Yashoda: माँ की महानता का कोई अंत नहीं, ‘ यशोदा' बनना अब मातृभावना नहीं बल्कि मजबूरी है

Yashoda: 'मातृत्व' एक ऐसी भावना है, जिसे सिर्फ एक मां या मां के जैसी भावना रखने वाला ही अच्छी तरह से समझ सकता है। अपनी कोख में एक भ्रूण को पालना, उसका संरक्षण करना और फिर उसे जन्म देना यह एक मां के लिए उसके दूसरे जन्म से कम नहीं होता है।

Update:2023-07-16 15:59 IST
Yashoda Ki Kahani in Hindi (Photo - Social Media)

Yashoda Mother Story: 'मातृत्व' एक ऐसी भावना है, जिसे सिर्फ एक मां या मां के जैसी भावना रखने वाला ही अच्छी तरह से समझ सकता है। अपनी कोख में एक भ्रूण को पालना, उसका संरक्षण करना और फिर उसे जन्म देना यह एक मां के लिए उसके दूसरे जन्म से कम नहीं होता है। उसमें वह ही जानती है कि कितने उतार-चढ़ाव पार करके वह एक नन्ही जान को दुनिया में आंखें खोलते देखती है। फिर वह आदम जात हो या पशु-पक्षी जो कि अंडे के निषेचन के माध्यम से प्रजनन की प्रक्रिया को पूरा करते हैं। भावनाएं सबकी एक जैसी ही होती हैं।

अभी कुछ दिनों पहले दक्षिण भारतीय फिल्म 'यशोदा' का हिंदी संस्करण देखा, जो कि किराए की कोख के जरिए अभिभावक बनने के विषय पर थी। यह फिल्म पिछले वर्ष नवंबर में रिलीज हुई थी। बल्कि यह फिल्म किराए की कोख के जरिए अभिभावक बनने से भी कहीं आगे तक थी। इस फिल्म की कहानी सरोगेसी पर आधारित है। सरोगेसी जिसे वैज्ञानिक भाषा में 'गर्भधारण सहायता' के रूप में जाना जाता है। यह एक प्रक्रिया है जिसमें एक महिला दूसरी महिला के गर्भ का संरक्षण करती है और उसे जन्म देती है। यह एक चिकित्सीय प्रक्रिया है जो उन लोगों के लिए मायने रखती है जिनके पास अपनी स्वयं की गर्भाधान करने की क्षमता नहीं होती है या जिनके शरीर में गर्भाधान करना चिकित्सा कारणों से संभव नहीं होता है। एक आसान भाषा में कहा जाए तो इसे किराए की कोख भी कहा जा सकता है।

हमारे देश के कई बड़े फिल्म स्टार प्रीति जिंटा, आमिर खान, करण जौहर, शाहरुख खान, शिल्पा शेट्टी, प्रियंका चोपड़ा आदि भी सरोगेसी के जरिए ही अभिभावक बने हैं। सरोगेट माता बनने के भी अपने कई कारण होते हैं। इस फिल्म में आर्थिक विपन्नता एक ऐसा कारण है जो कि एक महिला को अपनी कोख अमीर लोगों को किराए पर देने के लिए तैयार करती है। इसकी कहानी सरोगेसी से भी आगे महिलाओं के हमेशा खुद को जवान और सुंदर रखने के लिए सौंदर्य उत्पादों के प्रति आकर्षण की भी है। फिल्म में गरीब तबके की महिलाओं को सरोगेट मदर बनने के लिए लाखों रुपए का लालच दिया जाता है। वे उसके लिए तैयार भी हो जाती हैं क्योंकि किसी को अपनी बहन के ऑपरेशन के लिए तो किसी को अपने परिवार के लिए रुपयों की आवश्यकता होती है। एक आलीशान से गर्भाधान केंद्र में उन्हें रखा जाता है, जो कि बाहरी दुनिया से एकदम अलग-थलग एवं कटा हुआ होता है, जहां से बाहर की दुनिया दिखाई तो देती है पर वह एक छलावा होती है।

वे महिलाएं गर्भाधान भी करती हैं, उसके साथ वे यह भी जानती हैं कि जन्म देने के बाद यह बच्चा उनका नहीं है, फिर भी वे अपनी भावनाएं उसके साथ जोड़ती हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता है कि इस गर्भाधान केंद्र में इस बच्चे को उनके जन्म देने से पहले ही डाक्टर उनकी कोख से निकाल लेंगे, जिससे उस बच्चे के ताजा प्लाज्मा से बूस्टर डोज तैयार की जा सके। वह बूस्टर डोज जो कि महिलाओं को खुद को हमेशा के लिए जवान और सुंदर रखने के लिए बनाई जाती है। फिल्म में सरोगेट मदर ऑपरेशन के लिए तो ऑपरेशन रूम में ले जाईं जाती हैं पर उसके बाद में कभी भी बाहर नहीं आती हैं। इन्हीं सब की खोज की कहानी है सामंथा और उन्नी मुकुंदन की यह फिल्म। इसमें कई ऐसे दृश्य और कई ऐसे संवाद है जो कि हमारे सामाजिक जीवन की पोल खोलते हैं।

हम चाहें भी तो महिलाओं के अपनी क्षमता पर आगे बढ़ने का कितना भी दंभ क्यों न भर लें पर असलियत यही है कि पुरुषों को अपने अनुसार चला लेने वाली महिलाएं हमेशा ही आगे बढ़ती जाती हैं। फिल्म का एक संवाद जो कि मुख्य पात्र यशोदा कहती है,' राजा बनने के लिए युद्ध जीतने होते हैं लेकिन रानी बनने के लिए सिर्फ एक राजा को जीतना होता है' यह इसी बात पर मुहर लगाता है। यह फिल्म गर्भाधान कर रही उन स्त्रियों के उस दर्द को भी बयां करती है जहां उनके मजबूर पेट में पल रहा बच्चा सिर्फ एक 'ऐसेट' बन कर रह जाता है। फिल्म में एक निश्चित अंतराल पर बार-बार विदेशी नागरिकों के आने के कारण का भी खुलासा किया गया है। इस पूरे गोरखधंधे में लिप्त लोगों को अंततः जिम्मेदार एजेंसियों को भी तो संज्ञान में लेना होगा।

कृत्रिम गर्भाधान पिछले कुछ वर्षों में बहुत ही सामान्य सी बात हो चली है। जगह-जगह विभिन्न अस्पतालों के, निसंतान दंपतियों को लुभाते बड़े-बड़े होर्डिंग हर शहर में मिल जाएंगे आईवीएफ तकनीक और अब सरोगेसी के द्वारा। हमारे देश का कानून सरोगेसी को वैधानिक मान्यता देता है पर सिर्फ उस केस में जब उस दंपति की पहले से कोई भी संतान न हो या माता-पिता किसी ऐसे चिकित्सीय बीमारी से पीड़ित हों, जिससे उनके लिए बच्चे को पैदा करना उपयुक्त नहीं है। लेकिन कहा जाता है न कि हर अच्छा कानून तोड़ने और उसके असंवैधानिक उपयोग के लिए ही बनता है। उसी तरह से इस कानून के भी दुरुपयोग होने से नहीं रोका जा सका है। एक औरत किसी दयालु भावना के तहत या अपने किसी रिश्ते पर उपकार के तहत अपनी कोख में दूसरे का बच्चा पाल सकती है। लेकिन एक और मुख्य कारण है जिसके कारण एक औरत दूसरे बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार होती है या विवश होती है, वह है गरीबी। इस तरह की मां सरोगेट मदर कहलाती है। सरोगेसी में एक महिला और बच्चे चाहने वाले कपल के बीच एक तरह का अनुबंध होता है जिसमें कानूनन माता- पिता बनने वाला कपल सेरोगेट मदर को गर्भावस्था के दौरान अपना ध्यान रखने के लिए और मेडिकल जरूरतों के लिए खर्चा देता है , जिससे वह अपना ध्यान रख सके और जन्म लेने वाले बच्चे पर सेरोगेट मदर का कोई भी अधिकार नहीं होता है।

