लखनऊ: हमारी दिव्य भारतभूमि में राम और कृष्ण; ये दो ऐसी महान विभूतियां अवतरित हुईं। जिनका अमिट प्रभाव समूचे भारतीय जनमानस पर सहज ही देखा जा सकता है। श्रीकृष्ण के जीवन में जहां परिस्थिति जन्य आचरण का सौंदर्य प्रस्फुटित होता है । वहीं श्रीराम के आचरण में जीवन के प्रत्येक पक्ष में मर्यादा का सर्वोच्च स्वरूप। इन दोनों ही विशिष्ट विभूतियों से हम भारतवासियों की भावश्रद्धा बेहद गहराई से जुड़ी है। हम श्रीराम के हमारे धराधाम पर अवतीर्ण होने के शुभकाल श्रीरामनवमी को सदियों से समारोह पूर्वक मनाते चले आ रहे हैं। रामनवमी हमारे राष्ट्र का ऐसा पुनीत पर्व है जिसके साथ हमारा अपना नया विक्रमी संवत भी जुड़ा है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हमारे भारतीय नववर्ष यानी नया विक्रमी संवत्सर का शुभारम्भ होता है और उसके ठीक 8 दिन बाद चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी को हम अपने आराध्य श्रीराम का जन्मोत्सव पूरे देश में खूब धूमधाम से मनाते हैं।
श्रीरामकथा प्रसंगों के अनुसार अखिल ब्रह्माण्ड नायक भगवान श्रीहरि विष्णु ने त्रेता युग में चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र तथा कर्क लग्न में जब सूर्य अन्यान्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, चैत्र शुक्ल नवमी के दिन रघुकुल शिरोमणि महाराज दशरथ एवं महारानी कौशल्या के यहां पुत्र रूप में अवतार लिया था। श्रीराम का यह अवतरण काल दिन के 12 बजे तब उनकी प्रार्थना पर वे बाल रूप में प्रकट हुए। अगस्त्य संहिता में भी "मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी" श्री राम के जन्मोत्सव का अत्यन्त भावपूर्ण चित्रण मिलता है। कहा जाता है कि श्री राम के जन्मोत्सव का सौदर्य व आनन्द को देखकर देवलोक का सौंदर्य - आनन्द भी अवध के सामने फीका पड़ गया था। उस जन्मोत्सव समारोह में देवता, ऋषि, किन्नर, चारण सभी ने शामिल होकर भरपूर आनंद उठाया था। तभी से इस दिन को भारतीय जीवन में पुण्य पर्व के रूप में मनाये जाने की परम्परा बड़ गयी। गौरतलब हो कि लोकमंगल के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कालगयी कृति "श्रीरामचरितमानस" की रचना का श्रीगणेश रामनवमी के दिन ही किया था।
आइए इस पुण्य प्रसंग के क्रम में जानते हैं श्रीराम के जीवन से जुड़ा एक पौराणिक आख्यान जो उनके उदात्त व प्रेरक व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करता है। बात वनवास काल की है। श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन में जा रहे थे। सीता जी और लक्ष्मण को थका हुआ देखकर राम जी ने थोड़ा विश्राम करने का विचार किया और पानी पीने की इच्छा से कुछ दूरी पर दिखी एक झोपड़ी तक गये। उस झोपड़ी में बैठी एक बुढि़या सूत कात रही थी। उस बुढ़िया ने प्रसन्न मन से उनकी खूब आवभगत की। उन्हें बैठाया, जल पिलाया। स्नान-ध्यान करवाकर भोजन को निमंत्रित किया। इस पर राम जी रहस्यमय रूप से मुस्कुराते हुए बोले - "बुढि़या माई, पहले मेरे हंस को मोती चुगाओ उसके बाद ही मैं भोजन करूंगा।" बेचारी बुढ़िया दुविधा में पड़ गयी कि वह गरीब श्रीराम के हंस को चुगाने के लिए मोती कहां से लाये। सूत कात कर गरीब किसी तरह अपना गुजारा करती थी किन्तु अतिथि को "न" कहना भी उसे गवारा न था। इसलिए दिल को मजबूत कर राजा के पास गयी और एक अंजली मोती देने के लिये विनती करने लगी। राजा अचम्भे में पड़ गया कि इसके पास खाने को दाने नहीं हैं और मोती उधार मांग रही है। मगर कुछ सोच-विचारकर आखिरकार राजा ने बुढ़िया को मोती दे दिये। बुढ़िया उन मोतियों को लेकर घर आयी और खूब प्रेम से श्रीराम के हंस को मोती चुगाए फिर मेहमानों को भोजन कराया। रात को आराम कर सवेरे राम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी जाने लगे। राम जी ने जाते हुए उसके पानी रखने की जगह पर मोतियों का एक पेड़ लगा दिया। दिन बीतते गये और पेड़ बड़ा हो गया और उस पर फल के रूप में मोती लगने गये। पास-पड़ोस के लोग उन मोतियों को चुन-चुन कर ले जाने लगे। मगर उस बुढ़िया को कुछ पता नहीं चला। एक दिन वह बुढि़या उस पेड़ के नीचे बैठी सूत कात रही थी कि उसकी गोद में ऊपर से एक मोती आ गिरा; तब उस बुढ़िया को उस मोती के पेड़ की जानकारी हुई। उसने जल्दी से पेड़ के आसपास गिरे मोती बटोरे आर उनको कपड़े की एक पोटली में बांधकर राजमहल की ओर चल दी और उसने मोती की वह पोटली राजा के सामने जाकर रख दी। इतने सारे मोती देख राजा अचम्भे में पड़ गया। उसके पूछने पर बुढ़िया ने राजा को सारी बात साफ-साफ बता दी। राजा के मन में लालच आ गया। उसने बुढ़िया के दरवाजे से मोती का वह पेड़ उखड़वाकर अपने महल में लगवा लिया। पर रामजी की मर्जी, उस पेड़ से मोतियों की जगह बड़े-बड़े कांटे निकलने लगे। पेड़ के पास आते-आते लोगों को वे कांटे चुभ जाते और उनके कपड़े फट जाते। सभी को उस पेड़ से बहुत परेशानी होने लगी। एक दिन रानी की ऐड़ी में उस पेड़ का एक कांटा खूब गहरा चुभ गया जिससे वह भारी पीड़ा से चिल्लाने लगी। तब रानी के कहने पर राजा ने उस पेड़ को वापस उस बुढ़िया के दरवाजे पर लगवा दिया। वह दिन रामनवमी का था। कहते हैं कि बुढि़या के दरवाजे पर लगते ही उस पेड़ पर फिर से पहले की तरह से मोती लगने लगे। वह बुढ़िया उन मोतियों से सबकी मदद करती और श्रीराम का गुणगान कर सुख शांति से जिन्दगी गुजारने लगी।
इस रोचक कथा प्रसंग को यहां उल्लिखित करने के पीछे मूल मकसद श्रीराम का भक्तवत्सल रूप उजागर करना है। ऐसे ही सद्गुणों के कारण श्रीराम सामाजिक समरसता व सदाचार के राष्ट्रीय प्रतीक माने जाते हैं। रामनवमी, भगवान राम की स्मृति को समर्पित एक पुण्य दिवस है। मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, जो पृथ्वी पर अजेय माने जाने वाले महाबलशाली व शास्त्रों व नीति के प्रकांड विद्वान रावण के अहंकार का नाश करने आये थे। अपने गुणों की विशिष्टता के कारण राम राज्य (राम का शासनकाल) आज भी सुशासन, शांति व समृद्धि की अवधि का पर्याय माना जाता है। आज हम सब प्रति वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में उनका जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाते हैं किन्तु उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने के प्रति पूर्ण उदासीन बने रहते हैं। राम का जीवन चरित्र ऐसे महानायक का अप्रतिम उदाहरण है जो अयोध्या जैसे विशाल साम्राज्य के उत्तराधिकारी घोषित होने के बावजूद अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गये और आज देखें तो वैभव की