1980 Moradabad Riots: दंगा, जिसकी रिपोर्ट बतायेगी कौन है कितना गंदा

1980 Moradabad Riots:योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इसे सार्वजनिक करने का फ़ैसला लिया है, तब यह उम्मीद जगी है कि विधानसभा के अगले सत्र में यह रिपोर्ट पटल पर रखी जायेगी।

Update: 2023-05-20 15:43 GMT
1980 Moradabad Riots: photo: social media

1980 Moradabad Riots: योगी कैबिनेट ने 1980 में हुए मुरादाबाद दंगे की रिपोर्ट सार्वजनिक करने का फ़ैसला किया है। यह रिपोर्ट चालीस साल से ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है। इस दंगे की जाँच के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम.पी. सक्सेना की अगुवाई में एक आयोग बना था। 20 नवंबर,1983 को इस आयोग ने अपनी जाँच रिपोर्ट तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंप दी थी। लेकिन अभी तक इसे सार्वजनिक नहीं किया गया है। पर आज जब योगी आदित्य नाथ की सरकार ने इसे सार्वजनिक करने का फ़ैसला लिया है, तब यह उम्मीद जगी है कि विधानसभा के अगले सत्र में यह रिपोर्ट पटल पर रखी जायेगी। पर इसे लेकर जितने मुँह उतनी बातें हो रही हैं। ऐसे में इस दंगे के हालात से लेकर रिपोर्ट तक जो कुछ कह रही है, उसके बारे में सत्य व तथ्य दोनों को सामने रखना ज़रूरी हो जाता है।

ईद का था दिन

बात तेरह अगस्त, 1980 की है। ईद का दिन था। मुरादाबाद में ईद की नमाज़ अदा की जा रही थी। भारी भीड़ थी, लिहाज़ा मस्जिद के काफ़ी बाहर तक लोग बैठकर नमाज़ अदा कर रहे थे। कहा जाता है कि इसी बीच कहीं से एक सुअर नमाज़ियों के बीच घुस गई। नमाज़ियों ने वहाँ तैनात पुलिस से सुअर हटाने को कहा। पुलिस ने हीलाहवाली की और कहा कि सुअरों को भगाना उनका काम नहीं है। बात बढ़ती गई। पुलिसवालों को पीट दिया गया। भीड़ हिंसक हो गई और पत्थरबाजी करने लगी।पथराव में एसएसपी विजय नाथ सिंह का सिर फूट गया। जैसे ही वह जमीन पर गिरे। पुलिस ने ईदगाह के मेन गेट पर फायरिंग शुरू कर दी।चश्मदीदों के मुताबिक, फायरिंग से भगदड़ मच गई। कई लोग मारे गये।

नाराज भीड़ ने ईदगाह से कुछ सौ मीटर दूर गलशाहीद में निकटतम पुलिस चौकी में आग लगा दी। वहां दो कांस्टेबलों की मौत हो गई।एक पीएसी कांस्टेबल को जला कर मार डाला। इसके बाद कथित तौर पर पुलिस ने स्थानीय मस्जिद और व्यवसायों को आग लगा दी। लोगों को उनके घरों से बाहर निकाला गया। ईदगाह पर जमा मुस्लिम भीड़ ने आसपास की दलित बस्तियों में सामूहिक लूटपाट और आगज़नी की ।

गलशाहीद इलाके में हर्बल दवा की दुकान चलाने वाले फहीम हुसैन का घर पुलिस चौकी के ठीक पीछे है। फहीम ने दंगे में अपने परिवार के चार सदस्यों को खो दिया। उनके मुताबिक़ चौकी के आसपास रहने वाला हर व्यक्ति दंगे के लिए दोषी था। उस रोज हुसैन के दादा, चाचा और नौकर को पुलिसवाले पकड़ कर ले गए और आज तक उनका कोई अतापता नहीं है। हुसैन की 70 वर्षीय मां साजिदा बेगम आज भी अपने पति का इंतजार कर रही हैं। साजिदा बेगम के मुताबिक़ पुलिस उनको बताती रही कि वह जेल में हैं। साजिदा बताती हैं कि तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हमारे घर आईं थीं। उन्होंने मुझे वित्तीय मदद की पेशकश की। लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं अपने पति को वापस चाहती थी।

ईदगाह से सटे मोहल्ले में रहने वाले मोहम्मद नबी तब 32 साल के थे। उस दिन को याद करते हुए वे कहते हैं - "हम सभी भागने की कोशिश कर रहे थे। कुछ लोग अपने बच्चों को कंधे पर उठाकर भाग रहे थे। कई लोगों को कुचल दिया गया। कुछ लोगों को बिजली के तार से करंट लग गया। मैंने लाशों को अपने हाथों से उठाया है।

