Subhash Palekar Natural Farming: सुभाष पालेकर कृषि अभियान, लोक भारती
Subhash Palekar Natural Farming: प्रकृति में सभी जीव एवं वनस्पतियों के भोजन की एक स्वालम्बी वे,विस्थापित है, जिसका प्रमाण है बिना किसी मानवीय सहायता के जंगलों में हरे भरे पेड़ व लाखों जीवजन्तु
Subhash Palekar Natural Farming: भारत में हरित क्रान्ति के नाम पर अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरकों, हानिकारक कीटनाशकों, हाइब्रिड बीजों एवं अधिकाधिक भूजल उपयोग से, भूमि की उर्वरा शक्ति, उत्पादन, भूजल स्तर और मानव स्वास्थ्य में निरंतर गिरावट आयी है। किसान, बढ़ती लागत एवं बाजार पर निर्भरता के कारण खेती छोड़ रहे हैं और आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं।बाद में आये विदेशी तकनीक जैविक खेती (बर्मी कम्पोस्ट, कम्पोस्टबायोडायनामिक) भी जटिल होने के कारण अन्ततः किसान को बाजार पर ही निर्भर बनाती है। अतः आवश्यकता है ऐसी कृषि पद्धति की जिसमें किसान को बार-बार बाजार न जाना पड़े, उत्पादन न घंटे, खेत उपजाऊ बने रहें व मानव रोगी न बने। वह है सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती जिसमें खेत के लिये कुछ भी बाजार से नहीं खरीदना, सिर्फ एक देशी गाय पालना है।
ध्यान देने योग्य बातें-
- प्राकृतिक कृषि में देशी बीज ही प्रयोग करें। हाइब्रिड बीजों से अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे। या होलस्टीन
- प्राकृतिक कृषि में भारतीय नस्ल का देशी गोवंश ही प्रयोग करें। जर्सी या होलस्टिन हानिकारक है।
- पौधे व फसल की पंक्ति की दिशा उत्तर दक्षिण हो। दलहन फसलों की सह फसलें करनी चाहिये।
- वर्मी कम्पोस्ट बनाने में जो आयसेनिया फीटिडा नामक जन्तु प्रयोग होता है, केंचुआ नहीं है।
- यदि किसी दूसरे स्थान पर बनाकर खाद (कम्पोस्ट) लाकर खेतों में डाला जायेगा तो मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु निष्क्रिय हो जायेगे। पौधों का भोजन जड़ के निकट ही बनना चाहिये तब भोजन लेनेके लिए जड़ें दूर तक जायेंगी लम्बी व मजबूत बनेगी। परिणाम स्वरूप पौधा भी लम्बा व मजबूत बनेगा।
सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती का आधार व प्राकृतिक व्यवस्था
प्रकृति में सभी जीव एवं वनस्पतियों के भोजन की एक स्वालम्बी वे,विस्थापित है। जिसका प्रमाण है बिना किसी मानवीय सहायता (खाद, कीटनाशकआदि) के जंगलों में खड़े हरे भरे पेड़ व उनके साथ रहने वाले लाखों जीवजन्तु। पौधों के पोषण के लिये आवश्यक सभी 16 तत्व प्रकृति में उपलब्ध रहते हैं। उन्हें पौधे के भोजन रुप (Available Form) में बदलने का कार्य मिट्टी में पाये जाने वाले करोड़ो सूक्ष्म जीवाणु करते हैं। इस पद्धति में पौधों को भोजन न देकर भोजन बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु की उपलब्धता पर ज़ोर दिया जाता है (जीवामृत, घनजीवामृत द्वारा)। पौधों के पोषण को प्रकृति में चक्रीय व्यवस्था है। पौधा अपने पोषण केलिये मिट्टी से सभी तत्व लेता है। फसल के पकने के बाद काष्ठ प्रदार्थ(कूड़ा-करकट) के रुप में मिट्टी में मिलकर, अपपरित (Decompose) होकर मिट्टी को उर्वरा शक्ति के रूप में लौटाता है।
देशी गाय का कृषि में महत्व
एक ग्राम देशी गाय के गोबर में 300-500 करोड़ उपरोक्त सूक्ष्म जीवाणु पाये जाते हैं। गाय के गोबर में गुड़ एवं अन्य प्रदार्थ डालकर किण्वन(Fermentation) से सूक्ष्म जीवाणु बढ़ा कर तैयार किया जीवामृत/घनजीवामृत जब खेत में पड़ता है, तो करोड़ो सूक्ष्म जीवाणु भूमि में उपलब्ध तत्वों से पौधो का भोजन निर्माण करते हैं।
