Uttarakhand News: उत्तराखंड में मची तबाही, धधक रहे उत्तराखंड के जंगल, लगातार बढ़ रहे मामले
Uttarakhand Forest Fire: बीते 24 घंटों में गढ़वाल में 34, कुमाऊं में 41 और संरक्षित वन्यजीवों क्षेत्रों में आग लगने के तीन मामले सामने आए हैं।
Uttarakhand Forest Fire: तापमान बढ़ने के साथ साथ उत्तराखंड में दावानल यानी जंगल में आग लगने की घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं। पिछले छह दिनों में जंगल में आग लगने के 171 से अधिक मामले सामने आए हैं। बीते 24 घंटों में गढ़वाल में 34, कुमाऊं में 41 और संरक्षित वन्यजीवों क्षेत्रों में आग लगने के तीन मामले सामने आए हैं।
दिनों पौड़ी, अल्मोड़ा और नैनीताल आदि के रास्ते में जगह-जगह जंगल जलते हुए नजर आ रहे हैं। 'आग की बढ़ती घटनाएं जहां प्रकृति को नुकसान पहुंचा रही हैं, वहीं जलस्रोतों के सूखने से भी जल संकट पैदा हो रहा है।'
दरअसल, उत्तराखंड में चीड़ के जंगलों की बहुतायत है और उनका क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है। गर्मियों में चीड़ के पत्ते, जिन्हें स्थानीय तौर पर 'पिरूल' के नाम से जाना जाता है, जंगलों में आग लगने का मुख्य कारण रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक सैकड़ों हेक्टेयर में 'पिरूल' के कारण हर साल वन क्षेत्र जल जाता है।
वन क्षेत्र को नुकसान
1 नवंबर, 2022 से शुरू हुए वनाग्नि काल में अब तक जंगल आग की 647 घटनाएं सामने आ चुकी हैं और कुल 769 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है। भीषण गर्मी के साथ ही राज्य में जंगलों में आग लगने की घटनाओं में अचानक तेजी आई है। पिछले 24 घंटों में जंगल में आग की 78 घटनाएं दर्ज की गईं, जो इस वन क्षेत्र में एक दिन में दर्ज की गई सबसे बड़ी घटनाएं हैं।
कई हैं कारण
एक अध्ययन के मुताबिक चीड़ वनों में आग की पुनरावृत्ति 2 से 5 वर्षों में होती है और उत्तराखण्ड के 11 प्रतिशत वनों में हर वर्ष आग लगती हैं। मानव जनित आग के मुख्य कारणों में स्कूली बच्चों एवं ग्वालों का कौतूहलवश आग लगाना, स्थानीय निवासियों द्वारा खेतों की सफाई और कटीली झाड़ियों को जलाते समय आग का पास के जंगल में फैल जाना, मधुमक्खियों को भगाकर शहद निकालने, वन विभाग द्वारा नियन्त्रित आग लगाते समय अनियन्त्रित होकर जंगल में फैल जाना, घुमन्तु चरवाहों और लकड़हारों की लापरवाही, जलती तीली व बीड़ी-सिगरेट फेंक देना, रात्रि शिविर में पर्यटकों द्वारा भोजन बनाने इत्यादि के लिए आग जलाना अन्य कारण हैं। इसके अलावा भूमि पर कब्जा करने, वनीकरण की असफलता पर पर्दा डालने, आग के बाद गिरने वाले वृक्षों की नीलामी से स्थानीय ठेकेदारों को होने वाले लाभ, आदि भी आग लगने के कारणों में गिनाये जाते हैं। उत्तराखण्ड में 2002-03, 2003-04, एवं 2008-09 में प्रत्येक वर्ष क्रमशः 4983, 4850 एवं 4116 हेक्टर वन क्षेत्र चपेट में आये। वर्ष 2010-11 में न्यूनतम 232 हेक्टर वनअग्नि की चपेट में आये। यानी ये सिलसिला हर साल का है और इसका कोई समाधान अभी तक नहीं निकल पाया है।