मोहल्ले के एक दर्जी इंतेजार हुसैन के मुताबिक़ गोलियों की आवाज से उनकी नींद खुली। उन्होंने खून से लथपथ लोगों को इधर-उधर भागते देखा। जैसे ही उन्होंने बगल की मस्जिद में शरण ली, एक गोली उनके सिर से गुजर गई. "मैं भाग्यशाली हूं जो बच गया। इंसाफ को भूल जाइए, पुलिस स्टेशन में एक सुनवाई भी नहीं थी।”

पड़ोसी मोहम्मद आलम की मां की कथित तौर पर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उनके घर में सभी सामानों को आग लगा दी गई। स्थानीय मस्जिद के इमाम पुत्तम अली को कथित तौर पर खींचकर बाहर निकाला गया। मस्जिद को जलाने से पहले उन्हें गोली मार दी गई। उनकी याद में अब मस्जिद का नाम बदलकर पुत्तम शहीद मस्जिद कर दिया गया है। गलशाहीद में रहने वाले और उस समय 15 साल के डॉ निसार अहमद ने आरोप लगाया कि पीएसी घटना के दौरान और बाद में हुई हिंसा में शामिल थी। उन्होंने कहा, 'यह हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था। यह एक पुलिस-मुस्लिम दंगा था।'

हालाँकि मोहम्मद नबी कहते हैं - "हम जब हम भागे तो हिंदुओं ने हमें अपने घरों में शरण दी। कई लोग पुलिस के प्रतिशोध के डर से कई दिनों तक हिंदुओं के घरों में रहे। फिर एक हफ्ते के अंदर अचानक यह दंगा हिंदू-मुस्लिम दंगा बन गया। इस सब के पीछे पुलिस ही थी। अहमद जो ईदगाह के पास रहते हैं, तब सिर्फ 10 साल के थे, वे कहते हैं, "बीएसएफ और सेना के शहर में आने के बाद ही कुछ आदेश बहाल किए गए थे, महीनों तक कर्फ्यू लगा रहा। मुरादाबाद में ईदगाह के आसपास की सड़कें कथित बर्बरता की ऐसी ही कहानियों से भरी हुई हैं। इसे लोग यूपी में अब तक की सबसे खराब सांप्रदायिक हिंसा कहते हैं।

उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव, जिन्होंने इस दंगे को कवर किया, वह बताते हैं - हमने “ द हिडेन हैंड “ के नाम से जो खबर लिखी थी, उसे इंदिरा गांधी ने पंद्रह अगस्त के लालक़िले से दिये गये अपने भाषण में कोट किया था। पर तीन दिन बाद पता नहीं क्या हुआ कि उन्होंने पूरी तरह यू टर्न ले लिया।”

विक्रम राव के मुताबिक़, मस्जिद के बाहर नमाज़ पढ़ी जा रही थी। हमने आस पास के वाल्मीकि व खटिक बिरादरी के लोगों व नेताओं से न केवल बात की बल्कि सच पता लगाने की बहुत कोशिश की। पर यह तथ्य हाथ नहीं लगा कि क्या जानबूझकर सुअर छोड़ा गया था? विदेशी अख़बारों ने इसकी रिपोर्ट कुछ इस तरह की - "लाशें गिर गयीं एक चौपाये की वजह से।”

प्रायोजित दंगा

उस समय के मुरादाबाद के माहौल पर जायें तो यह कहना ही पड़ेगा कि यह दंगा प्रायोजित था। सच यह है कि इस दंगे की शुरुआत उस साल के मार्च महीने से ही हो गयी थी। इसी महीने से मुरादाबाद सुलगने लगा था। मार्च, 1980 में कुछ मुसलमानों द्वारा एक दलित लड़की के अपहरण के बाद से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव चरम पर था। दलित और मुसलमान एक ईदगाह के पास अलग अलग बस्तियों में रहते थे। बाद में लड़की को बचा लिया गया। अपहरणकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया।

जुलाई 1980 में, एक दलित लड़के की शादी के दिन, कुछ मुसलमानों ने मस्जिद के पास तेज संगीत की शिकायत करते हुए बारात में बाधा डाली। विवाद जल्द ही दो समुदायों के बीच हिंसक झड़प में बदल गया। इसके बाद भी कई घरों में लूटपाट की गई।

इन घटनाओं के साथ यह नहीं भूलना चाहिए कि विभाजन के समय मोहम्मद अली जिन्ना ने कराची से ढाका के संपर्क मार्ग हेतु गलियारा माँगा था। लेकिन सरदार पटेल ने इसे ख़ारिज कर दिया था। उस गलियारे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल, मुरादाबाद और रामपुर शामिल होते। 1946 में पाकिस्तान के पक्ष में यहाँ मुस्लिम लीग को व्यापक समर्थन मिला था।

