

नई दिल्ली: हिंदू धर्म में वैदिक परंपरा के अनुसार अनेक रीति-रिवाज़, व्रत-त्यौहार व परंपराएं मौजूद हैं। गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक अनेक प्रकार के संस्कार किये जाते हैं। अंत्येष्टि को अंतिम संस्कार माना जाता है। अंत्येष्टि के पश्चात भी कुछ ऐसे कर्म होते हैं जिन्हें मृतक के संबंधी विशेषकर संतान को करना होता है। श्राद्ध कर्म उन्हीं में से एक है। वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि को श्राद्ध कर्म किया जा सकता है लेकिन भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पूरा पखवाड़ा श्राद्ध कर्म करने का विधान है। इसलिये अपने पूर्वज़ों को के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के इस पर्व को श्राद्ध कहते हैं।

मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान हमारे पूर्वज पितरलोक से धरती पर प्रियजनों के पास आते हैं। ऐसे में पितृ पक्ष पर उनके प्रति सम्मान और आदरभाव दिखाने के लिए उन्हें तर्पण दिया जाता है। मान्यता है कि पितृपक्ष पर श्राद्ध कर्म करने पर पितृदोषों से मुक्ति मिल जाती है। पितृपक्ष में जब पितरदेव धरती पर आते हैं उन्हें प्रसन्न कर फिर से पितरलोक में विदा किया जाता है।

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पितृ पक्ष का महत्व

पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि देवपूजा से पहले अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिये। यह मान्यता भी है कि यदि विधिनुसार पितरों का तर्पण न किया जाये तो उन्हें मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा मृत्युलोक में भटकती रहती है। पितृ पक्ष को मनाने का ज्योतिषीय कारण भी है। ज्योतिषशास्त्र में पितृ दोष काफी अहम माना जाता है। जब कोई व्यक्ति सफलता के बिल्कुल नज़दीक पंहुचकर भी सफलता से वंचित होता हो, संतान उत्पत्ति में परेशानियां आ रही हों, धन हानि हो रही हों तो ज्योतिषाचार्य पितृदोष से पीड़ित होने की प्रबल संभावनाएं बताते हैं। इसलिये पितृदोष से मुक्ति के लिये भी पितरों की शांति आवश्यक मानी जाती है।

किस दिन करें पूर्वज़ों का श्राद्ध

पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का महत्व अधिक माना जाता है। जिस पूर्वज़, पितर या परिवार के मृत सदस्य के देहावसान की तिथि याद हो तो पितृपक्ष में पड़ने वाली उक्त तिथि को ही उनका श्राद्ध करना चाहिये। यदि देहावसान की तिथि ज्ञात न हो तो आश्विन अमावस्या को श्राद्ध किया जा सकता है इसे सर्वपितृ अमावस्या भी इसलिये कहा जाता है। समय से पहले यानि जिन परिजनों की किसी दुर्घटना अथवा सुसाइड आदि से अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। पिता के लिये अष्टमी तो माता के लिये नवमी की तिथि श्राद्ध करने के लिये उपयुक्त मानी जाती है।

श्राद्ध पर्व तिथि व मुहूर्त

पितृ पक्ष - 1 से 17 सितंबर

पूर्णिमा श्राद्ध - 1 सितंबर

सर्वपितृ अमावस्या - 17 सितंबर

कुछ विशेष सावधानियां

- पितृ पक्ष में अगर कोई भोजन पानी मांगने आए तो उसे खाली हाथ नहीं जाने दें। मान्यता है कि पितर किसी भी रूप में अपने परिजनों के बीच में आते हैं और उनसे अन्न पानी की चाहत रखते हैं

- गाय, कुत्ता, बिल्ली, कौआ इन्हें पितृ पक्ष में मारना नहीं चाहिए, बल्कि इन्हें खाना देना चाहिए।