देशी केंचुओं का कृषि में महत्व
केंचुआ मिट्टी, बालू पत्थर (कच्चा व चूना) खाता हुआ 15 फुट गहराई तक भूमि के नीचे जाता है। नीचे से पोषक तत्वों को उपर लाता है तथा पौधे की जड़ के पास अपनी विष्टा के रूप में छोड़ता है जिसमें सभी आवश्यक तत्वों का भण्डार होता है। केंचुआ जिस छेद से नीचे जाता है कभी उससे ऊपर नहीं आता है। भूमि में दिन रात करोड़ो छिद्र कर भूमि की जुताई कर मुलायम बनाता है। इन्हीं छिद्रों से पूरा बर्षा जल भूमि में संग्रहित होता है।
सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि के प्रयोग
1- बीजामृत (बीज शोधन)
5 किलो गोबर, 5 लीटर गौमूत्र, 50 ग्राम चूना, एक मुट्ठी मिट्टी, 20 लीटर पानी में मिलाकर 24 घंटे रखें। दिन में दो बार लकड़ी से घोलें। इसे 100 किलो बीजों पर उपचार करें। छांव में सुखाकर बोयें।
2- जीवामृत
जीवामृत सूक्ष्म जीवाणुओं का महासागर है, जो पेड़ पौधों के लिए कच्चे पोषक तत्वों को पकाकर पौधों के लिये भोजन तैयार करते हैं। गौमूत्र 5-10 लीटर, गोबर 10 किलो, गुड़ 1-2 किलो, दलहन आटा 1-2 किलो, एकमुट्ठी जीवाणुयुक्त मिट्टी (100 ग्राम), पानी 200 लीटर, मिलाकर,ड्रम को जूट की बोरी से ढककर छाया में रखें। सुबह शाम डंडा से घड़ी की सुई की दिशा में घोलें। 48 घंटे बाद छानकर सात दिन के अन्दर ही प्रयोग करें।
जीवामृत प्रयोग विधि
1 एकड़ में 200 लीटर जीवामृत पानी के साथ टपक विधि से या धीमे-धीमेबहा दें। छिड़काव विधि से पहला छिड़काव बुवाई के 1 माह बाद 1 एकड़में 100 लीटर पानी 5 लीटर जीवामृत मिलाकर दें। दूसरा छिड़काव 21 दिन बाद 1 एकड़ में 150 लीटर पानी व 10 लीटर जीवामृत मिलाकर दें।तीसरा व चौथा छिड़काव 21-21 दिन बाद 1 एकड़ में 200 लीटर पानी व20 लीटर जीवामृत मिलाकर दें। आखिरी छिड़काव दाने की दूध कीअवस्था (Milking Stage) में प्रति एकड़ में 200 लीटर पानी, 5-10 लीटरखट्टी छाछ (मट्ठा) मिलाकर छिड़काव करें।
3- घन जीवामृत
घन जीवामृत जीवाणुयुक्त सूखा खाद है जिसे बुवाई के समय या पानी के तीन दिन बाद भी दे सकते हैं। गोबर 100 किलो, गुड़ 1 किलो, आटादलहन 1 किलो, मिट्टी जीवाणुयुक्त 100 ग्राम उपर्युक्त सामग्री में गो मूत्र (लगभग 5 ली) मिलायें जिससे हलवा/पेस्ट जैसा बन जाये, इसे 48 घंटे छाया में बोरी से ढककर रखें। इसके बाद छाया में ही फैलाकर सुखा लें, , बारीक करके बोरी में भरे। इसका 6 माह तक प्रयोग कर सकते हैं। एक एकड़ में एक कुन्तल तैयार घन जीवामृत देना चाहिए।
अच्छादन (Mulching)-भूमि को ढंकना
देशी केंचुओं एवं सूक्ष्म जीवाणुओं के कार्य करने के लिये आवश्यक ‘सूक्ष्म पर्यावरण’ एवं भूमि की नमी को सुरक्षित करने हेतु भूमि को ढका जाता है। सूक्ष्म पर्यावरण का आशय है पौधों के बीच हवा का तापमान25-32° नमी 65-72% व भूमि सतह पर अंधेरा। (2) जब हम भूमि का काष्ठ प्रदार्थों से या अन्य प्रकार से आच्छादन करते हैं तो सूक्ष्म पर्यावरण का निर्माण होता है । देशी केंचुओं, सूक्ष्म जीवाणुओं को उपयुक्त वातावरण मिलता है एवं भूमि की नमी का वाष्पन नहीं हो पाता।याद में काष्ठाच्छादन भूमि में अपठित होकर उर्वरा शक्ति का निर्माण करता है। सह फसलों द्वारा भी भूमि को सजीव आच्छादन के द्वारा ढका जा सकता है।
बेह व नाली व्यवस्था द्वारा जल की बचत
