राजस्थान दो लोकसभा सीटों पर उपचुनाव: कांग्रेस में घिर रही निराशा

Update: 2017-12-29 06:59 GMT

कपिल भट्ट

जयपुर: राजस्थान में जल्द ही दो लोकसभा सीटों अलवर और अजमेर और एक विधानसभा सीट मांडलगढ़ के लिए उपचुनाव होने जा रहे हैं। ये तीनों ही सीटें प्रदेश सत्तारूढ़ भाजपा के पास थीं। अभी राजस्थान के पड़ोसी राज्य गुजरात में हार के बावजूद बेहतर प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस से इन चुनावों में भी कुछ अच्छा करने की उम्मीद बंधी थी, लेकिन पार्टी का उपचुनावों को लेकर जो रुख सामने आ रहा है उससे आम कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव घर करने लगा है। विशेष तौर पर पार्टी के दिग्गज नेताओं के चुनाव मैदान से किनारा करने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में हताशा दिखने लगी है।

अलवर से कांग्रेस ने यादव प्रत्याशी उतारा

कांग्रेस को इन उपचुनावों में सबसे ज्यादा उम्मीद अलवर लोकसभा सीट पर पूर्व केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खास भंवर जितेंद्र सिंह से थी, लेकिन भंवर जितेंद्र सिंह के चुनाव नहीं लड़ने के फैसले ने पार्टी कार्यकर्ताओं को निराश कर दिया। कांग्रेस ने अलवर में भाजपा से पहले अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया गया है। डॉ. कर्ण सिंह यादव को कांग्रेस ने उपचुनाव के लिए प्रत्याशी चुना है। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में ही नहीं, बल्कि आम मतदाता में भी गलत संदेश गया है।

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अजमेर लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट के चुनाव नहीं लड़ने की खबर से स्थानीय कांग्रेसियों में निराशा है। पायलट एक मजबूत प्रत्याशी माने जा रहे थे और भाजपा के पास उनके सामने चुनाव लड़ने के लिए ऐसा कोई नामचीन चेहरा नहीं था जो उनके राजनीतिक कद के हिसाब से मुकाबला कर सके। पायलट के चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति में केकड़ी के पूर्व विधायक व मुख्य सचेतक रहे डॉ. रघु शर्मा का नाम भी सामने आ रहा है। शर्मा अजमेर जिले में एकमात्र ऐसे कांग्रेसी नेता है जो विपक्ष में रहते हुए बेहद सक्रिय व मुखर हैं। शर्मा हालांकि लोकसभा उपचुनाव के लिए दावेदार नहीं हैं, लेकिन पार्टी उन्हें मैदान में उतारती है तो चुनाव लड़ेंगे। लेकिन उनकी ओर से यह भी स्पष्ट संकेत है कि चुनाव का नतीजा जो भी रहे, जरुरत पडऩे पर वे केकड़ी विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी रहेंगे।

कांग्रेस ने दी यादवी राजनीति को हवा

कांग्रेस की सभाओं में लगातार हर बड़े नेता की ओर से यह कहा गया है कि यह उपचुनाव आने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बहुत ही महत्वपूर्ण है और भविष्य की राजनीति की दिशा व दशा तय करेंगे। ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सचिन पायलट के चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति में कांग्रेस किस पर दांव लगाएगी जो इतने महत्वपूर्ण चुनाव में कांग्रेस को जीत दिला पाए। अलवर लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिए चुनाव आयोग ने भले ही तारीख का ऐलान नहीं किया हो, लेकिन कांग्रेस ने चुनावी बिसात पर अपना मोहरा चलकर बाजी शुरू कर दी है। कांग्रेस ने पूर्व सांसद कर्ण सिंह यादव को मैदान में उतारकर जहां भाजपा पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश की है वहीं उसने अलवर की यादवी राजनीति को भी हवा दे दी है।

चार विधानसभा सीटें यादव बहुल

द्वापर में भगवान कृष्ण की ब्रजभूमि यादवों की कर्मस्थली मानी जाती थी। वहीं अब कलियु्ग में इसका पड़ोसी अहीरवाल यादवी राजनीति का केन्द्र है। अहीरवाल क्षेत्र में हरियाणा के रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ जिलों के साथ राजस्थान के अलवर जिले के हिस्से शामिल हैं। अलवर राजस्थान में यादवों के प्रभुत्व वाला एकमात्र संसदीय क्षेत्र है। यहां यादव मतदाता सबसे ज्यादा तादाद में हैं। इसके 8 में से 4 विधानसभा क्षेत्रों बहरोड, तिजारा, किशनगढ़बास और मुंडावर यादव बहुल हैं। ऐसे में चुनाव की बात आते ही सबसे पहले सियासत की सुई यादवों पर ही टिकना स्वाभाविक है। इस बार भी यही स्थिति है जिसमें कांग्रेस ने अपने पत्ते फेंटकर यादवी कार्ड निकाल दिया है। अब नजर भाजपा पर टिक गई है कि क्या वो यादव उम्मीदवार उतारेगी या गैर यादव प्रत्याशी के सहारे अपनी नैया पार लगाएगी।

अलवर सीट पर यादवों का प्रभुत्व

एक नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले साढ़े चार दशक से अलवर लोकसभा क्षेत्र की राजनीति यादवों के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। यह दिलचस्प बात है कि अलवर में यादवी राजनीति का प्रवेश 1971 के लोकसभा चुनावों में पड़ोसी हरियाणा से उस वक्त हुआ जब हरियाणा के दिग्गज यादव नेता और पूर्व मुख्यमंत्री राव वीरेंद्र सिंह की बहन सुमित्रा देवी विशाल हरियाणा पार्टी के टिकट पर लडीं और 73382 वोटों के साथ कांग्रेस के बाद दूसरे स्थान पर रहीं। इस चुनाव में अलवर में यादवों को पहली बार अपनी ताकत का एहसास हुआ।

इससे पहले के सभी चुनावों में अलवर सीट पर गैर यादव ही सांसद बनता आ रहा था। आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी ने रामजीलाल यादव को मैदान में उतारा और जीत हासिल की। इसके बाद तो अलवर में यादवी राजनीति का घमासान शुरू हो गया। 1980 और 1984 में कांग्रेस के राम सिंह यादव सांसद बने तो 1989 में जनता दल से रामजीलाल यादव संसद में पहुंचे। इसके बाद 1998 में घासीराम यादव, 1999 में डा.जसवंत यादव, 2004 में डा कर्ण सिंह यादव और 2014 में महंत चांदनाथ यादव जाति के सांसद बने।

कई चुनावों में सेंध भी लगी

अलवर में यादवों का दबदबा हमेशा बना रहा हो, ऐसा भी नहीं है। 1991 में अलवर के पूर्व राजघराने की युवरानी महेंद्र कुमारी, 1996 में कांग्रेस के दिग्गज पं. नवलकिशोर शर्मा और 2009 में भंवर जितेंद्र सिंह यादव चक्रव्यूह को भेदने में कामयाब रहे। लिहाजा अब इन चुनावों में एक बार फिर से इस पर नजर जम गई है कि क्या यादवों का किला बरकरार रहेगा या फिर कोई वीर सेंध लगाने में कामयाब होगा।

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