- मांसाहारी भोजन के सेवन से परहेज करना चाहिए। शराब और नशीली चीजों से बचें।

- परिवार में आपसी कलह से बचें।

- ब्रह्मचर्य का पालन करें।

- नाखून, बाल एवं दाढ़ी मूंछ नहीं बनाना चाहिए। चूँकि ये पितरों को याद करने का समय होता है सो यह एक तरह से शोक व्यक्त करने का तरीका है।

- जो भी भोजन बनाएं उसमें से एक हिस्सा पितरों के नाम से निकालकर गाय या कुत्ते को खिला दें।

- भौतिक सुख के साधन जैसे स्वर्ण आभूषण, नए वस्त्र, वाहन इन दिनों खरीदना अच्छा नहीं माना गया है।

- पितृपक्ष के दौरान किसी भी परिस्थिति में झूठ न बोलें और कटु वचन से किसी को दुख न पहुंचाएं।

- पितृपक्ष के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखें कि घर का कोई भी कोना अंधेरे में न रहे।

पितृ पक्ष का महाभारत से एक प्रसंग

कौरव-पांडवों के बीच युद्ध समाप्ति के बाद, जब सब कुछ समाप्त हो गया तब दानवीर कर्ण मृत्यु के बाद स्वर्ग पहुंचे। उन्हें खाने में सोना, चांदी और गहने भोजन की जगह परोसे गये। इस पर, उन्होंने स्वर्ग के स्वामी इंद्र से इसका कारण पूछा। इस पर, इंद्र ने कर्ण को बताया कि पूरे जीवन में उन्होंने सोने, चांदी और हीरों का ही दान किया, परंतु कभी भी अपने पूर्वजों के नाम पर कोई भोजन नहीं दान किया। कर्ण ने इसके उत्तर में कहा कि, उन्हें अपने पूर्वजों के बारे मैं कोई ज्ञान नहीं था, अतः वह ऐसा करने में असमर्थ रहे। तब इंद्र ने कर्ण को पृथ्वी पर वापस जाने के सलाह दी, जहां उन्होंने इन्हीं सोलह दिनों के दौरान भोजन दान किया तथा अपने पूर्वजों का तर्पण किया। और इस प्रकार दानवीर कर्ण पित्र ऋण से मुक्त हुए।

कोरोना ने रोका गया में पिंडदान

कोरोना महामारी के कारण इस बार पितृपक्ष के दौरान मोक्षभूमि गया में लोग पिंडदान व तर्पण नहीं कर सकेंगे। आज के पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। अश्विन माह के कृष्ण पक्ष में लगने वाले पंद्रह दिनों के पितृपक्ष को लेकर यहां एक महीने तक पितृपक्ष मेला लगता है। लेकिन इस बार मेला नहीं लगेगा। बिहार की राजधानी पटना से करीब 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गया धाम में पिंडदान व तर्पण का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि अनादि काल से यहां पितरों का श्राद्ध किया जाता रहा है। महाभारत के वनपर्व में पांडवों की गया यात्रा का उल्लेख है। भगवान श्रीराम ने भी अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान यहीं किया था।

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ऑनलाइन पिंडदान पर एतराज

पितृपक्ष मेले के स्थगित होने के साथ ही ऑनलाइन पिंडदान की चर्चा चली थी। बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम ने छह साल पहले इसकी व्यवस्था की थी। जो लोग किसी कारण से गया नहीं आ सकते उनके लिए निगम ने ई-पिंडदान के तहत वेबसाइट लांच की थी जिसमें पैकेज के तहत मांगी गई राशि का भुगतान करने पर उनके पितरों का विष्णुपद मंदिर एवं अक्षयवट में पिंडदान व फल्गु में तर्पण का प्रावधान है। बाद में कर्मकांड की तस्वीर व वीडियो संबंधित व्यक्ति को उपलब्ध करा दी जाती है। गया के पंडा समाज ने इसे शास्त्र के प्रतिकूल बताते हुए प्रारंभ से ही ई-पिंडदान का विरोध किया है। उनका कहना है कि कुल (वंश) के बाहर का कोई व्यक्ति कैसे पिंडदान कर सकता है।

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