सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद सवाल: क्या राज्यपाल का पद समाप्त कर देना चाहिए? अनिवार्यता, संवैधानिक औचित्य और न्यायपालिका का अधिकार क्षेत्र

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने कुछ गैर-भाजपा शासित राज्यों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए राज्यपालों द्वारा महत्वपूर्ण विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रखने पर नाराजगी व्यक्त की थी।;

Update:2025-04-14 15:00 IST

Supreme Court   (photo; social media )

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट की ओर से हाल ही में राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने में अत्यधिक देरी पर सख्त टिप्पणी के बाद, देश में एक बार फिर राज्यपाल के पद की उपयोगिता और अनिवार्यता को लेकर बहस छिड़ गई है। क्या राज्यपालों का पद समाप्त कर दिया जाना चाहिए? क्या इस पद की संवैधानिक रूप से कोई अपरिहार्य आवश्यकता है? क्या न्यायपालिका राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या कर सकती है? ये ऐसे सवाल हैं जो अब राजनीतिक और कानूनी गलियारों में तेजी से उठ रहे हैं।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ गैर-भाजपा शासित राज्यों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए राज्यपालों द्वारा महत्वपूर्ण विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रखने पर नाराजगी व्यक्त की थी। न्यायालय ने यहां तक कह दिया था कि राज्यपालों को 'बैठे रहने' का कोई अधिकार नहीं है। इस टिप्पणी के बाद, कई राजनीतिक दलों और विधि विशेषज्ञों ने राज्यपाल के पद की प्रासंगिकता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है।

राज्यपाल के पद की अनिवार्यता: क्या अपरिहार्य है?

भारतीय संविधान में राज्यपाल का पद केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में परिकल्पित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल का प्रावधान है, जो राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है। राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और केंद्र सरकार का प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।

राज्यपाल के प्रमुख कार्यों में राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देना, राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना (अनुच्छेद 356), राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में कार्य करना और कुछ संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करना शामिल है। संविधान निर्माताओं ने इस पद को इसलिए आवश्यक माना था ताकि केंद्र सरकार राज्य के मामलों पर नजर रख सके और यह सुनिश्चित कर सके कि राज्य सरकार संविधान के अनुरूप कार्य कर रही है।

हालांकि, समय के साथ राज्यपाल का पद विवादों में घिरता रहा है। अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि राज्यपाल केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करते हैं और विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करते हैं। विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रखना, सरकार बनाने के लिए किसी एक दल को आमंत्रित करने में कथित पक्षपात और विश्वविद्यालयों के कामकाज में हस्तक्षेप जैसे आरोप राज्यपालों पर लगते रहे हैं।

क्या राज्यपाल का पद समाप्त किया जाना संवैधानिक रूप से उचित होगा?

राज्यपाल के पद को समाप्त करने का विचार एक जटिल संवैधानिक मुद्दा है। इसके पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं।

पद समाप्त करने के पक्ष में तर्क:

केंद्र का हस्तक्षेप: आलोचकों का तर्क है कि राज्यपाल का पद केंद्र सरकार को राज्यों के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप का अवसर प्रदान करता है, जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित होती है।

राजनीतिक दुरुपयोग: अक्सर यह देखा गया है कि केंद्र सरकार अपने राजनीतिक हितों के लिए राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करती है, खासकर उन राज्यों में जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं।

वित्तीय बोझ: राज्यपाल के कार्यालय पर होने वाला खर्च भी एक तर्क है, खासकर छोटे राज्यों के लिए।

पद समाप्त न करने के पक्ष में तर्क:

केंद्र-राज्य समन्वय: राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच समन्वय स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संवैधानिक प्रमुख: राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और उसकी भूमिका प्रतीकात्मक होते हुए भी महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रपति शासन की आवश्यकता: अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने में राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, हालांकि इसका उपयोग भी विवादास्पद रहा है।

विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति: राज्यपाल राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में शिक्षा व्यवस्था में एक निश्चित भूमिका निभाता है।

संविधान के जानकारों का मानना है कि राज्यपाल के पद को पूरी तरह से समाप्त करना संवैधानिक ढांचे में कई तरह की जटिलताएं पैदा कर सकता है। इसके लिए संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन की आवश्यकता होगी और केंद्र-राज्य संबंधों की प्रकृति में भी बदलाव आ सकता है।

क्या न्यायपालिका राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या कर सकती है?

सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी इस सवाल को और महत्वपूर्ण बना देती है कि क्या न्यायपालिका राज्यपाल के अधिकारों और कर्तव्यों की व्याख्या कर सकती है। संविधान के तहत, न्यायपालिका को संविधान का अंतिम व्याख्याकार माना जाता है। ऐसे में, यदि राज्यपाल अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वाह संविधान की भावना के अनुरूप नहीं करते हैं, तो न्यायपालिका निश्चित रूप से हस्तक्षेप कर सकती है।

हालांकि, न्यायपालिका को भी अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना होता है। राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और उसे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं। न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी व्याख्या संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हो और वह कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण न करे।

वरिष्ठ अधिवक्ता विराग गुप्ता का कहना है कि "सुप्रीम कोर्ट निश्चित रूप से संविधान और संवैधानिक पदों की व्याख्या कर सकता है। यदि राज्यपाल संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं या अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करते हैं, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है। हालांकि, न्यायालय को यह भी ध्यान रखना होगा कि वह राज्यपाल के स्वविवेक के अधिकारों का हनन न करे।"

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में ताजा घटनाक्रम 13 अप्रैल, 2025 को सामने आया, इसलिए इसके उचित या अनुचित होने का आकलन इस तारीख तक उपलब्ध जानकारी के आधार पर किया जाए तो तमिलनाडु सरकार द्वारा राज्यपाल रवि की सिफारिश के बिना कुछ विधेयकों से संबंधित अधिसूचना जारी करना कानूनी और संवैधानिक रूप से उचित प्रतीत होता है, क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर आधारित है।

वह बातें जो इस निष्कर्ष का समर्थन करती हैः

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: 8 अप्रैल, 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं और राज्य विधानसभा उसे दोबारा पारित कर देती है, तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी ही होगी। राज्यपाल के पास उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करने का कोई विवेकाधिकार नहीं है यदि विधेयक पहले जैसा ही है।

विधेयकों का दोबारा पारित होना: तमिलनाडु विधानसभा ने उन 10 विधेयकों को दोबारा पारित किया था, जिन पर राज्यपाल आर.एन. रवि ने सहमति नहीं दी थी और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया था।

राज्यपाल की कार्रवाई को असंवैधानिक घोषित: सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल रवि के विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने की कार्रवाई को असंवैधानिक और त्रुटिपूर्ण करार दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति द्वारा इसके बाद उठाए गए कदम भी कानून की दृष्टि से अमान्य हैं।

विधेयकों को 'सहमति प्राप्त' माना गया: सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि उन 10 विधेयकों को उस तारीख से सहमति प्राप्त माना जाएगा जब उन्हें पुनर्विचार के बाद राज्यपाल को दोबारा प्रस्तुत किया गया था (18 नवंबर, 2023)।

सरकार द्वारा अधिसूचना जारी करना: सुप्रीम कोर्ट के इस स्पष्ट फैसले के बाद, तमिलनाडु सरकार ने इन 10 विधेयकों को सरकारी गजट में अधिसूचित करके उन्हें लागू कर दिया। सरकार का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने वाला है।

ऐतिहासिक कदम: यह पहली बार है जब भारत में किसी राज्य सरकार ने राज्यपाल या राष्ट्रपति की औपचारिक सहमति के बिना, केवल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर किसी कानून को अधिसूचित किया है।

इसलिए, मुख्यमंत्री स्टालिन के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार का राज्यपाल रवि की सिफारिश के बिना विधेयकों से संबंधित अधिसूचना जारी करना सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट फैसले के आलोक में पूरी तरह से उचित है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश का पालन किया है जिसमें राज्यपाल की कार्रवाई को गलत ठहराया गया था और विधेयकों को 'सहमति प्राप्त' माना गया था। यह कदम राज्य विधायिका की संप्रभुता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद राज्यपाल के पद को समाप्त करने की बहस तेज हो गई है। हालांकि, यह एक जटिल संवैधानिक मुद्दा है जिसके पक्ष और विपक्ष में मजबूत तर्क हैं। राज्यपाल का पद केंद्र-राज्य समन्वय और संवैधानिक प्रमुख के तौर पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन इसके राजनीतिक दुरुपयोग की आशंकाएं भी बनी रहती हैं। न्यायपालिका निश्चित रूप से संविधान और संवैधानिक पदों की व्याख्या कर सकती है, लेकिन उसे अपने अधिकार क्षेत्र का ध्यान रखना होगा। आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर और भी कानूनी और राजनीतिक मंथन देखने को मिल सकता है, क्योंकि राज्यपाल के पद की उपयोगिता और भविष्य पर सवाल उठते रहेंगे।

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