थम नहीं रहा केरल में राजनीतिक हिंसा का दौर
भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की दक्षिण भारत के अलावा अन्य उत्तरी पूर्व राज्यों में भाजपा का प्रभाव बढ़ाने की रणनीति के तहत पार्टी के निशाने पर केरल राज्य है।
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की दक्षिण भारत के अलावा अन्य उत्तरी पूर्व राज्यों में भाजपा का प्रभाव बढ़ाने की रणनीति के तहत पार्टी के निशाने पर केरल राज्य है। लेकिन कई राज्यों में मिली चुनावी सफलता के बाद उनके लिए इतना बड़ा लक्ष्य हासिल कर पाना कोई बड़ा काम नहीं है। यही कारण है कि केरल जैसे राज्य में जहां वामपंथियों का एकाधिकार है और इस पूरे राज्य में राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला थम नही रहा है।
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21 अक्टूबर को केरल की पांच विधानसभा सीटों पर होंगे उपचुनाव
21 अक्टूबर को केरल की पांच विधानसभा सीटों पर उप चुनाव होंगे। ये सीटें यूडीएफ के तीन मौजूदा विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई हैं। इन विधायकों में के। मुरलीधरन (वट्टियोरकावू), हिबी इडेन (एर्नाकुलम) व अडूर प्रकाश (कोन्नि), जिन्होंने क्रमशरू वडकारा, एर्नाकुलम व अत्तिगल लोकसभा सीटों पर इस साल मई में जीत दर्ज की।
इस राज्य में उपचुनाव के पहले ही अपनी गतिविधियां तेज कर विरोधियों के सामने अभी से चुनौती खड़ी कर दी है। वामपंथियों और आरएसएस कार्यकर्ताओं के बीच खूनी हिंसा के चलते सबसे बड़ा सवाल इस बात का है कि क्या साक्षरता में नंबर वन, सेहत में नंबर वन केरल अब राजनीतिक हिंसा में भी नंबर वन बनने की तैयारी में है। आरएसएस और सीपीएम के कैडर इस कदर एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं कि ऐसा लगता है दोनों पक्षों का लक्ष्य सिर्फ खून का बदला खून है।
केरल ऐसा राज्य है, जहां भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं हासिल की थी। 2016 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को सिर्फ एक सीट मिल पाई थी। केरल में 55 फीसदी आबादी हिन्दुओं की है जो कि अगर भाजपा के पक्ष में लामबंद हो जाएं, तो भाजपा के लिए जीत की डगर काफी आसान हो सकती है। लेकिन भाजपा के जिन मुद्दों का जादू नॉर्थ इंडिया में चल जाता है वो केरल में नहीं चल पाता।
केरल में तकरीबन 45 फीसदी अल्पसंख्यक है। जिसमें 18 से 20 फीसदी क्रिश्चियन हैं और 25 से 27 फीसदी के लगभग मुस्लिम हैं। भाजपा के लिए मुस्लिमों को अपने पक्ष में लाना आसान नहीं है। इसलिए अपनी नैया को पार लगाने के लिए भाजपा क्रिश्चियन कम्युनिटी को अपने पक्ष में करना चाह रही है। जिस तरह से बिहार चुनावों में भाजपा की विरोधी पार्टियों ने महागठबंधन बनाया था। उसी तरह से केरल में भाजपा अपने आपको मज़बूत करने के लिए छोटी पार्टियों को साथ लेकर चलने की तैयारी में है। ये पार्टियां भारत धर्म जन सेना, जनाधिपत्य ऊरू विकासन मुन्नानि पार्टी। भारत धर्म जनसेना पार्टी एझवा कम्युनिटी के लोगों को रिप्रेज़ेंट करती है जिसकी संख्या राज्य में लगभग 23 फीसदी है। के.एम.मणि की पार्टी ''केरल कांग्रेस'' (ड) को कैथोलिक चर्च का सपोर्ट है। क्रिश्चियन डोमिनेटेड कोट्टयाम और इडुक्की ज़िले में इसकी पैठ काफी अच्छी है।
राजनीतिक हिंसा ने केरल में संघ और लेफ्ट कार्यकर्ताओं के बीच इतनी कटुता पैदा कर दी है कि दोनों को एक दूसरे से हमेशा जान का खतरा लगा रहता है। राजनीतिक विवाद तो सभी जगह है लेकिन केरल राजनीति में डर और हिंसा के लिए कुख्यात होता जा रहा है। अभी तक केरल के कन्नूर जिले में यह हिंसा हो रही थी लेकिन पिछले एक साल से यह राजधानी तिरुवनंतपुरम की सड़कों में भी फैल गई है। संघ और भाजपा का आरोप है कि जब से पिनाराई विजयन मुख्यमंत्री बने हैं तब से लेफ्ट कार्यकर्ताओं को हिंसा फैलाने की खुली छूट मिल गई है। विजयन कन्नूर जिले से आते हैं, जहां करीब 40 सालों से लेफ्ट और संघ के बीच हिंसा का तांडव जारी है। वैसे तो कन्नूर में हिंसा में पहली राजनीतिक हत्या 1969 में संघ के कार्यकर्ता की हुई थी।