सन 80 और ईद का दिन

13 अगस्त, 1980 को मुरादाबाद में ईद की नमाज़ के दौरान दलित बस्ती का एक पालतू सुअर ईदगाह में भटक गया। वहां पर लगभग 50,000 मुसलमान ईद की नमाज़ में शामिल थे। सुअरों को हराम मानने वाले मुसलमानों का मानना था कि उस सुअर को हिंदू दलितों ने जानबूझकर छोड़ा था। हिंसा तब भड़की, जब कुछ मुसलमानों ने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया। जब एक पत्थर उनके माथे पर लगा तो एसएसपी विजय नाथ सिंह गिर गए। अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) डीपी सिंह को कुछ लोगों ने खींच लिया; वह बाद में मृत पाये गये। इसके बाद पुलिसकर्मियों ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। पुलिस के साथ प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) भी तैनात थी जो जिला मजिस्ट्रेट के साथ ट्रकों में पहुंचे थे।

अगले दिन, 14 अगस्त को, जमात-ए-इस्लामी ने विभिन्न राजनीतिक दलों के मुस्लिम नेताओं की एक सभा का आयोजन कर दंगों की निंदा की। इसके बाद, हिंसा ने एक धार्मिक प्रकृति प्राप्त कर ली और यह ग्रामीण इलाकों में फैल गई। पड़ोसी शहर अलीगढ़ भी इसकी चपेट में आ गया। हालात इतने खराब हो चले कि हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सेना के जवानों को तैनात किया गया। 2 सितंबर तक मुरादाबाद में स्थिति नियंत्रण में आ गई। सेना पीछे हटने लगी। लेकिन फिर भी नवंबर,1980 तक हिंसा छोटे पैमाने पर जारी रही। हिंसा हिंदुओं के पर्व रक्षा बंधन के दिन भी हुई।

मुरादाबाद के एक स्थानीय नेता और वकील, काज़ी तस्लीम हुसैन ने मुरादाबाद रेलवे स्टेशन के पास इस्लामिक मुसाफ़िर खाना को शहर में अलगाववादी राजनीति के केंद्र में बदल दिया। दूसरी ओर, हिंदू संगठनों, आर्य समाज और आरएसएस ने मुसलमानों के खिलाफ अभियान चलाते हुए शहर में अखाड़ों का आयोजन किया। कुल मिलाकर इस हिंसा में 83 लोग मारे गये। 112 लोग घायल हुए। लेकिन असली संख्या पर बहुत दावे हैं, जो काफी डरावने हैं।

मुरादाबाद की वह वाल्मीकि बस्ती कभी चहल-पहल वाला इलाका हुआ करती थी। अब वहां पर सिर्फ 10 घर हैं। दोनों समुदाय लंबे समय से एक साथ रहते थे। लेकिन ईदगाह की घटना ने खाई पैदा कर दी। ईदगाह गोलीबारी के बाद कुछ समय के लिए यहां चीजें बदतर हो गईं। तब से बहुत से लोग इस क्षेत्र को छोड़ चुके हैं। कई पंजाबी हिंदू भी बाहर चले गए हैं।

मुस्लिम नेता सैय्यद शहाबुद्दीन ने गोलीबारी की तुलना जलियाँवाला बाग कांड से की। पूर्व पत्रकार और बीजेपी के पूर्व सांसद एमजे अकबर ने अपनी पुस्तक 'रायट आफ्टर रॉयट' में इस घटना के बारे में लिखा, “ यह हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था। बल्कि एक क्रूर सांप्रदायिक पुलिस बल द्वारा मुसलमानों का सुनियोजित नरसंहार था।”

बदनाम की गई पीएसी

इस दंगे में पीएसी को इतना बदनाम किया गया कि उस समय की पुलिस भर्ती में मुसलमानों की भर्ती के लिए रियायत दी गई। कहा तो यहाँ गया कि पीएसी हिंदू हित बल है। उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी और वर्तमान सांसद बृजलाल बताते हैं - ”मैं पीएसी भर्ती का इंचार्ज था। हमें कहा गया कि पीएसी भर्ती में मुसलमानों को भी जगह दें। हमने बहुत कोशिश की पर कोई योग्य उम्मीदवार ही नहीं मिला।

