शिशिर कुमार सिन्हा
पटना: केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा बिहार की राजनीति में हॉटकेक बने हुए हैं। खुद को जदयू और बिहार के वर्तमान मुखिया नीतीश कुमार के समकक्ष या उनसे ऊपर मानने के कारण महागठबंधन टूटने और जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने के बाद से ही वह लगातार परेशान रहे हैं। लेकिन, अब उनकी परेशानी को भुनाने वाले भी तैयार हैं और उन्हें परेशानी में छोडऩे का भी मूड दिख रहा है। ऐसे में कुशवाहा क्या करेंगे, यह बड़ा सवाल बिहार की राजनीति में चल रहा है। तमाम कवायदों और कथनी के बीच ‘अपना भारत’ का विश्लेषण बता रहा है कि कुशवाहा की करनी में तुरंत कोई अंतर नहीं आने वाला है। न उगलने और न ही निगलने की स्थिति देख कुशवाहा सही वक्त का इंतजार करेंगे, इसकी उम्मीद ज्यादा दिख रही है।
अस्तित्व बचाने की मजबूरी
‘अपना भारत’ ने जदयू, रालोसपा, भाजपा के साथ जीतन राम मांझी के हम (से) और रामविलास पासवान की लोजपा के नेताओं से कुशवाहा के करवट पर विस्तार से बातचीत कर जानने का प्रयास किया कि आखिर क्या होने वाला है। खास बात यह रही कि इस ‘क्या’ को राजग के सभी घटक दल कुछ नहीं मान रहे। सभी कुछ नहीं मानने की अलग वजह जरूर बताते हैं। जदयू इसपर खुलकर सामने नहीं आता है, लेकिन उसके नेता यह जरूर कहते हैं कि अगर उपेंद्र कुशवाहा को लगता है कि वह कुशवाहा समाज का प्रतिनिधित्व करने के आधार पर राजग में कुछ मनमानी कर सकेंगे, तो वह अपना हश्र देख चुके हैं। विधानसभा चुनाव में हालत के बाद सितंबर में केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार के समय की स्थितियों पर गौर करेंगे तो कुशवाहा चुपचाप बैठे रहना पसंद करेंगे।
इससे अलग भाजपा उनके कहीं दूर नहीं जाने की बात तो कहती है, लेकिन पार्टी के दिग्गज नेता मानते हैं कि राजग में नीतीश कुमार के मुकाबले उपेंद्र कुशवाहा का कद छोटा है और अगर वह निकलने की कोशिश करेंगे तो भाजपा अंदर-अंदर उन्हें रोकने का बहुत प्रयास भी नहीं करेगी। लोजपा को केंद्र की सत्ता में रहना है और वह कुशवाहा की रालोसपा के लिए भी यही चाहती है। लोजपा नेता कहते हैं कि राजद के भुलावे या बहकावे में आना डूबती नाव में सवारी करने जैसा होगा और कुशवाहा ऐसा रिस्क नहीं लें तो बेहतर। हम राजग के साथ है, लेकिन वह वक्त-वक्त पर बात बदलने के लिए भी नामी है। हम के नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी लालू प्रसाद की बुराई करते नहीं सुने जाते हैं, लेकिन उनके साथ जाते हुए भी नहीं दिख रहे। यही कारण है कि उन्होंने रालोसपा की मानव कतार में राजद नेताओं के नीतीश विरोधी बोल पर रालोसपा को आड़े हाथ लिया।
ऐसे में रालोसपा से शुरुआत और उसी से अंत में बातचीत का अंतिम परिणाम यही सामने आ रहा है कि 2019 से पहले 10 फीसदी उम्मीद भी नहीं है कि उपेंद्र कुशवाहा राजग से निकल राजद के साथ जाएंगे।
कुर्सी की चर्चा में राजद की डोर कमजोर
