Religious Conversion: पेचीदा है धर्मान्तरण करने वाले दलितों का मसला, फैसला दो साल टला

Religious Conversion: इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का फैसला कम से कम दो साल के लिए टल गया है।

Report :  Neel Mani Lal
Update: 2022-10-08 12:08 GMT

 पेचीदा है धर्मान्तरण करने वाले दलितों का मसला (Pic: Social Media)

Religious Conversion: इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का फैसला कम से कम दो साल के लिए टल गया है। इस संबंध में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया है। रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट रविंद्र जैन और यूजीसी की सदस्य सुषमा यादव, आयोग के दो अन्य सदस्य होंगे। आयोग 2 साल में अपनी रिपोर्ट में बताएगा कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं और अगर दिया जाता है तो मौजूदा दलितों पर क्या असर होगा?

क्या है मौजूदा व्यवस्था

मौजूदा व्यवस्था के मुताबिक हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म मानने वाले दलितों को ही अनुसूचित जाति का दर्जा हासिल है। 2004 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा देने की माँग की गई थी जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से अपना रुख साफ करने को कहा था। याचिका सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन ने दायर की हुई है। एक अन्य संगठन नेशनल काउन्सिल आफ दलित क्रिश्चियंस भी दलित ईसाईयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कराने के अनुरोध के साथ न्यायालय पहुंचा है। न्यायालय ने इस याचिका पर भी केन्द्र से जवाब मांगा है और इसे पहले से ही लंबित मामलों के साथ संलग्न कर दिया है।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था लेकिन 18 साल तक सरकार ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया था। 30 अगस्त को यह मामला एक बार फिर सुनवाई के लिए लिस्ट हुआ तब जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एएस ओका और जस्टिस विक्रम नाथ ने सरकार से 3 हफ्ते में अपना रुख स्पष्ट करने को कहा। इसके बाद सरकार ने एक आयोग का गठन कर डाला।

चर्चा का विषय

धर्म परिवर्तन करके ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले दलितों के अधिकारों का मसला लगातार चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को भी अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर उन्हें भी सरकार की तमाम योजनाओं और आरक्षण सुविधा का लाभ देने की मांग लंबे समय से उठ रही है। उच्चतम न्यायालय में भी यह मसला तीन न्यायाधीशों और दो न्यायाधीशों की पीठ के बीच उलझा रहा। इसी दौरान जनवरी, 2019 में संविधान में 103वें संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के उन सभी व्यक्तियों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया जिन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण योजनाओं के तहत लाभ नहीं मिलता है।

इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों में भी एक राय नहीं है। कुछ राजनीतिक दल इसे वोट की राजनीति से जोड़ रहे हैं तो कुछ का तर्क है कि अनुसूचित जातियों के लाभ धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को देने से देश में धर्मांतरण को बढ़ावा मिलेगा।

न्यायालय में पहले से ही गैर सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस, और कुछ दलित ईसाईयों और उनके ईसाई संगठनों ने संविधान के अनुसूचित जाति आदेश 1950 के तीसरे पैराग्राफ की संवैधानिक वैधता को चुनौती दे रखी है। इन याचिकाओं में दलील दी गयी है कि संविधान के अनुसूचित जाति आदेश 1950 के तीसरे पैराग्राफ के प्रावधानों के दायरे से संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 25 में प्रदत्त अधिकारों का हनन होता है। संविधान के अनुसूचित जाति आदेश, 1950 के तीसरे पैराग्राफ के प्रावधान के तहत हिन्दू धर्म, सिख धर्म और बौध धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म का पालन करने अथवा धर्म परिवर्तन करने वाला अनुसूचित जाति का सदस्य आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाता है।

2004 में बना था आयोग

न्यायालय में पहली बार अप्रैल, 2004 में यह मामला सुनवाई के लिये आया और इसके कुछ महीने बाद ही 29 अक्टूबर, 2004 को तत्कालीन यूपीए सरकार ने धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर विचार के लिये पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग गठित कर दिया था। इस आयोग ने 21 मई, 2007 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इस रिपोर्ट के चर्चा में आते ही सरकार ने इसकी सिफारिशों को लेकर उठ रहे विरोध को देखते हुये इसे 2007 में ही राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के पास विचार के लिये भेज दिया था। अनुसूचित जाति आयोग कमोबेश इस आयोग की सिफारिशों से सहमत था।

एससी का दर्जा देने की सिफारिश

मनमोहन सिंह सरकार ने 18 दिसंबर, 2009 को यह रिपोर्ट संसद में पेश की। इस रिपोर्ट में दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की सिफारिश थी। रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को पिछड़े वर्ग के रूप में परिभाषित करते हुये सभी अल्पसंख्यकों के लिये नौकरियों, शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं में 15 प्रतिशत आरक्षण की भी सिफारिश की थी।

राजनीति का पेंच

कांग्रेस पार्टी जहां आयोग की रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों के आधार पर दलित ईसाईयों और दलित मुस्लिम को आरक्षण और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभ देने के पक्ष में थीं वहीं भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार इससे सहमत नहीं थी। इसका संकेत नवंबर, 2014 में राजग सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दे दिया था। सरकार ने इशारों इशारों में ही साफ कर दिया था कि वह दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखने के पक्ष में नहीं है।

हालांकि, इसके बाद राजग सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर दिया। संविधान के 103वें संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये 10 फीसदी आरक्षण के दायरे में ऐसे लोग हैं जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की योजना के दायरे में नहीं हैं।

कोर्ट में चुनौती

10 फीसदी आरक्षण के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी थी। इन्दिरा साहनी प्रकरण में नौ सदस्यीय संविधान पीठ पहले ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत कर चुकी है। ऐसे में दलील दी गयी कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को लांघता है। सरकार का कहना था कि शीर्ष अदालत की इस व्यवस्था के बावजूद समाज में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों के उत्थान के लिये अपवाद स्वरूप अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाती है।

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