BJP Vs Opposition Party: भारत में वैगनर 'पॉलिटिक्स', क्या गिरा पायेगी मोदी सरकार को
BJP-Modi Vs Opposition Party: शिव सेना (उद्धव ठाकरे) ने कहा है कि मोदी सरकार को "भारत का वैगनर ग्रुप" सत्ता से बेदखल कर देगा। यहां उन विपक्षी दलों को वैगनर ग्रुप बताया गया जो पटना में एक बैठक में मिले थे और मोदी - भाजपा के खिलाफ मिलकर लड़ने का ऐलान किया था।
BJP-Modi Vs Opposition Party: शिव सेना (उद्धव ठाकरे) ने कहा है कि मोदी सरकार को "भारत का वैगनर ग्रुप" सत्ता से बेदखल कर देगा। यहां उन विपक्षी दलों को वैगनर ग्रुप बताया गया जो पटना में एक बैठक में मिले थे और मोदी - भाजपा के खिलाफ मिलकर लड़ने का ऐलान किया था।
बहुत से लोगों को बुरा लग सकता है कि विपक्षी दलों और उनके नेताओं की तुलना वैगनर ग्रुप सरीखे भाड़े के सैनिकों के साथ कर दी गई। ये लोग नाराज़ हो कर आपत्ति कर सकते हैं। हालांकि अभी तक किसी ने नाराजगी दिखाई नहीं है।
बहुत से लोग खुश भी होंगे। वे कहेंगे कि ये तुलना सही है। ये नेता - दल हैं ही ऐसे, इनका कोई ईमान धर्म नहीं है। जिधर फायदा दिखा उधर हो लेते हैं।
दूसरी बात में दम है। लेकिन कुछ हद तक। क्योंकि देखा जाए तो देश के राजनीतिक मैदान में ज्यादातर नेता भाड़े के सैनिक नहीं तो और क्या हैं? आज इस दल में, कल दूसरे में। भाड़े का सैनिक भी तो यही करता है। उसकी कोई प्रतिबद्धता नहीं होती, कोई लॉयल्टी नहीं होती, कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता। जिसने पैसा दिया उसके हो लिए। "भाड़े के नेता" को भी क्या चाहिए - पैसा और पावर, जिसने दी उसी के पाले में खड़े हो ये।
वैगनर छाप नेताओं की सहालग तो चुनावी मौसम में आती है। जब थोक के भाव से "ग्रुप" बदले जाते हैं। इस कदर मिक्सिंग होती है कि समझ नहीं आता कौन बंदा किस ग्रुप में है। लोकसभा चुनाव आने वाले हैं, वैगनर छाप नेता आपको अनगिनत मिल जाएंगे। 1977 के बाद से केंद्र या राज्यों में कोई ऐसी सरकार नहीं बनी, जिसमें वैगनर ग्रुप का कोई न कोई सदस्य न रहा हो। बिना इनके सरकारों का न बनना लोकतंत्र व देश के लिए शुभ नहीं है।
हाल फ़िलहाल शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने महाराष्ट्र की सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद लेकर वैगनर ग्रुप की हक़ीक़त, ताक़त व प्रासंगिकता सब को एक बार फिर रेखांकित कर दिया है। उन्होंने वह पद लिया है जिसका संविधान में ज़िक्र ही नहीं है। उप मुख्यमंत्री व उप प्रधानमंत्री जैसे पद ग़ैर संवैधानिक हैं। इससे पहले कुछ इसी कहानी को थोड़े बड़े फलक पर एकनाथ शिंदे ने दोहराया था। वह चालीस विधायक लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन बैठे।
खानदानी बिजनेस
वैगनर के समानांतर भारत में एक और तरह के ग्रुप विद्यमान हैं। ये हैं खानदानी ग्रुप। जिस प्रकार दुनिया में पीढ़ी दर पीढ़ी फैमिली बिजनेस चलाये जाते हैं, उसी नक्शे कदम पर फैमिली पॉलिटिक्स चलाई जाती है। भारत में सभी राजनीतिक दलों में परिवार मौजूद हैं। लेकिन बहुत से दलों में एक ही परिवार चीजों को कंट्रोल करता है। ये किसी खानदानी शफाखाने की तरह हैं, जहां खानदानी नुस्खे पर इलाज चलता है। लेकिन एक - दो पीढ़ी गुजरने के बाद लोगों का भरोसा धीरे धीरे उठने लगता है। दुकान या तो बन्द हो जाती है या उसका स्वरूप बदल जाता है।
