लखनऊ : इस्लाम में अच्छा इंसान बनने के लिए पहले मुसलमान बनना ज़रूरी है, और मुसलमान बनने के लिए बुनियादी पांच कर्तव्यों को अमल में लाना आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति इन पाँचों में से कोई एक भी कर्तव्य (फराईज) न माने तो उसे मुसलमान नहीं कहा जाता।
5 ईमान यानी कलिमा तय्यब, जिसमें अल्लाह के परम पूज्य होने का इकरार, उसके एक होने का यकीन और मोहम्मद साहब के आखिरी नबी (दूत) होने का यकीन करना शामिल है।
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मुसलमानों के विश्वास के अनुसार इस महीने की २७वीं रात शब-ए-क़द्र को क़ुरान का नुज़ूल (अवतरण) हुवा। इसी लिये, इस महीने में क़ुरान ज़्यादा पढना पुण्यकार्य माना जाता है। तरावीह की नमाज़ में महीना भर कुरान का पठन किया जाता है। जिस से क़ुरान पढना न आने वालों को क़ुरान सुनने का अवकाश ज़रूर मिलता है।
बाकी के 4 हैं -नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात। इस्लाम के ये फराईज़ इन्सान को इन्सान से प्रेम, सहानुभूति, सहायता तथा हमदर्दी की प्रेरणा देते हैं। माह-ए-रमजान न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का महीना है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम भाईचारे और इंसानियत का संदेश भी देता है।
रमजान इस्लामी साल में 9वां महीना है| अनुयाइयों को इस महीने में रोजा, नमा, फितरा आदि करने की सलाह है। रमजान माह को तीन हिस्सों में बाँट दिया गया है। यह सभी हिस्से दस- दस दिन के होते हैं| कुरान के दूसरे पारे के आयत नंबर 183 में रोजा रखना हर मुसलमान के लिए जरूरी बताया गया है। रोज़े को अरबी में सोम कहते हैं, जिसका मतलब है रुकना।
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रोज़ा यानी तमाम बुराइयों से रुकना या परहेज़ करना। ज़बान से गलत या बुरा नहीं बोलना, आंख से गलत नहीं देखना, कान से गलत नहीं सुनना, हाथ-पैर तथा शरीर के अन्य हिस्सों से कोई नाजायज़ अमल नहीं करना। रोज़े की हालत में किसी व्यक्ति के लिए यह आज्ञा नहीं है, कि वह अपनी पत्नी को भी इस नीयत से देखे कि उसके मन में कामवासना जगे।
रोजा रखने वाले नियम कानून के मुताबिक, सूर्योदय से पूर्व उठकर ‘सहरी’ खाते हैं। जिसमें भोजन व तरल पदार्थ लिए जाते हैं। इसके बाद सूर्यास्त तक अन्न-जल पूरी तरह त्याग दिया जाता है, नियम पालन करते हुए रोजेदार 5 वक्त की नमाज व कुरान पढ़ते हैं। शाम को सूर्यास्त के समय इफ्तार किया जाता है। रात के खाने के बाद तरावीह पढ़ी जाती है। लेकिन इसका प्रावधान अहले सुन्नत में है, शिया समुदाय में नहीं।
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रमजान को नेकियों या पुन्यकार्यों का मौसम-ए-बहार (बसंत) कहा गया है। रमजान को नेकियों का मौसम भी कहा जाता है। इस महीने में मुस्लमान अल्लाह की इबादत (उपासना) ज्यादा करता है। अपने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए उपासना के साथ, कुरआन परायण, दान धर्म करता है।
यह महीना समाज के गरीब और जरूरतमंद बंदों के साथ हमदर्दी का है। इस महीने में रोजादार को इफ्तार कराने वाले के गुनाह माफ हो जाते हैं। पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. से आपके किसीसहाबी (साथी) ने पूछा- अगर हममें से किसी के पास इतनी गुंजाइश न हो क्या करें। तो हज़रात मुहम्मद ने जवाब दिया कि एक खजूर या पानी से ही इफ्तार करा दिया जाए।
यह महीना मुस्तहिक लोगों की मदद करने का महीना है। रमजान के तअल्लुक से हमें बेशुमार हदीसें मिलती हैं और हम पढ़ते और सुनते रहते हैं लेकिन क्या हम इस पर अमल भी करते हैं। ईमानदारी के साथ हम अपना जायजा लें कि क्या वाकई हम लोग मोहताजों और नादार लोगों की वैसी ही मदद करते हैं जैसी करनी चाहिए? सिर्फ सदकए फित्र देकर हम यह समझते हैं कि हमने अपना हक अदा कर दिया है।
जब अल्लाह की राह में देने की बात आती है तो हमें कंजूसी नहीं करना चाहिए। अल्लाह की राह में खर्च करना अफज़ल है। ग़रीब चाहे वह अन्य धर्म के क्यों न हो, उनकी मदद करने की शिक्षा दी गयी है। दूसरों के काम आना भी एक इबादत समझी जाती है।
ज़कात, सदक़ा, फित्रा, खैर खैरात, ग़रीबों की मदद, दोस्त अहबाब में जो ज़रुरतमंद हैं उनकी मदद करना ज़रूरी समझा और माना जाता है।
अपनी ज़रूरीयात को कम करना और दूसरों की ज़रूरीयात को पूरा करना अपने गुनाहों को कम और नेकियों को ज़्यादा करदेता है।
मोहम्मद सल्ल ने फरमाया है जो शख्स नमाज के रोजे ईमान और एहतेसाब (अपने जायजे के साथ) रखे उसके सब पिछले गुनाह माफ कर दिए जाएँगे। रोजा हमें जब्ते नफ्स (खुद पर काबू रखने) की तरबियत देता है। हममें परहेजगारी पैदा करता है। लेकिन अब जैसे ही माहे रमजान आने वाला होता है, लोगों के जहन में तरह-तरह के चटपटे और मजेदार खाने का तसव्वुर आ जाता है।