जब हमने इंटरव्यू में मुसलमान उम्मीदवारों के प्रति उदारता बरतते हुए ज़्यादा नंबर दिये तब जाकर पाँच मुसलमान ही भर्ती हो पाये। इस दंगे के बाद दो बड़े बदलाव करने पड़े। पूर्व आईपीएस अधिकारियों राजेश पांडेय की मानें तो उसी के बाद से हर शहर में ईद के आसपास सुअरों की गणना आज तक की जाती है। सुअर पालने वाले को अपने क़रीब के थाने पर एक शपथपत्र देना पड़ता है कि उसके पास कुल कितने सुअर हैं। ये खुले में नहीं हैं। सब के सब बाड़े में बंद हैं।

शमीम अहमद की भूमिका

आरोप प्रत्यारोप जो भी हों, पर सूत्रों की मानें तो जस्टिस सक्सेना की रिपोर्ट बताती है कि पुलिस पर लगे आरोपों को सही नहीं पाया गया। बल्कि मुस्लिम लीग के नेता डॉ शमीम अहमद को प्रशासन को बदनाम करने व हिंसा को अंजाम देने का ज़िम्मेदार ठहराया गया। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि शमीम अहमद ने ही वाल्मीकि समाज और पंजाबी हिंदू समुदाय के लोगों को फंसाने के लिए इस दंगे की साजिश रची थी। उन्होंने समर्थन हासिल करने के लिए वाल्मीकि समाज और पंजाबी हिंदुओं पर दोष लगाया।

लोगों के बीच चर्चा आम है कि जस्टिस सक्सेना आयोग की रिपोर्ट उस समय के चश्मदीद गवाहों और मीडिया रिपोर्टों के उलट है, जो मुरादाबाद दंगों के लिए पुलिस को दोषी ठहराते हैं। न्यायमूर्ति सक्सेना की रिपोर्ट में मुस्लिम नेताओं और वीपी सिंह को हिंसा के लिए दोषी ठहराया गया है। अब भाजपा यह बताना चाहती है कि धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली कांग्रेस सरकारों ने किस तरह सांप्रदायिकता फैलाई। इसमें भी वह कहाँ और किसके साथ खड़ी थी। इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इसकी जाँच के दौरान जस्टिस सक्सेना अवसाद के शिकार हो गये। क्योंकि उनके पुत्र का अपहरण हो गया था।

इस्लामी कट्टरता

पहली बार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट, सत्तारूढ़ कांग्रेसी, अकादमिक लोग, न्यायविद् सभी सहमत थे कि इस्लामी कट्टरता ही इस दंगे की दोषी है। के विक्रम राव ने तो उस दौर में अपनी रिपोर्ट में यहाँ तक लिखा था कि सऊदी अरब से इस पीतल नगरी में रियाल भेज कर ज़हर फैलाया जा रहा है। बर्तनों के दाम कई गुना बढ़ा कर निर्यात होता है। भारी रक़म बर्तन निर्माता मुसलमानों को गुप्त रूप से दी जाती है। इस लाभांश से नई मसजिदों का निर्माण और पुरानी का नवीनीकरण, मदरसों में बहाबी कट्टर शिक्षा तथा गजवा ए हिंद द्वारा इस हिंदू बहुल भारत को दारूल इस्लाम बनाने के प्रयासों आदि में निवेश किया जाता रहा। हज जाने वाले मुसलमान लौटने पर आधुनिक शस्त्र लाते हैं। जो यहाँ मोटे मुनाफे में बेचे जाते हैं।

केवल के विक्रम राव ही नही, इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के रोटेशन थापा ने भी लिखा है कि हिंदू संप्रदायवाद से लड़ाई तभी सफल गोली जब इसलामी संप्रदायवाद ख़त्म होगा।वामपंथी लेखक के आर गांधी ने तो इस्लामी राष्ट्रों को ही मुरादाबाद दंगों के लिए अपराधी माना था।

मुरादाबाद का वह दंगा, आज़ाद भारत का पहला सबसे बड़ा दंगा था। 43 बरस बीत चुके हैं। 80 के बाद की जेनरेशन को तो शायद इस दंगे के बारे में पता भी न हो। लेकिन जिन्होंने इस दंगे के दंश को झेला है, जिन्होंने अपनों को खोया है, जो अपने घर खो बैठे, जिनकी पूरी जिंदगी बदल गई, उनकी सोचिए। उस दंगे के षड्यंत्रकारियों, हत्यारों, लुटेरों, दोषियों को क्या कोई कानूनन सज़ा हुई? शायद नहीं। आज न इंदिरा गांधी हैं और न वीपी सिंह। कितनी सरकारें आईं और गईं। अब रिपोर्ट आएगी, देखिए कौन से जख्म कुरेदे जाते हैं, कौन सा मलहम लगाया जाता है, या कौन सी राजनीति शुरू होती है। चार दशक इंतजार कर लिया, कुछ और करके देख लीजिये।

(लेखक पत्रकार हैं।)

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