लालसा में ही पुत्र अपने माता-पिता का काल बन रहा है। यह बिंदु अत्यन्त विचारणीय है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में भगवान राम के जीवन का वर्णन करते हुए लिखा है कि श्रीराम प्रातः अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करते थे जबकि आज चरण स्पर्श तो दूर बच्चे माता-पिता की सामान्य बात तक नहीं मानते। श्रीराम के जीवन का मूल उद्देश्य अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना था पर उनका आशय यह भी था कि आम इंसान शांति के साथ आपस में प्रेम व सौहार्द का भाव रखते हुए सामाजिक समरसता का जीवन व्यतीत करे। मर्यादा पालन उनके जीवन की ऐसी विशिष्टता थी जो आज दुर्लभ हो गयी है। उन्होंने न तो किसी प्रकार के धर्म का नामकरण किया और न ही किसी विशेष प्रकार की भक्ति का प्रचार।
समाज को दिशा देने में सद्साहित्य की भूमिका से हम सभी भलीभांति परिचित हैं। अपनी लेखनी के माध्यम से भक्ति और ज्ञान का चरम शिखर को यदि किसी ने छुआ है तो उनमें संत कबीर और तुलसीदास जी तथा वाल्मीकि और वेदव्यास का नाम प्रमुखता से शुमार है। भगवान को भक्ति और ज्ञान दोनों ही बहुत प्रिय हैं। वाल्मीकि और वेदव्यास ने ज्ञान मार्ग को चुना और समाज को ऐसी रचनाएं दे गये कि सदियों तक उनकी चमक फीकी नहीं पड़ सकती और कबीर, तुलसी, सूर, और मीरा ने भक्ति का सर्वोच्च शिखर छूकर यह दिखा दिया कि इस कलियुग में भी भगवान भक्ति में कितनी शक्ति है। संत कबीर जी ने राम (निर्गुण ब्रह्म) को अपनी रचनाओं का आधार बनाकर उनमें भक्ति और ज्ञान दोनों का समावेश इस तरह किया कि वर्तमान समय में कोई ऐसा कर सकता है, यह सोचना भी कठिन है।
प्राचीनकाल से ही धर्म एवं संस्कृति की परम पावन स्थली के रूप में भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या समूची दुनिया में विख्यात है। त्रेता-युगीन सूर्यवंशीय नरेशों की राजधानी रही अयोध्या पुरातात्विक दृष्टि से भी महत्त्व रखती है। चीनी यात्री फाह्यान व ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा वृत्तांतों में इस नगरी का वर्णन विस्तार से किया है। इस विवरण के अनुसार श्री रामनवमी के दिन भगवान राम के जन्मोत्सव पर देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भक्तजन अयोध्या की सरयू नदी के तट पर प्रात:काल से ही स्नान कर मंदिरों में दर्शन तथा पूजा को जुटने लगते थे। आज भी यह सुदीर्घ परम्परा पूरी आस्था के साथ कायम है। इस दिन जगह-जगह संतों के प्रवचन, भजन, कीर्तन चलते रहते हैं। अयोध्या के प्रसिद्ध कौशल्या भवन मंदिर में होने वाले विशेष आयोजनों की रौनक देखते ही बनती है। यह नगरी भिन्न-भिन्न उत्सवों पर की जाने वाली प्रमुख परिक्रमाओं के लिए भी प्रसिद्ध है- जैसे चौरासी कोसी परिक्रमा, रामनवमी के अवसर पर चौदह कोसी परिक्रमा, अक्षय नवमी पर पाँच कोसी परिक्रमा। अयोध्या के सभी प्रमुख मंदिर एवं तीर्थ इस परिक्रमा में शामिल होते हैं। अयोध्या के साथ ही हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीरामचन्द्र का जन्मदिन देश भर में मनाया जाता है, लेकिन अयोध्या में रामनवमी की धूम कुछ अलग ही होती है। अयोध्या में इस दिन मेला लगता है जिसमें देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं।