डोनाल्ड ट्रंप ने पार किया पहला पड़ाव, सियासत में अब होगी अग्निपरीक्षा

Update:2016-11-12 20:01 IST

योगेश मिश्र

रोमांचक लड़ाई से निकली जीत ने अमेरिका में भले ही बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व टिप्पणीकारों की तमाम पूर्वानुमानों को ध्वस्त कर दिया हो। भूमंडलीकरण के खिलाफ राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथ की विजय का वैश्विक संदेश दिया है और यह बताया है कि दुनिया भर के मतदाता पारंपरिक राजनेताओं से ऊब चुके हैं। तभी तो महज एक साल पहले सियासत में कदम रखने वाले दुनिया के 324 वें नंबर के अमीर डोनाल्ड ट्रंप को राजनीतिक तौर पर सबसे ताकतवर आदमी बना दिया गया है।

हालांकि इस वैश्विक संदेश के खिलाफ पराजित हिलेरी क्लिंटन का कहना कि 'अमेरिकी समाज हमारी सोच से ज्यादा विभाजित है', उनकी हताशा दर्शाता है। क्योंकि ट्रंप को 48.7 फीसदी वोट हासिल हुए। पचास में से 29 प्रांतों में वह जीत से निर्धारित 270 से 19 वोट अधिक पा गए।

ट्रंप की जीत यह भी संदेश देती है कि स्त्री और पुरुष को बांटकर देखने का दौर पराभव काल में है। अमेरिका में ही नहीं दुनिया भर में दो ही पक्ष हैं। एक अमेरिका के साथ का पक्ष, दूसरा उसके साथ न होने का पक्ष। तभी तो यौन आरोपों से घिरे, पूरे चुनाव प्रचारों में पिछड़ते, तमाम उपहास का पात्र बनते, पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कदम उठाने, आतंकवाद से दो-दो हाथ करने, आईएस को नेस्तनाबूत करने, मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणी करने सरीखी डोनाल्ड ट्रंप की तमाम बातें इस पूरी चुनावी दौड़ में उन्हें पीछे ढक़ेलती रहीं।

डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच के अब तक के सबसे आक्रामक मुकाबले में 12 उम्मीदवारों ने अपने नाम वापस लिए। 25 फीसदी युवा मतदाताओं में से सिर्फ 18 फीसदी ने हिस्सा लिया। 32 करोड़ की आबादी के अमेरिका में मतदान के लिए सिर्फ 15.3 करोड़ लोग पंजीकृत हैं। आर्थिक हैसियत भले ही ट्रंप की बहुत अधिक हो पर उनके इस चुनाव अभियान में सिर्फ 1760 करोड़ रुपए खर्च हुए जबकि हिलेरी की तरफ से 3460 करोड़ रुपए खर्च हुए।

गौरतलब, ओबामा ने अपने पहले चुनाव में 6540 करोड़ रुपए खर्च किए थे। फिर भी ट्रंप ने विजय दर्ज कराई। नतीजों में अमेरिकी मतदाताओं ने बताया कि उनके लिए राष्ट्रीय अस्मिता और पुराने अमेरिका की स्थापना, रोजगार, कारोबार सरीखी समस्याओं से ज्यादा अहमियत रखता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा और सम्मान आम अमेरिका का आज भी सपना है। तभी तो विघटन और एकजुटता के बीच मजबूत और क्रमिक नेतृत्व के खिलाफ यह बात करने वाले बेलगाम व्यक्तित्व को चुन लिया गया। जो धुर विरोधी पुतिन से हाथ मिलाने को अड़ा है। जो चीन से भी लाभ कमाने पर अड़ा है। अमेरिकी इतिहास का अब तक का सबसे शर्मनाक चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अपनाए गए शर्मनाक हथियारों के लिहाज से यह याद किया जाएगा।

हिलेरी पर पाकिस्तान को लाभ पहुंचाने और लीक ईमेल के मार्फत कई ऐसे आरोपों को पुष्टि मिली, जो उन्हें पीछे ढकेलते गए। अमेरिकी जनता के बीच उचाटपन और वितृष्णा का कारण वर्तमान राजनीति के किरदारों की भूमिका पर अविश्वास होना था। हिलेरी उस तंत्र की प्रतिनिधि बन गई थीं, जिससे लोग ऊब चुके थे। जिस राजनीतिक तंत्र को वह मृतप्राय और सड़ा-गला मान चुके थे।

पिछले करीब तीन दशकों से हिलेरी क्लिंटन अमेरिकी राजनीति और सरकार का सक्रिय हिस्सा और सक्रिय प्रतिनिधि रही हैं। परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप में हिलेरी इस सरकार और राजनीतिक व्यवस्था की बानगी और नजीर बन चुकी थीं। अमेरिका की प्रथम महिला के तौर पर भी वह किसी भी अपने पूर्ववर्ती और अनुवर्ती प्रथम महिला से ज्यादा सक्रिय रहीं। राजनीति में और राज्यों के मामलों में।

वहीं डोनाल्ड ट्रंप इस पूरी व्यवस्था से अलग खड़े थे। न तो उनका कोई राजनीतिक इतिहास रहा है, न ही उनका कोई रुझान। वह अब तक के दूसरे गैर राजनीतिक राष्ट्रपति के तौर पर जाने जाते हैं। वह ऐसे तंत्र के विकल्प के प्रतिनिधि भी थे जिससे लोग ऊब चुके हैं। जिससे उम्मीद है कि वह बाहर से आकर तंत्र को सुधारने की कुव्वत रखता है।