भारतीय जनता पार्टी और वाम दलों के अलावा, अधिकांश राजनीतिक दल परिवारों द्वारा नियंत्रित हैं - कांग्रेस, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, समाजवादी पार्टी, बीजू जनता दल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और तृणमूल कांग्रेस वगैरह।
तृणमूल कांग्रेस, बसपा, आरजेडी जैसी पार्टियां करिश्माई नेताओं के नेतृत्व में आगे बढ़ी हैं और पूरी तरह से उन पर निर्भर हैं। जयललिता की अन्नाद्रमुक भी ऐसी पार्टियों में शामिल हैं।
दूसरी तरफ कांग्रेस, सपा, द्रमुक और शिवसेना जैसे परिवार के नेतृत्व वाली पार्टियां पारंपरिक सत्ता यानी डायनेस्टी पर आधारित हैं। ये तब तक जीवित रहती हैं जब तक वंश परंपरा मजबूत रहती है। पार्टी के नेताओं के पास अपने समर्थकों को बनाये रखने के लिए शीर्ष नेतृत्व का पर्याप्त संरक्षण होता है।
परिवार के नेतृत्व वाली पार्टियां शायद ही कभी आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाती हैं। क्योंकि डायनेस्टी में लोकतंत्र नहीं होता। सच्चाई तो ये है कि डायनेस्टी और डेमोक्रेसी दोनों विलोम हैं। परिवार हमेशा सत्ता में रहना चाहता है। वह नहीं चाहता कि किसी के भी द्वारा परिवार के अधिकार को चुनौती दी जाते। वे केवल परिवार के भीतर से एक दूसरी पंक्ति को डेवलप होने, आगे बढ़ने देते हैं। इनके दरबार में मंत्री और सिपहसालार बहुत होंगे लेकिन भरोसा केवल परिवार के सदस्यों पर किया जाएगा। लेकिन जिस क्षण परिवार के सदस्य अपना करिश्मा खो देते हैं, या उनकी सफलता कमजोर होने लगती है या अपने अनुयायियों को संरक्षण देने की उनकी क्षमता घटने लगती है, तबसे पार्टी कमजोर होने लगती है। अगर पार्टी का स्वरूप न बदला तो पार्टी खत्म हो जाती है।
तृणमूल कांग्रेस
तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी इस तरह एक दूसरे के पर्याय हैं कि 24 साल से ये पार्टी अस्तित्व में है। लेकिन लोग सिर्फ पार्टी संस्थापक और चेयरपर्सन ममता बनर्जी को जानते हैं। बंगाल टीएमसी के अध्यक्ष और राष्ट्रीय महासचिव हैं सुब्रत बक्शी। लेकिन बंगाल के बाहर उनको शायद ही कोई जानता है। पार्टी का कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं है। ममता बनर्जी आज अपने को पार्टी से अलग कर लें तो टीएमसी में कोई नामलेवा नेता तक नहीं है। ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी ने प्रशांत किशोर के साथ मिलकर अपनी हैसियत बढ़ाने की कोशिश की थी। लेकिन ममता ने इसे सख्ती से कुचल दिया।
अन्नाद्रमुक
तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन यानी एमजीआर के निधन के बाद जे जयललिता ने अन्नाद्रमुक पर कंट्रोल जमाया। अपनी एकल व्यवस्था में पार्टी चलाई। 9 फरवरी, 1989 से 5 दिसंबर, 2016 तक अन्नाद्रमुक का नेतृत्व जयललिता ने पार्टी के महासचिव के रूप में किया। उन्हें "अन्नाद्रमुक की माँ" के रूप में जाना जाता था। 2016 में अपनी मृत्यु तक अपने करिश्माई व्यक्तित्व का जादू चलाती रहीं। उनकी पार्टी ने तमिलनाडु विधानसभा में सात बार बहुमत हासिल किया। राज्य के इतिहास में सबसे सफल राजनीतिक संगठन के रूप में उभरा। लेकिन जैसा कि एक शख्सियत पर टिके दलों के साथ होता है, जयललिता की मौत के साथ अन्नाद्रमुक बिखर गई। स्पष्ट नेतृत्व संकट ने पार्टी के सामने अस्तित्व का सवाल खड़ा कर दिया है। पार्टी वह वजूद हासिल नहीं कर पाई जो जयललिता के समय में था।