राजद नेताओं ने पटना में रालोसपा की ‘शिक्षा सुधार-मानव कतार’ में बहुत कुछ बोल दिया। लालू-राबड़ी सरकार में लंबे समय तक शिक्षा मंत्री रहे राजद के कद्दावर नेता रामचंद्र पूर्वे और विवादित बयानों से चर्चा में बने रहने वाले राजद नेता शिवानंद तिवारी इस कतार में खड़े हुए तो कुशवाहा के सामने कह बैठे कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यहां शिक्षा में सुधार से कोई मतलब नहीं है। इस बयान से राजग के अंदर कुशवाहा को लेकर बेचैनी बढ़ी हुई है, लेकिन वह थर्मामीटर लिए कदम आगे बढ़ा रहे हैं।
बताया जा रहा है कि पार्टी अध्यक्ष लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद राजद में तेजस्वी यादव के नेतृत्व को लेकर चल रहे विवाद के बीच रालोसपा ने साथ आने के लिए अपनी शर्त का संदेश हवा में छोड़ दिया है। शर्त मुख्यमंत्री पद के लिए उपेंद्र कुशवाहा के नाम की है। इस बात को लेकर रालोसपा इसलिए सामने नहीं आ रहा है क्योंकि ऐसा करने से केंद्र में राज्यमंत्री की हैसियत छिन जाएगी और 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के हिसाब से यह बहुत जल्दबाजी होगी। इसके अलावा रालोसपा राजद-कांग्रेस गठबंधन को भी देख रहा है, क्योंकि महागठबंधन में टूट के बाद से कांग्रेस भी अस्थिर ही है। हर तरफ से अस्थिर दिख रही नाव पर फिलहाल कुशवाहा कदम रखना चाहेंगे, इसकी उम्मीद शून्य के बराबर है, हालांकि फिलहाल इसी नाम पर बिहार में राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं।
नीतीश विरोध की राजनीति ही कुशवाहा की पहचान
लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद का हाथ थामा तो उनके धुर विरोधी उपेंद्र कुशवाहा भाजपा के साथ हो लिए थे। संसदीय चुनाव अच्छा रहा, लेकिन विधानसभा चुनाव में जनता ने महागठबंधन की सरकार बना दी। कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के प्रत्याशियों का भी हाल राजग के अन्य घटक दलों के प्रत्याशियों जैसा ही रहा। इस हार के विश्लेषण में कहीं न कहीं यह माना गया कि नीतीश कुमार के अधिकार वाली कुशवाहा जाति के वोटरों पर उपेंद्र कुशवाहा की नहीं चली।
कई तरह की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बिहार में भाजपा अंदर ही अंदर राज्य की सरकार में शामिल होना चाह रही थी, लेकिन रालोसपा इसके सख्त खिलाफ थी। यही कारण है कि पिछले साल जुलाई में जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन को छोड़ भाजपा का दोबारा साथ लिया तो बहुत ऊपरी मन से कुशवाहा ने खुशी जताई। जिस समय बिहार की राजनीति में यह बहुत बड़ा उलटफेर हुआ, उसके कुछ महीने पहले ही उपेंद्र कुशवाहा ने बाकायदा महागठबंधन के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ राज्य में शिक्षा की हालत के बहाने मोर्चा खोला था।
नीतीश महागठबंधन से हटकर राजग में आए तो कुशवाहा को गठबंधन की नैतिकता के कारण वह मोर्चा खुद कमजोर करना पड़ा। जहां शिक्षा की हालत पर हमला होना था, वहां शिक्षा सुधार महासम्मेलन कराने को विवश हो गए कुशवाहा। लेकिन, अंदर की छटपटाहट कम नहीं हुई। यही कारण है कि पिछले महीने के अंतिम दो दिनों तक कुशवाहा सुर्खियों में रहे। कुशवाहा की रोलासपा के बुलाए ‘शिक्षा सुधार-मानव कतार’ में राष्ट्रीय जनता दल के नेता साथ दिखे, लेकिन राजग से कोई नहीं। इस कतार से एक राजनीतिक आवाज बुलंद होती सुनाई दे रही है कि कुशवाहा अब राजग में नहीं टिकेंगे।