अमेरिकी जनता ने इस बार पूरे जोर-शोर से स्थापित राजनेता के बजाय राजनीति के बाहरी व्यक्ति को तरजीह दी। क्योंकि उनका मानना है कि बाहरी ही अब स्थापित मानदंड और लकीर की फकीरी छोडक़र देश में बदलाव ला सकता है। बाहरी और स्थापित राजनेता के विरुद्ध ओबामा से शुरू हुआ यह सफर अब ट्रंप पर खत्म हुआ है।

यानी राजनेता और राजनीतिक व्यवस्था से इतर देश को नई दिशा में ले जाने की अमेरिकी जनता की तलाश ट्रंप के तौर पर मुकम्मल मानी जा सकती है। ओबामा भले ही राष्ट्रपति चुने जाने के पहले सीनेटर रहे हों पर अश्वेत होने और शासक वर्ग के परंपरागत चोले से अलग दिखने की वजह से ही अमेरिकी जनता की पसंद बने थे। लोगों को जिस परिवर्तन की चाहत थी, वह ओबामा के चुनाव में परिलक्षित हुई। ऐसे में यह साफ था कि अमेरिकी जनता अब राजनीति के चले चलाए चेहरों से इतर कुछ नए विकल्प खोज रही थी। उनमें परिवर्तन की भूख थी जो अब बढ़ चली है।

पर अब जब ट्रंप के राष्ट्रपति की कुर्सी पर आसीन होने की औपचारिकता भर निभानी बाकी है। तब उन्हें अपने प्रचार अभियान के दौरान कही गई बातों पर कायम रहने अथवा उससे पलटने का समय आया है। ऐसे में देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि ट्रंप की विजय अमेरिकी विदेश नीति में बड़े बदलाव का संकेत है भी या नहीं। अब विदेशी ताकतों से निपटने की अमेरिका की नई नीति सामने आने की उम्मीद की जानी चाहिए या नहीं। विदेशी शक्तियों से अमेरिकी भू-राजनैतिक रणनीतिक संबंधों को नई दृष्टि से देखा जा सकता है। नई सोच का जन्म हो सकता है।

यह दिलचस्प होगा कि ट्रंप अपनी इस समझ को बदलते हैं कि नहीं कि राजनीति सिर्फ कारोबार नहीं है। कारोबार राजनीति नहीं हो सकती। जिस अमेरिकी राजनैतिक प्रणाली और उसके नेताओं की उन्होंने निंदा की, उसके साथ वह कैसे हमकदम होते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर महसूस कर रहे श्वेत अमेरिकियों को कैसे यह भरोसा दिलाते हैं कि दुनिया में अमेरिका की जो चमक फीकी हुई है, उसे वह कांतिमय करने में कामयाब होंगे।

ट्रंप को अटलांटिक के पार ट्रांस पैसिफिक साझेदारी समेत प्रशांत देशों में व्यापार समझौतों को बदलकर उसे अमेरिका के पक्ष में तब्दील करना होगा। यह आसान काम नहीं होगा। ट्रंप ने चीन के साथ व्यापार समझौतों को भी अमेरिका के हक में दुरुस्त करने का वादा किया है। अपने पूरे प्रचार अभियान के दौरान चीन के साथ हुए अमेरिकी व्यापारिक समझौतों की निंदा करते हुए गैर बराबरी और अमेरिकी हितों के पूरी तरह खिलाफ करार दिया था।

भारत के आईटी पेशेवरों को बाहर करने का अल्टीमेटम देने के बाद भी भारत से रिश्ते कैसे कायम रख पाएंगे। अमेरिका में बढ़ती बेरोजगारी, आतंकवाद, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई लडख़ड़ाती अर्थव्यवस्था सरीखे सवालों पर काम करते हुए वह कैसे आगे बढ़ेंगे। कैसे टाल पायेंगे? क्योंकि मध्य एशिया में अमेरिकी उपस्थिति और वहां के राजनैतिक आर्थिक संबंधों पर भी ट्रंप के शासनकाल में नई दृष्टि से विचार किया जा सकता है। इस क्षेत्र में अमेरिका के सबसे करीबी सहयोगी सऊदी अरब से भी संबंधों को नया कलेवर मिलने की उम्मीद है। ट्रंप ने अमेरिका-ईरान समझौते को भी अपने प्रचार अभियान में आड़े हाथों लिया है। दुनिया उनके आरोहण को इन सवालों के मद्देनजर संदेह की नजर से देख रही है।

भारत के संदर्भ में सबसे अच्छी बात यह है कि ट्रंप इन संबंधों को लेकर किसी तरह अतीतजीवी नहीं होंगे। संबंधों को एक नए दृष्टिकोण से देखा जाएगा। यह भी माना जा रहा है कि भारत के साथ दोस्ती में पाकिस्तान को साधने की अब तक की अमेरिकी राष्ट्रपतियों की बाजीगरी के दौर का अंत होगा।

चीन के साथ व्यापारिक और सामरिक संतुलन साधने और उसे अमेरिकी हितों में बदलने की कवायद को अमेरिका और नए अमेरिकी राष्ट्रपति की इस क्षेत्र में बढ़ती रुचि के तौर पर भी समझा जा सकता है। इसका यह भी मतलब है कि चीन को आकार में लाने के लिए ट्रंप अब भारत के साथ रणनीतिक और सामरिक संबंधों में और गर्माहट ला सकते हैं। भले ही उन्होंने प्रचार के दौरान यह कहा हो कि उनकी चाहत नरेंद्र मोदी के साथ काम करने की है। उन्होंने मोदी की तर्ज पर 'अबकी बार ट्रंप सरकार' का नारा दिया हो। पाकिस्तान को भारत के नजरिये से देखने की बात कही हो। पर कश्मीर में मध्यस्थता का एक बयान भारत को भी उन्हें संदेह से देखने पर मजबूर कर देता है क्योंकि भारत के लिए कश्मीर का सवाल इन सब सवालों से बड़ा है।

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