संध्या राठौर का सवाल तो जायज है 'बच्चों के लिए अब कौन लिखे' 

Update:2017-09-01 20:22 IST

संध्या राठौर

सृजन की दुनिया में एक बड़ा प्रश्न आज तैर रहा है कि बच्चो के लिए कौन लिखे? जो भी पुराने बाल कथाकार, लेखक, कवि हैं या तो वे अब नहीं हैं और जो हैं उनकी अवस्था अब सक्रियता से कट चुकी है। हरिकृष्ण देवसरे, रमेश तैलंग, शेरजंग गर्ग, दिविक रमेश, प्रकाश मनु, क्षमा शर्मा, पंकज चतुर्वेदी आदि को छोड़ दें तो यह बच्चों की दुनिया तकरीबन खाली है।

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कहना न होगा कि आने वाली लेखकों की पीढ़ी भी तत्काल प्रसिद्धी हासिल करने वाली विधा में ही लिखना, छपना चाहती है। बाल साहित्य की यह कमी इस समय गंभीर रूप ले रही है क्योकि आज के बच्चे के पास अब केवल इंटरनेट पर सामग्री ही रह गयी है।

दूसरी तरफ बड़ों की दुनिया रोज दिन नई नई तकनीक और विकास के बहुस्तरीय लक्ष्य को हासिल कर रही है। सामाजिक विकास की इस उड़ान में अभिव्यक्ति की तड़पन को महसूस किया जा सकता है। इसका दर्शन हमें विभिन्न सामाजिक मीडिया के मंचों पर देखने-सुनने को मिलता है।

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यहां मसला यह दरपेश है कि क्या इन मंचों पर बाल अस्मिता और किशोर मन की अभिव्यक्ति की भी गुंजाइश है या फिर बाल साहित्य के नाम पर तथाकथित कहानी, कविता तक ही महफूज रखते हैं। सोशल मीडिया में क्या किशोर व बाल अस्मिता का भूगोल रचा गया है या फिर वयस्कों की दुनिया में ही इनके लिए एक कोना मयस्सर है। इसकी शैली, इसकी भाषा, इसकी प्रस्तुति और इसके प्रभाव को लेकर बहुत गंभीर होना होगा। ब्लू ह्वेल जैसे खेलों के खतरों से हमारे बच्चे अभी मुक्त नहीं हुए हैं।

यहां खतरा केवल खेलों या भाषा का ही नहीं है। चिंतन का पहलू यह है की इंटरनेट की सामग्री से बच्चों को वह मानसिक खुराक नहीं दी जा सकती जो उन्हें पुस्तकों के पढऩे से मिलती रही है। अपना समाज, अपना परिवार, अपनी नैतिकता, अपनी सृजनशीलता को वे ऐसे तो कदापि नहीं समझ सकेंगे।

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जब हम संप्रेषण की तीव्रता से इस कदर बेचैन हो जाएं कि किसी भी तरह किसी भी कीमत पर खुद को उड़ेल देने की छटपटाहट हो तो यह अभिव्यक्ति की अनिवार्यता नहीं तो क्या है। जब हम खुद को अभिव्यक्ति के संवेदनात्मक स्तर पर लरजता हुआ पाते हैं तब हमारे सामने जो भी सहज माध्यम मिलता है उसमें खुद को बहने देते हैं। समय के साथ हमारे संप्रेषण के माध्यमों में परिवर्तन आने लाजमी थे जो हुए।

वह बदलाव दृश्य एवं श्रव्य दोनों ही माध्यमों में साफतौर पर देखे और महसूस किए जा सकते हैं। सोशल मीडिया और उसके चरित्र में भी एक जादू है जिसे अनभुव किया जा सकता है। यह इस माध्यम का आकर्षण ही है कि छह साल का बच्चा और अस्सी साल का वृद्ध सब के सब इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।

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यूजर फ्रेंडली माध्यम होने के नाते बड़ी ही तेजी से प्रसिद्धी के मकाम को हासिल किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस सामाजिक माध्यम में बच्चों की दुनिया व बच्चों के लिए क्या है तो इसके लिए हमें सोशल मीडिया के विभिन्न स्वरूपों की बनावटी परतों को खोलना होगा। हम इस आलेख में खासकर उन बिंदुओं की तलाश करेंगे जहां हमें सोशल मीडिया में बाल अस्तित्व के संकेत भर मिलते हों।

बच्चों की दुनिया पर बड़ों को अब गंभीर होना ही होगा। गीत, कहानी, कविता, फिल्म, धारावाहिक और इस तरह के माध्यमों में बल अभिव्यक्ति और बलरुचि को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। बल साहित्य की प्रचुरता समाज के हित में होगी। आज भी गुलजार जैसे रचनाकार बच्चों की पसंद लिख कर बहुत सम्मान पा रहे हैं। सोहनलाल द्विवेदी, महादेवी, पंत और निराला सरीखे दिग्गजों ने भी बच्चों के लिए बहुत कुछ लिखा। इस पर आज की साहित्यिक जमात को भी सोचना होगा।

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