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पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक, कन्नूर में 1983 से 2009 के बीच 91 राजनीतिक हत्याएं हुईं। जिसमें आरएसएस के 31 और लेफ्ट के 33 कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई। केरल की राजनीति में मुख्य मुकाबला लेफ्ट औ कांग्रेस के गठबंधन के बीच रहा है। जहां लेफ्ट को हिंदुओं का वोट मिलता रहा है। वहीं कांग्रेस की पैठ मुस्लिम और ईसाइयों को बीच रही है। कन्नूर में राजनीतिक हिंसा से अब तक करीब 300 लोगों की जान जा चुकी है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर लोग घायल हुए हैं कई लोग हमेशा के लिए विकलांग हो गए हैं। वैसे तो कन्नूर में हिंसा में पहली राजनीतिक हत्या 1969 में संघ के कार्यकर्ता की हुई थी। पर पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक, कन्नूर में 1983 से 2009 के बीच 91 राजनीतिक हत्याएं हुईं, जिसमें आरएसएस के 31 और लेफ्ट के 33 कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई।
केरल के मौजूदा मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन और संघ के बीच की दुश्मनी पुरानी है। विजयन कन्नूर जिले से चुनकर आते हैं जहां 40 सालों से लेफ्ट और संघ कार्यकर्ताओं के बीच खूनी संघर्ष चल रहा है।
संघ का आरोप है कि विजयन ने लेफ्ट कार्यकर्ताओं को हिंसा फैलाने की खुली छूट दे रखी है। लेकिन विजयन कहते हैं कि यह झूठ है और केरल में बीजेपी और संघ जानबूझकर माहौल खराब कर रहे हैं। 2014 लोकसभा और फिर 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 16 परसेंट तक उछल गया। इसने लेफ्ट को परेशान कर दिया।
भाजपा और संघ ने नई रणनीति के तहत दलितों में पैठ बढ़ानी शुरू कर दी है। सीपीएम को बैकफुट पर लाने के लिए भाजपा ने सोशल मीडिया में मौजूदा लेफ्ट सरकार और मुख्यमंत्री के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। इसी रणनीति के तहत संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्थानीय प्रषासन की रोक के बावजूद भी गणतन्त्र दिवस पर तिरंगा फहराकर कार्यकर्ताओं में जान डालने का काम किया।
दरअसल, केरल में पलक्कड़ जिला कलेक्टर ने आदेश दिया था कि सरकार से सहायता प्राप्त स्कूल में कोई जनप्रतिनिधि या स्कूल का प्रमुख ही झंडा फहराएगा। कर्नाकेयमन स्कूल आरएसएस समर्थकों का है और उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर संघ प्रमुख मोहन भागवत को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया था। प्रशासन की मनाही के बाद भी उन्होंने कर्नाकेयमन स्कूल में झंडा फहराया।
केरल में भाजपा के पास मध्यमवर्गीय हिंदूओं का मजबूत वोट बैंक तैयार हो रहा है। पर अगर हिंसा नहीं थमी तो मध्यवर्गीय हिंदू नाराज भी हो सकते हैं और कांग्रेस इस पर नजर टिकाए बैठी है। लेफ्ट अगर हिंसा रोकने में नाकाम रहता है तो केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार उसके खिलाफ सख्त रुख अपना सकती है। इसके अलावा कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होने से मुख्यमंत्री की छवि और साख दोनों को तगड़ा झटका लगेगा।
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केरल में 1942 में स्थापित हुआ था संघ
केरल में संघ की स्थापना 1942 में हुई थी। उसके बाद से ही संघ को केरल में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वाम मोर्चा ने 1947 में संघ प्रमुख गोलवलकर की एक सभा पर हमला किया था। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को एक सीट मिली थी। इसी के साथ भाजपा ने केरल में अपना खाता खोल लिया था। ये नतीजे सीपीएम और उसकी सहयोगी पार्टियों को हजम नहीं हो रहे हैं। वो बताते हैं कि केरल में संघ की 4,000 शाखाएं हैं। इसेक अलावा राज्य में संघ के 500 स्कूल हैं।
संघ परिवार और भाजपा की बढ़ती ताकत
कण्णूर में संघ परिवार की बढ़ती ताकत आंकड़ों में साफ झलकती है। 1990 से 2000 के दौरान जहां संघ की महज 100 शाखाएं लगती हैं। वहीं इन शाखाओं की संख्या अब 400 तक पहुंच गई हैं। यानी 400 जगहों पर संघ के 15-20 स्वयंसेवक रोज इक्ट्ठा होते हैं। संघ के प्रांत कार्यकारी से सदस्य वल्सन तल्लाइनकरी का दावा है कुछ शाखाओं पर स्वयंसेवकों की संख्या 100 तक पहुंच गई है। संघ के कैडरों की बढ़ती यही संख्या खुद कैडर आधारित माकपा के लिए बड़ा खतरा है। उनके अनुसार जैसे-जैसे कण्णूर में संघ का काम बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे उनके स्वयंसेवकों पर जानलेवा हमला भी बढ़ता जा रहा है।