द्रमुक
तमिलनाडु की दूसरी द्रविड़ियन पार्टी है द्रमुक। यह पार्टी भी परिवार प्राइवेट लिमिटेड की तरह चलती आई है। इस पार्टी पर करुणानिधि परिवार का ही एकछत्र राज रहा है। परिवार के पुरोधा एम करुणानिधि पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे और 1969 से 2018 में अपनी मृत्यु तक पार्टी के नेता रहे। वैसे तो द्रमुक पार्टी की स्थापना अन्नादुरै ने की थी। लेकिन उस वृक्ष के फलों का पूरा मज़ा करुणानिधि और उनके परिवार ने लिया। पार्टी अब भी करुणानिधि परिवार के कंट्रोल में है। लेकिन धीरे धीरे इसकी चमक धूमिल पड़ती जा रही है और कई गुट इसमें बन गए हैं।
नेशनल कांफ्रेंस
जम्मू कश्मीर तक सीमित नेशनल कांफ्रेंस भी एक पारिवारिक "बिजनेस" है। शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और उनके सुपुत्र उमर अब्दुल्ला, इनके आगे पार्टी के किसी नेता का नाम शायद ही कोई जानता हो। नेशनल कांफ्रेंस और अब्दुल्ला फैमिली आपस में ऐसे गुंथे हुए हैं कि इस परिवार के बगैर पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं है। इस पार्टी ने विद्रोह देखे हैं । लेकिन सिर्फ अब्दुल्लाओं के निजी व्यक्तित्व के दम पर पार्टी चल रही है। मिसाल के तौर पर जुलाई 1984 फारूक के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने पार्टी को विभाजित कर दिया। केंद्र सरकार के इशारे पर हुई कार्रवाई में राज्यपाल ने फारूक को मुख्यमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया और उनकी जगह गुलाम मोहम्मद शाह को नियुक्त कर दिया। ये बात अलग है कि बाद में हुए चुनाव में अबदुल्ला जीत कर फिर सत्ता में आ गए।
शिव सेना
एक ऐसी शिवसेना जिसमें ठाकरे परिवार का एक भी व्यक्ति न हो। अकल्पनीय। 1966 में मराठी धरती पुत्रों के हितों की रक्षा के लिए बाला साहेब ठाकरे ने शिव सेना की स्थापना की और उसे अपने निजी "गैंग" की तरह चलाया। ठाकरे के अलावा पार्टी में न तो कोई सेकेंड लाइन थी न उसे पनपने दिया गया। अन्य खानदानी दलों की तरह शिव सेना की सबसे बड़ी दिक्कत पार्टी में दूसरे नेताओं की उपेक्षा रही है। पार्टी ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को कुछ ही हाथों में सीमित रखा। इसी नीति ने बहुतों को बर्बाद किया है और यही "बाला गैंग" के साथ हुआ। शिवसेना ने डायनेस्टी और वैगनर - दोनों तरह के रंग देखे और दिखाए हैं।
शिवसेना की ठाकरे डायनेस्टी को सबसे पहला झटका 1991 में छगन भुजबल ने "वैगनर" सरीखी पॉलिटिक्स करते हुए दिया जब उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने के लिए शरद पवार से हाथ मिलाया। भुजबल शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की वैगनर सेवा कर चुके हैं।