सरोगेसी भी दो तरह की होती है। पहली सरोगेसी को ट्रेडिशनल सरोगेसी कहते हैं जिसमें होने वाले पिता या डोनर का स्पर्म सरोगेसी अपनाने वाली महिला के एग्स से मैच कराया जाता है। इस सरोगेसी में सरोगेट मदर ही बॉयोलॉजिकल मदर (जैविक मां) होती है। वहीं, दूसरी तरफ जेस्टेशनल सरोगेसी में सरोगेट मदर का बच्चे से संबंध जेनेटिकली नहीं होता है यानी प्रेग्नेंसी में सरोगेट मदर के एग का इस्तेमाल नहीं होता है। सरोगेट मदर बच्चे की बायोलॉजिकल मां नहीं होती है, वो सिर्फ बच्चे को जन्म देती है। इसमें होने वाले पिता के स्पर्म और माता के एग्स का मेल या डोनर के स्पर्म और एग्स का मेल टेस्ट ट्यूब के जरिए कराने के बाद इसे सरोगेट मदर के यूट्रस में प्रत्यारोपित किया जाता है। हालांकि भारत में कमर्शियल सरोगेसी पर रोक लगा दी गई है, फिर भी सेरोगेसी रेगुलेशन बिल 2020 में 'इच्छुक' महिलाओं को सरोगेट मदर बनने की अनुमति दी गई है। विदेशी कपल भारत में सरोगेसी की कीमत कम होने के कारण यहां लगातार आते हैं। नियमों की सख्ती भी इस तरह की कमर्शियल सरोगेसी को नहीं रोक पा रही है। भारत के पश्चिमी राज्य सरोगेसी के मुख्य केंद्र हैं , विशेषकर मुंबई के मलाड के गांवों का हिस्सा तो पूरी तरह से सरोगेट मदर्स के कारोबार की दुनिया से बसा हुआ है।

कोविड-19 के बाद सरोगेट मदर बनना एक तरह से मजबूरी बन गया है। दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा, बर्तन या छोटे-मोटे काम करने वाली महिलाएं या फिर फैक्ट्री में मजदूरी करने वाली महिलाएं सरोगेसी से कम समय में ज्यादा पैसे की चाहत में इसे अपना रहीं हैं। परिवार का भविष्य सुरक्षित करने, बच्चों की सही देखभाल और पढ़ाई या फिर किसी के इलाज के खर्चे उठाने के लिए छोटे वर्ग की महिलाओं को सरोगेसी पैसे कमाने का एक आसान रास्ता दिखता है। हालांकि महामारी के दौरान नौकरी जाने की वजह से भी कही शिक्षित महिलाएं भी अपने घर का खर्च उठाने के लिए सरोगेट मदर बनने को तैयार हो रही हैं।

यह एक ऐसा विषय है जो कि आर्थिक संपन्नता और आर्थिक विपन्नता के बीच खड़ा है। दोनों की अपनी-अपनी मजबूरियां हैं और दोनों की अपनी -अपनी जरूरतें। क्या सही है और क्या गलत यह तो परिस्थितियों पर निर्भर है। लेकिन यह सच है कि सरोगेसी का यह कारोबार भारत में बहुत गहरे तक अपनी जड़े बना चुका है और यह एक तरह का संगठित धंधा बन गया है, जिसे कोई भी कानून फैलने से नहीं रोक पा रहा है। अशिक्षा, गरीबी, मजबूरी, जबरदस्ती और दबाव ऐसे बहुत से कारण हैं जो कि एक महिला को सरोगेट मदर बनने पर विवश कर सकते हैं।भारत में सरोगेसी का यह कारोबार करीब 15 साल पुराना है। एक आंकड़े के मुताबिक, इस कारोबार में 15 हजार करोड़ रुपए का कारोबार हर साल होता है। सरोगेसी का यह धंधा चूंकि असंवैधानिक तरीके से चलाया जाता है और एक तरह की अपराध की दुनिया का ही हिस्सा होता है इसलिए इस पर अंकुश लगाना कितना प्रभावी हो सकता है, यह देखने और सोचने वाली बात है।

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