UP इतना पीछे! नीति आयोग की रिपोर्ट ने खोली विकास की पोल

Update:2017-11-17 12:09 IST

जिस उत्तर प्रदेश ने देश को नौ प्रधानमंत्री दिए उस सूबे के 53 जिले पिछड़े हुए हैं। जी हां, यह सच्चाई है और यह बात हम नहीं बल्कि देश का नीति आयोग कह रहा है। लगभग हर राजनेता इस बात को मानता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरता है। नरेन्द्र मोदी को पीएम बनाने में भी यूपी की बड़ी भूमिका रही है। फिर उस प्रदेश की इतनी अनदेखी क्यों? यह सवाल हर किसी के दिमाग को झकझोरता है। इसका जवाब यह है कि विकास का नारा देकर यहां से चुनाव जीतने वाले सभी नेताओं ने सिर्फ अपना उल्लू सीधा किया है। विकास के नाम पर ब्लेम गेम खेला है। जब हम विकास के पैमाने पर उत्तर प्रदेश को तौलते हैं तो हमारी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। हम न सिर्फ उत्तर पूर्वी राज्यों बल्कि उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि नए राज्यों से काफी पीछे हैं।

योगेश मिश्र

लखनऊ: उत्तर प्रदेश ने देश को नौ प्रधानमंत्री दिए हैं। यह प्रदेश कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का शक्ति केन्द्र रहा। इन दोनों दलों को संचालित करने वाले नेता इसी राज्य से हैं। सपा और बसपा जैसे मजबूत क्षेत्रीय दलों की ताकत उत्तर प्रदेश से ही बनती है। राम-कृष्ण, बुद्ध और महाबीर की जमीन है उत्तर प्रदेश। जो नेता यहां सत्ता में आता है, वही विकास की बीन बजाने लगता है।

कोई उत्तम प्रदेश और कोई सर्वोत्तम प्रदेश बनाने का दावा करने लगता है। लेकिन पिछले दिनों प्रदेश के भ्रमण पर आई नीति आयोग की टीम ने इस तरह के दावेदारों के साथ ही साथ सूबे में राजनीति करने वाले सभी सियासी दलों और राजनेताओं के सामने ऐसे सवाल खड़े किए हैं, जो उन्हें यह सबक देते हैं कि उनका कहा हुआ सबकुछ बेमानी है। हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने सिर्फ अपना उल्लू सीधा किया है। विकास के नाम पर ब्लेम गेम खेला है।

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नीति आयोग के मुताबिक देशभर के पिछड़े हुए 201 जिलों में से अकेले 53 जिले उत्तर प्रदेश में हैं जो राज्य में जिलों की संख्या के हिसाब से 70 फीसदी के आसपास बैठता है। देश के किसी भी राज्य के 70 फीसदी जिले पिछड़े नहीं हैं। इस लिहाज से देखे तो हम बिहार, उड़ीसा और नव गठित राज्यों को भी पीछे नहीं छोड़ पाए हैं। यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि देश के सबसे प्रदूषित शहर में उत्तर प्रदेश का गाजियाबाद अव्वल है। सूबे में लखनऊ, कानपुर, बनारस, मुरादाबाद, नोएडा में प्रदूषण इस हद तक बढ़ चुका है कि इनकी आबोहवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है।

नीति आयोग ने यह बात यंग लाइव्स लांजीट्यूडिनल सर्वे के आधार पर कही है। लेकिन परेशान करने वाला सच यह भी है कि उत्तर प्रदेश का कोई भी जिला विकास के मानदंड पर खरा नहीं उतरता है। हद तो यह है कि पुराने और नये शहरों के बाशिंदों को बिजली, सडक़, पानी, पढ़ाई, दवाई एक सरीखी मयस्सर नहीं है। यह स्थिति सोनिया गांधी के रायबरेली, राहुल गांधी के अमेठी, मुलायम सिंह के मैनपुरी, मायावती के बिजनौर और सहारनपुर, नरेंद्र मोदी के बनारस, डा. मुरली मनोहर जोशी के कानपुर, अखिलेश यादव के कन्नौज, योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर सहित सभी जिलों की है।

जिन-जिन जिलों से प्रधानमंत्री हुए हैं उन जिलों की स्थिति बदतर ही है। वह चाहे चंद्रशेखर का बलिया हो या राजीव गांधी का सुल्तानपुर, इंदिरा गांधी का रायबरेली, चरण सिंह का बागपत, जवाहर लाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और विश्वनाथ प्रताप सिंह का इलाहाबाद और अटल बिहारी बाजपेयी का लखनऊ हो, सबके सब विकास की दौड़ में विकलांग हैं।

नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाएड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के आंकड़ों के मुताबिक देश में निवेश के हिसाब से सर्वोत्तम मुकाम गुजरात है। सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उत्तर प्रदेश की स्थिति निवेश के लिहाज से नीचे से दूसरी है। लालफीताशाही, बिजली की किल्लत व इंफ्रास्ट्रक्टर का ढांचा न होने के कारण कोई भी निवेशक उत्तर प्रदेश में निवेश नहीं करना चाहता। निवेश के लिहाज से उत्तर प्रदेश से नीचे सिर्फ पश्चिम बंगाल ही है।