ऐसे ही नेता हैं नारायण राणे। ये थे शिव सैनिक और मुख्यमंत्री तक रहे लेकिन 2005 में पार्टी छोड़ने का फैसला किया। भुजबल की तरह, राणे ने भी किसी पद या पोर्टफोलियो के अभाव में पार्टी नहीं छोड़ी थी। उनकी शिकायत यह भी थी कि निर्णय लेने में उनकी उपेक्षा की जा रही थी। राने ने शिवसेना के बाद कांग्रेस की सेवा की, महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष नामक पार्टी बनाई और फिर भाजपा में घुल गए।
शिवसेना को झटका देने वालों में ठाकरे खानदान के राज ठाकरे भी पीछे नहीं रहे। राणे द्वारा पार्टी छोड़ने के कुछ महीने बाद, शिवसेना में एक और हाई-प्रोफाइल विद्रोह हुआ। इस बार युवा फायरब्रांड नेता राज ठाकरे ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना में खुद को अलग-थलग महसूस किया और उन्होंने अपना संगठन, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाने का फैसला किया। 2009 में अपने पहले चुनाव में मनसे की शानदार सफलता रही जिसमें उसने 288 सदस्यीय राज्य विधानमंडल में 13 सदस्यों को भेजा। लेकिन इसके बाद राज ठाकरे को अपनी पार्टी से वैगनर नेताओं के पलायन का सामना करना पड़ा। उद्धव की तरह राज ठाकरे ने एक ही पुरानी गलती दोहराई - वे अपने संगठन को एक व्यवस्थित राजनीतिक दल में बदलने में नाकामयाब रहे।
अब एकनाथ शिंदे प्रकरण में शिव सेना अपना पुराना इतिहास दोहरा रही है। इसी तरह लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल, शिबू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा, उत्तर प्रदेश में सोने लाल पटेल के नाम पर बनी दोनों अपना दल, संजय निषाद की निषाद पार्टी, नीतीश कुमार की जेडीयू, राम विलास पासवान के नाम पर चलने वाली दोनों पार्टियाँ, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी, ओम प्रकाश राजभर आदि नेताओं का दल देखिये तो इनके समर्थकों को यह तक समझ में नहीं आता है कि पार्टी सुप्रीमो सभी महत्वपूर्ण पद अपने परिवार में रखते हैं। परिवार को संतृप्त करने बाद पद बाहर दिये जाते हैं। टिकट बेचने के प्रसंग भी इन दलों में आम होते रहते हैं। यानी अपना ही आर्थिक साम्राज बढ़ना सुप्रीमो का काम होता है। आख़िर यही तो काम वैगनर ग्रुप के सुप्रीमो के होते हैं। वहाँ भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता। वैगनर सरीखे ग्रुप कोई धर्मार्थ कार्य या जन सेवा करने के काम नहीं करते। वहां "मालिक" का उद्देश्य पैसा और पावर कमाना है। और इसी चाहत में दूसरे बड़े दलों के साथ हाथ मिलाए जाते हैं, दिल मिलाए जाते हैं। बातें "समान विचारधारा" की होती हैं लेकिन अपने ही स्वार्थों में घिरी जनता ये जान कर भी जानना समझना नहीं चाहती कि "समान विचारधारा" सिर्फ माल कमाने और दबदबा बनाने की ही होती है।
महाराष्ट्र में राजनीतिक वैगनर ग्रुप की कारगुजारियां सामने हैं। ऐसे वैगनरों के कारनामे अभी कई जगह देखे जाएंगे। ये सतत प्रक्रिया है। कौन कहां खड़ा मिलेगा आप हिसाब ही नहीं रख पाएंगे। ये तो भारत के महान लोकतंत्र का हिस्सा हैं। लेकिन आप भी अपने को अलग न मानिए, क्योंकि ऐसों को वोट देकर हौसलाअफजाई करने वाले आप भी कम वैगनर नहीं हैं। अपनी चौपाल चर्चा में इस पर सोचिएगा जरूर।