लखनऊ : उत्तर प्रदेश के उपचुनाव एक राजनीतिक प्रयोगशाला बनने जा रहे है। ऐसी प्रयोगशाला जो मोदी विरोध को नई धार दे सकती है। ऐसी प्रयोगशाला जो महागठबंधन पार्ट 2 बन सकती है। उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के एक होने की इबारत की इब्तदा कही जा सकती है पर इस शुरुआत के लोकसभा चुनाव तक मुकम्मल होने के लिए लंबा रास्ता तय होना है।
दरअसल उपचुनाव की दो सीटों पर समर्थन की शक्ल में हुआ यह गठबंधन महागठबंधन की शक्ल ले पाएगा यह कहना दूर की कौड़ी है। दरअसल इस गठबंधन के पेंच आम चुनाव में काफी ज्यादा हैं
बसपा के पास खोने को कुछ नहीं
बसपा के इस समर्थन को लेकर यह आस बांधी जा सकती है कि मोदी विरोध दो धुर विरोधियों को एक कर सकता है। पर सवाल यह है कि यह समर्थन क्या 2019 तक चलेगा। इसको लेकर बहुत से सवालों का उत्तर दिया जाना जरुरी है। बसपा के पास इस उपचुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं और पाने के लिए बहुत कुछ है। इन दोनों सीटों पर बसपा ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं। ऐसे में समर्थन करने का लाभ भी बसपा को है, यह अपने वोटों के बिखराव को रोकने और उपचुनाव में राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की चाल भी है। अगर समर्थित उम्मीदवार जीतता है तो श्रेय के साथ राजनीतिक आवाज की ताकत बढेगी, अगर हार भी गया तो बसपा का कुछ खास जाने वाला नहीं है।
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इस समर्थन के जरिए राजनीतिक सौदेबाजी
बसपा विधानसभा में महज 19 सीट जीत सकी है और सपा के पास 47 सीट है। वहीं कांग्रेस के पास 7 सीट है। ऐसे में सपा राज्यसभा में 1 उम्मीदवार जिता सकती है पर तीनों पार्टियां मिलकर 2 उम्मीदवार जिता सकती है। माना जा रहा है कि मोदी विरोध के नाम पर एका से बसपा अपना एक उम्मीदवार राज्यसभा पहुंचा सकती है। वहीं अगर बसपा के समर्थन के बाद सपा का उम्मीदवार जीतता है तो बसपा आगे की राजनीतिक सौदेबाजी में मजबूत होगी। वैसे भी भाजपा इसे अवसर वादी बता चुकी है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो इसे बेर केर का संग भी करार दे चुके हैं।
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राह में बहुत से रोड़े
इस समर्थननुमा गठबंधन से आगे की राह तलाश रहे राजनीतिक पंडितों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव का गठबंधन बहुत ही अलग होता है। उत्तर प्रदेश में 25 साल बाद एक तरफ दिखने वाले सपा बसपा के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा इस राह का बड़ा रोडा है। इस समय लोकसभा हो या विधानसभा दोनों जगहों पर सीटों के लिहाज से सपा बसपा से बड़ी पार्टी है। ऐसे में मायावती किसी भी गठबंधन में जूनियर पार्टनर बनकर रहें यह बहुत ही मुश्किल है।
अतीत में सपा के साथ 1990 के दशक में हो या फिर भाजपा के साथ जैसे ही मायावती ड्राइविंग सीट से हटीं तो गठबंधन टूट गया था। मायावती की राजनीतिक शैली को जानने वाले यह जानते हैं मायावती नंबर 2 बन नहीं सकतीं और गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी की स्थिति नंबर एक की दिखती नहीं। यह जरुर है कि स्टेट गेस्ट हाउस कांड की टीस मायावती की जरुर अखिलेश यादव की शैली ने कम दी हो जब उन्होंने मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष पद से अपदस्थ और शिवपाल को पार्टी में हाशिये पर डाल दिया है।
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बड़ी सियासत के बड़े सवाल
यूपी में सपाई से बसपाई हुए अंबिका चौधरी कह चुके हैं सपा बसपा को साथ आना होगा। दबी जुबान मायावती के करीबी भी यह मान चुके हैं। पर बसपा में फैसला मायावती ही लेती हैं ऐसे में कुछ न खोकर समर्थन देने का फैसला तो उन्होंने कर लिया पर सीटों के बंटवारे से लेकर गठबंधन की शक्ल पर कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी। क्योंकि बिहार में भी गठबंधन तभी बना था जब लालू ने नीतीश को नेता और गठबंधन का चेहरा माना था।