पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा? जिसमें मिला दो लगे उस जैसा। ऐसा बहुत बार कहा और सुना गया है पर पानी के रंग से सियासत के चश्मे रंगे जाने लगे। यह तो बहुत कम होता है। अगर आप यूपी में हैं, तो आपको बेरंग पानी में भी सियासत की रंगीनी दिखाई दे जाएगी। यूपी में सियासत किसी भी चीज पर हो सकती है। पानी, हवा, डेंगू , स्वाईन फ्लू या अन्य चीज पर। यूपी का बुंदेलखंड भले सालों से सूखा हो, पर यहां सियासी फसल के लिए जमीन हमेशा तैयार रहती है। तभी तो राजनीतिक पार्टियां यहां पर वादों के बीज बोती हैं और वोटों की फसल काट लेती हैं। पानी पानी को तरस रही करीब बंजर हो चुकी बुंदेलखंड की जमीन विरोधियों पर निशाना साधने के लिए बहुत उपजाऊ होती है। इस जमीन में ओला पड़े, तो राजनीति, सूखा पड़े तो राजनीति, किसानों की मौत हो तो राजनीति।
नई बानगी है सूखा और पानी की रेल। बुंदेलखंड में पानी के संकट से निजात देने के लिए केंद्र सरकार ने पानी की रेल भेज दी, बिना पानी के। टैंकरनुमा रेल में खनखनाते डिब्बे आ गए। सीएम अखिलेश यादव को चुनावी साल में यह कहां बर्दाश्त होता। उन्होंने पानी की रेल लेने से मना कर दिया। जल संसाधन मंत्री को चिट्ठी लिख दी कि ट्रेन नहीं 10 हजार पानी के टैंकर चाहिए। एक के बाद एक ट्विटर बाण चलने लगे। बुंदेलखंड के हर पानी, पोखरे, नाले तक की फोटो खींच कर ट्वीट किए गए । पानी है, टैंकर चाहिए के दावों को सच साबित करने के लिए।
दरअसल केंद्र और यूपी सरकार की कोशिश पानी पहुंचाने से कहीं ज्यादा दूसरे पक्ष को चुल्लू भर पानी में डुबाने की ज्यादा दिख रही है। हो भी क्यों न, चुनाव होने को एक साल से कम समय बचा है। ऐसे में साफ है कि वापसी में लगे अखिलेश और अपनी लहर के दम पर यूपी की खोई जमीन तलाश रहे मोदी और उनके लेफ्टीनेंट आंख के पानी से कहीं ज्यादा संजीदा नाक के पानी के लिए दिखाई दे रहे हैं।
दरअसल बुंदेलखंड की बर्बादी का पानी अब नाक से ऊपर बहने लगा है पर सरकारों की कान पर जूं नहीं रेंग रही है। सियासी वजहों से बुंदेलखंड का सूखा इसी साल नहीं बीते कई सालों से सुर्खियों में है। सच्चाई यह भी है कि यहां की जमीन बंजर पड़ी है। जलस्रोत सूख चुके हैं। भूमिगत जलस्तर तेजी से घटा है।
एक अध्ययन के मुताबिक अब वहां का जलस्तर 440 मीटर नीचे जा चुका है। यानी करीब आधा किलोमीटर। सूखे से पीड़ित लोगों का लगातार पलायन जारी है। बुंदलेखंड में 1987 के बाद यह 20वां सूखे का साल है। पानी की कमी से जमीनें बंजर हो चुकी हैं। गांव के गांव खाली हो गए हैं। अवैध खनन माफियाओं ने बुंदेलखंडी जमीन को खोखला कर दिया है। क्षेत्र में अवैध खनन का कारोबार किसी के छिपा हुआ नहीं है।पहाड़ के पहाड़ खोद डाले गए हैं। 200 फुट नीचे तक जमीन खोद दिए गए हैं।
बुंदेलखंड में राजनीति का आलम यह है कि पानी के साथ रोटी पर भी राजनीति होती है। पिछले दिनों सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरीं घास की रोटियों ने। बुंदेलखंड के हालात किसी से छिपे हुए नहीं है। 104 गांवों के एक हजार से ज्यादा लोगों के सर्वे से तैयार रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि हर पांचवा आदमी घास की रोटी खाने को मजबूर हैं। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि यहां के लोग जो रोटियां खा रहे हैं। वह घास से नहीं बल्कि ‘फिकारा’ से बनी है, जो एक तरह का मोटा अनाज है।
वनस्पतिशास्त्र के मुताबिक घास की 46,000 प्रजातियां होती है, जिसमें से अधिकतर खाने योग्य होती हैं। फिकारा एक परंपरागत उपज है, जिसे खाया जाता रहा है। फिकारा के अलावा ‘समा’ भी खाने योग्य है। शहरी दुनिया में रहने वाले लोग इस तरह के खाद्यान्नों से परिचित नहीं होते।
भुखमरी और सूखे की त्रासदी से अब तक 62 लाख से अधिक किसान मजदूर वहां से पलायन कर चुके हैं। यूपी के हिस्से वाले बुंदेलखण्ड के जिलों में बांदा से 7 लाख 37 हजार, चित्रकूट से 3 लाख 44 हजार, महोबा से 2 लाख 97 हजार, हमीरपुर से 4 लाख 17 हजार, उरई (जालौन) से 5 लाख 38 हजार, झांसी से 5 लाख 58 हजार व ललितपुर से 3 लाख 81 हजार और मध्य प्रदेश के हिस्से वाले जिलों में टीकमगढ़ से 5 लाख 89 हजार, छतरपुर से 7 लाख 66 हजार, सागर से 8 लाख 49 हजार, दतिया से 2 लाख, पन्ना से 2 लाख 56 हजार और दतिया से 2 लाख 70 हजार किसान और मजदूर आर्थिक तंगी और रोटी की तलाश में महानगरों की ओर जा चुके हैं ।
अप्रैल वर्ष 2003 से मार्च 2015 तक 3280 (करीब चार हजार) किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बुंदेलखंड से केंद्र सरकार को सालाना 510 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होता है। इतने भारी भरकम राजस्व के बावजूद भी यहां बंद पड़ी मनरेगा की परियोजनाओं को लेकर सरकार सचेत नहीं हैं। किसान बर्बादी की कगार पर हैं। कुछ वर्ष पहले केंद्रीय मंत्रिमण्डल की आंतरिक समिति ने प्रधानमंत्री कार्यालय को एक चौंकाने वाली रिपोर्ट पेश की थी।
रिपोर्ट यह भी बतातीहै कि सिर्फ उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेली किसान करीब 6 अरब रूपये किसान क्रेडिट कार्ड(केसीसी) के जरिये सरकारी कर्ज लिए हुए हैं। एक के बाद एक समितियां बनाकर बुंदेलखंड को बचाने की खोखली एवं कागजी कार्यवाही की जा रही हैं। पिछले 15 सालों में तमाम तरह की समितियां बन चुकी हैं। महाराष्ट्र के विदर्भ में लगभग 20 समितियां अपनी रिपोर्ट दर्ज करा चुकी थीं और नतीजा क्या निकला वही-ढाक के तीन पात। ठीक इसी तर्ज पर बुंदेलखंड भी अकादमिक अध्ययनों, रिपोर्टों का विषय और सियासत की प्रयोगशाला बना हुआ है।