जड़ें सीधे पानी न लेकर मिट्टी कणों के बीच वाफसा (50% हवा व 50% वाग्म) को लेती हैं। ऊँचे तैयार बेड पर फसलों को नालीयों द्वारा पौधों की सिंचाई वाफसा के रुप में उपलब्ध कराने से पानी बहुत कम लगता है।नालीयों को भी आच्छादन से ढक दिया जाता है, जिससे वाष्पन न हो।
बहुफसली पद्धति- फसल चक्र
उचित मिश्रित फसलों को लेने पर फसलों की जड़े सहअस्तित्व के आधार पर रोगों एवं कीटों से बचाव तथा प्राकृतिक संसाधनों (नाइट्रोजन, प्रकाश, जल, क्षेत्र आदि) का बँटवारा कर लेती हैं। एक दलीय के साथ द्वि-दलीय, दलहन के साथ अनाज व तिलहन, गन्ना के साथ प्याज एवं सब्जियां, पेड़ो की छाया में हल्दी, अदरक, अरवी जैसे प्रयोगों से भूमि को नाइट्रोजन स्वत: प्राप्त हो जाता है।
फफूंद नाशक (फंगीसाइड)
200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ मट्ठा (3 दिन पुरानी) मिलाकर छिड़काव करें। यह विषाणु नाशक भी है।
फसल सुरक्षा (कीट प्रबन्धन)
1. नीमास्त्र (रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुण्डी/इल्लियाँ होने पर नियंत्रक)
(क) 5 किलो नीम की पत्ती/फल।
(ख) देशी गाय का गौमूत्र 5 लीटर।
(ग) 1 किलो देशी गाय का गोबर लें।
(घ) 100 लीटर पानी लें।
नीम की पत्ती और सूखे फलों को कूटकर पानी में मिलायें तत्पश्चात् देशी गाय का गोबर और गौमूत्र मिला लें।।मिश्रण को 48 घण्टे बोरे से ढ़ककर छाया में रखें, सुबह शाम लकड़ी से घड़ी की सुई की दिशा में घुमाये।कपड़े से छानकर फसल पर छिड़काव करें।
2.अग्नि अस्त्र (रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुण्डी/इल्लियाँ होने परनियंत्रक)
(क) 20 लीटर देशी का गाय का गौमूत्र।
(ख) नीम के पत्ते 5 किलोग्राम।
(ग) तम्बाकू पाउडर 500 ग्राम।
(घ) 500 ग्राम तीखी हरी मिर्च की चटनी।
(ङ) 500 ग्राम देशी लहसुन की चटनी।
कुटे हुए नीम के पत्ते व अन्य सामग्री गौमूत्र में मिलाकर धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालें। मिश्रण को 48 घण्टे तक छाया में रखें व सुबह शाम घोलें। इसे कपड़े में छानकर 6 से 8 लीटर घोल 200 लीटर पानी में मिलाकर 1 एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। 3 माह के अन्दर ही प्रयोग करें,
3.ब्रह्मास्त्र (बड़ी सुण्डियों/इल्लियों के नियंत्रक)
(क) 10 लीटर देशी गाय का गौमूत्र।
(ख) नीम के पत्ते 5 किलोग्राम।
( ग) अमरूद, पपीता, आम, अरण्डी की चटनी 2-2 किलोग्राम।
इन वनस्पतियों की चटनी को गौमूत्र में मिलाकर धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालें। इसके बाद 48 घण्टे तक ठण्डा होने के लिए रख दें। ढाई-तीन लीटर घोल को 100 लीटर पानी में मिलाकर 1 एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। घोल का प्रयोग 6 माह तक किया जा सकताहै।
4.दरापर्णी अर्क (सभी प्रकार की सुण्डी इल्लियों के नियंत्रक)
(क) 200 लीटर पानी।
( ख) देशी गाय का गोबर 2 किलोग्राम।
(ग)वनस्पतियाँ-नीम/करंज/अरण्डी/सीताफल/बेल/गेंदा/ तुलसी/ धतूरा/ आम/ मदार/ अनार/कड़वा करेला/ गुड़हल/ कनेर/ अर्जुन/हल्दी/अदरक/पवाड़/ पपीता इनमें से किन्हीं 10 के 2-2 किलोग्राम पते।
(घ) 500 ग्राम हल्दी पाउडर ।
( ङ) 500 ग्राम अदरक की चटनी ।
(च) 10 ग्राम हींग पाउडर ।
(छ) एक किलोग्राम तम्बाकू ।
(ज) 1 किलोग्राम हरी मिर्च की चटनी।
( झ) किलोग्राम देशी लहसुन की चटनी।
इन सबको मिलाकर लकड़ी से अच्छे से घोलें, बोरी से ढककर छाया में 30-40 दिन रखें व दिन में 2 बार घोलें। इसके बाद कपड़े से छानकर इसका भण्डारण करें। 6 माह तक इसका प्रयोग कर सकते हैं। प्रति एकड़200 लीटर पानी में 6 लीटर दशपर्णी अर्क मिलाकर प्रयोग करें।