देश की जनसंख्या का महज पांच फीसदी आबादी वाला गुजरात देश के जीडीपी में 7.6 फीसदी योगदान करता हे। जबकि 16 फीसदी जनसंख्या वाला उत्तर प्रदेश भी इसी के आसपास ही रह जाता है। लेकिन गुजरात की विकास दर 12 फीसदी ठहरती है, जबकि उत्तर प्रदेश की महज छह फीसदी। औद्योगिक नीति व विकास विभाग के आंकड़े के मुताबिक उत्तर प्रदेश रैंकिंग में दसवें स्थान से चौदहवें स्थान पर पहुंच गया है जबकि दूसरे राज्यों ने इस मामले में छलांग लगाई है।

सांख्यकी मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय के मामल में गोवा देश में अव्वल है, जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, असम व झारखंड इस मामले में सबसे फिसड्डी राज्य हैं। मजे की बात यह है कि बिहार 33वें और उत्तर प्रदेश 31वें पायदान पर रहा। वर्ष 14-15 में बिहार में प्रति व्यक्ति आय 36 हजार 143 रुपये थी। गुजरात में प्रति व्यक्ति आय 1,41,405 रुपये, जबकि उत्तर प्रदेश में 40,373 रुपये है।

सरकारी आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि यूपी मिजोरम, नागालैंड, अरुरणाचल प्रदेश त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर राज्यों से ही नहीं बल्कि उत्तराखंड, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे नये राज्यों से भी काफी पीछे है। इस आंकड़े से सूबे की असली हकीकत समझी जा सकती है। एक और आंकड़ा इस बात की तस्दीक करता है कि उत्तर प्रदेश पांच हजार से कम मासिक आय वाले सबसे ज्यादा परिवारों के मामले में मध्यप्रदेश व पश्चिम बंगाल के बाद तीसरे नंबर पर है।

नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में बीच में पढ़ाई छोडऩे वालों की दर 11.85 फीसदी है। इस मामले में यूपी बिहार से पीछे है। बिहार में यह आंकड़ा 6 फीसदी से कम बैठता है। बीते साल उत्तर प्रदेश ने बेरोजगारी में 7.4 फीसदी का आंकड़ा पार किया है जो राष्ट्रीय औसत 5 फीसदी से 2.4 फीसदी अधिक है।

यही नहीं, वर्ष 2011 के जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में साक्षरता की दर 68 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय साक्षरता दर 74 फीसदी बैठती है। प्रदेश में 70 छात्रों पर एक शिक्षक हैं जो राष्ट्रीय आंकड़ों से बहुत नीचे है। वर्ष 2006 में निजी स्कूलों में 614 आयु वर्ग के 30.30 फीसदी बच्चे नामांकित थे। 2014 में यह आंकड़ा बढक़र 51.7 फीसदी हो गया जबकि सरकारी स्कूलों में इस आयु वर्ग के सिर्फ 41.1 फीसदी बच्चे ही नामांकित पाए गए।

स्वास्थ्य सुविधा के मामले में उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय औसत से बहुत पीछे है। औसतन 350 आबादी पर एक मरीज के इलाज की सुविधा उपलब्ध है। राज्य में कुल 60 हजार बेड हैं। भर्ती करके मरीजों की देखभाल के मामले में हम 16वें पायदान पर हैं जबकि ओपीडी में मरीज देखने के मामले में उत्तर प्रदेश 14वें स्थान पर है। यहां 51.8 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। इनमें 21 फीसदी की हालत बेहद खराब है। इंफेंट मार्टिलिटी रेट की औसत दर प्रति हजार पर 40 है। जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 50 का है। देशभर में 75 फीसदी बच्चों का जन्म अस्पताल अथवा हेल्थ केयर सेंटर में होता है। उत्तर प्रदेश में सिर्फ 50 फीसदी प्रसव इन सुविधाओं के बीच हो पाते हैं।

तेंदुलकर समिति के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 29.43 फीसदी और रंगराजन समिति के मुताबिक 39.8 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। पिछली पंचवर्षीय योजना में यूपी का उत्पादन आंकड़ा बढऩे की जगह घट गया। पांच साल पहले देश के फूड बास्केट में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 20.5 फीसदी थी, जो अब घटकर 19 फीसदी से नीचे पहुंच गई है। अकेले गेहूं की हिस्सेदारी 35 फीसदी थी जो कम होकर 19 फीसदी रह गई है।

यह आंकड़े सिर्फ विकास और पिछड़ जाने की गवाही नहीं देते। ये हमें यह भी बताते हैं कि लंबे समय से हमारा नेतृत्व हमारे प्रति क्या नजरिया रख रहा है और हमारे लिए क्या कर रहा है। वैसे एक सच्चाई यह भी है कि विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े हमारे छोटे से लेकर बड़े तक सभी राजनेताओं की अपनी विकास और समृद्धि की गति दूसरे राज्यों के नेताओं से कहीं ज्यादा तेज है।

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