माकपा के लिए असली खतरा सिर्फ संघ परिवार की बढ़ती शाखाएं नहीं हैं। बल्कि उसी अनुपात में भाजपा का बढ़ता जनाधार है। 2010 के पहले कण्णूर जिले में किसी भी चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों के वोटों की गिनती सैंकड़ों में सिमट कर रह जाती थी। 2011 के विधानसभा चुनाव में जिले की 11 विधानसभा सीटों पर भाजपा को कुल 55 हजार वोट ही मिले थे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में इसमें दोगुना बढ़ोतरी हुई और भाजपा उम्मीदवारों को मिले वोटों की संख्या एक लाख सात हजार पहुंच गई। दो साल बाद ही यानी 2016 में केरल के विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव हुए। दोनों ही चुनावों में भाजपा को मिले मतों की संख्या लगभग एक लाख 75 हजार को पार गई। यानी पांच सालों में भाजपा के वोटों की संख्या ढाई गुना से ज्यादा बढ़ गई।
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पिछले साल विधानसभा चुनाव में भाजपा पहली बार भले ही एक सीट जीतकर अपना खाता खोल पाई हो, लेकिन स्थानीय निकायों के चुनावों में उसकी आहट साफ सुनाई देने लगी है। कण्णूर जिले में पंचायत चुनावों में भाजपा को 32 सीटों पर सफलता मिली थी। जबकि 100 से अधिक सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे थे। पास के तिलसेरी नगर निकाय में 50 पार्षदों में भाजपा के पांच पार्षद चुनाव जीतने में सफल रहे हैं। वहीं पयीनूर विधानसभा क्षेत्र, जो माकपा का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता है, भाजपा उम्मीदवार 15 हजार वोट हासिल करने में सफल रहा था। कण्णूर के 11 विधानसभा क्षेत्र में से नौ पर कब्जा करने वाली माकपा भविष्य में भाजपा को असली चुनौती मानने लगी है। शायद यही कारण है कि 2016 के विधानसभा और स्थानीय चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन के बाद स्वयंसेवकों पर हमलों की संख्या तेजी से बढ़ गई है।
इमरजेंसी के बाद संघ ने उत्तरी केरल में अपनी जमीन तलाशने की शुरूआत की थी। वंचितों के बीच उसने जगह भी बनाई लेकिन वामपंथी और कांग्रेसी सरकारों के सामने उसकी उपस्थिति नगण्य ही रही। इधर 2014 के बाद देश के बदले हुए राजनैतिक समीकरणों के बीच संघ और भाजपा के नेताओं का जोश बुलंदी पर है। उन्हें लग रहा है कि केरल में वाम और कांग्रेस वर्चस्व को तोड़ने का ये मुफीद वक्त है।
पार्टी के वोट शेयर में महज 0। 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। 2016 के विधानसभा चुनावों में जहां उसे 15। 01 प्रतिशत वोट मिले थे वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों में यह वोट प्रतिशत बढ़कर 15। 06 तक ही पहुंचा। जिन तीन सीटों पर जहां सबरीमाला मुद्दे का सबसे ज्यादा असर पड़ने की संभावना थी, पार्टी ने अपने सबसे मजबूत प्रत्याशी उतारे थे लेकिन वहां भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिले।
राजनीतिक हिंसा ने केरल में संघ और लेफ्ट कार्यकर्ताओं के बीच इतनी कटुता पैदा कर दी है कि दोनों को एकदूसरे से हमेशा जान का खतरा लगा रहता है। राजनीतिक विवाद तो सभी जगह है लेकिन केरल राजनीति में डर और हिंसा के लिए कुख्यात होता जा रहा है। संघ चाहता है कि केरल में बन रहे माहौल को लेकर केंद्र उचित कदम उठाए। इसके लिए केरल में राष्ट्रपति शासन लगाया जाने की फरमाईश संघ ने केंद्र सरकार के आगे रखी है।
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- केरल में संघ और लेफ्ट के कई कार्यकर्ताओं की हत्या।
- लेफ्ट की कीमत पर भाजपा आगे बढ़ रही है इससे लेफ्ट में बैचेनी।
- कन्नूर, कोच्चि और तिरुवनंतपुरम में बीजेपी का असर तेजी से बढ़ा।
- केरल में संघ की सबसे ज्यादा 5500 शाखाएं।
- केरल में हिंसा खत्म होने के आसार कम।
दोनों पक्ष भले ही हिंसा से पल्ला झाड़ें पर हकीकत यही है कि मौजूदा राजनीतिक हालात में फिलहाल हिंसा थमने की उम्मीद कम है। इसकी वजह यह है कि कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं है। दोनों पार्टियों के पास जिस तरह के कार्यकर्ता हैं उसमें वो एक-दूसरे के सामने कमजोर नहीं दिखना चाहेंगे। दोनों पक्षों के तेवर से साफ लगता है कि आने वाले दिनों में दोनों दलों के बीच प्रतिस्पर्धा और बढ़ेगी।